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Natutopathy चिकित्सा

 

प््रााकृतिक चिकित्सा में रोगों के निदान की दो पद्वति है।

1-            आकृति निदान

2-            कननिका निदान

शरीर में जो क्रियाएं होती है वो वात के चलते होती है।

कफ - कोल्ड, पित- गर्म।

रोगों का प्रथम कारण - कुदरत के नियमों का उल्लंघन करने से होता है। सुबह जागने और सोने से रोगों से छुटकारा मिल जाता है।

भोजन में 20 प्रतिशत एल्केलाइन डाइट और 20 प्रतिशत ऐसिडिक डाइट ।

खाद्यय पदार्थों को दो भागों में बांटा जाता है। एल्केलाइन और एसिडिक।

फल, सलाद, सब्जी, जूस- ऐलकेलाइन

चाय- एसिडिक

सब्जी में तेल, घी, मसाला कम रहना चाहिए। सब्जी बवायल होना चाहिए। किसी भी रोगी को घिया की सब्जी फायदेमंद है। शहद$ नींबू$पानी से मोटापा घटेगा। सुबह उठने के बाद दो चम्मच शहद और आधा नींबू गिलास पानी में लेना चाहिए।

 

प्राकृतिक चिकित्सा से हर रोग का ईलाज संभव है, परन्तु हर रोगी का नहीं।

जिसकी जीवनी शक्ति समाप्त हो चुकी है उसका इलाज कठिन है।

सर्दी, जुकाम आदि हो जाने पर उन्हे दवा आदि लेकर दमन करने के बजाय उन्हें एनिमा, उपवास आदि विधियों द्वारा शरीर की सफाई में सहयोग देकर स्वास्थ्य प्राप्त किया जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सा में दवा का कोई स्थान नहीं है।

आहार को ही औष्धि माना जाता है।

दिनचर्या, ऋतुचर्या, गहरी निंद, श्रम, व्यायाम आदि आवश्यक है।

 

तीव्र रोग-

मित्रवत है। जो रोग शुरू में पैदा हुआ वो तीव्र रोग है। ये जल्दी ठीक होते हैं।

जीर्ण रोग -

बहुत पुराना रोग। ये जल्दी ठीक नहीं होते। ये 1,2,3,4 के क्रम से बढ़ता है और 4,3,2,1 के क्रम से ठीक होता है ये जल्दी ठीक नहीं होते।

सारे रोगों का कारण एक और उसका ईलाज भी एक है।

विजातीय पदार्थ शरीर में जमा होने लगता है और यहीं जमाव रोग पैदा करता है। विजातीय पदार्थ शरीर के जिस भाग में या जिस अंग में जमा होंगे उसके अनुसार रोग के लक्षण  पैदा होंगे।

पंच महाभूत चिकित्सा - हवा, पानी, मिट्टी, अग्नि, आकाश।

उभार ब्तपेपे दो तरह के होते हैं-

1-            तीव्र रोग - रोगों को ठीक करता है।

2-            जीर्ण रोग -  जीर्ण रोग का रोगी मर जाएगा । जीर्ण रोग में रोग बढ़ते जाता है।




अग्नि चिकित्सा

 

सूर्य के दृश्य सात रंगों के प्रकाश किरणों का अलग-अलग प्रभाव होता है। ये सभी रंग का पानी, चीनी, मिश्री इत्यादि खाली पेट खाना-पीना है।

लाल- रक्त संचालन बढ़ाने वाली, रक्त के लाल कणों में वृद्वि करने वाली, दर्द को दूर करने वाली, कब्जियत को दूर करने वाली, गठिया या जोड़ों में दर्द।

लाल (ज्ञडछव्4) पोटैशियम परमैगनेट

नारंगी - कब्जियत।

पीला- इस रंग का पेट पर और सम्पूूूूर्ण पाचन संस्थान पर विशेष प्रभाव होता है। उत्साहवर्द्वक और कामोतेजक भी है।

हरा- शांतिकारक प्रभाव उत्पन्न करता है। आंखों पर इस रंग का विशेष प्रभाव पड़ता है। रक्तचाप को कम करता है। मन  की व्यग्रता, चिड़चिड़ापन और उग्रता को दूर करता है। कब्जियत को दूर करता है। बुखार कम करता है। जीभ लाल रहती है।

नीला - सिर पर एवं बाल असमय झड़ने पर अच्छा असर पड़ता है। बुखार को कम करता है। कील मुंहासे को दूर करता है। जलन को शांत करता है। विषैले जन्तुओं के काटने पर।

जाम्बुनी रंग- अंडकोश की वृद्वि, अतड़ियों के फिल्लियों के प्रदाह, बच्चेदानी के कड़ापन, ल्यूकोरिया आदि रोगों में प्रयोग किया जा सकता है।

बैगनी रंग- मनोविकृति जन्य अनिद्रा, कैंसर आदि रोगों में प्रयोग किया जा सकता है।

सावधानी - उत्तेजना, प्रदाह, बुखार, हाई बीपी में लाल रंग का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

आमवात, गठिया, बाय, पक्षाघात आदि हो नीले, जाम्बुनी, बैगनी का प्रयोग नहीं करनी चाहिए।

भूरा - कब्ज, जीभ पर सफेद रंग की मैल की परत जमती है। कब्ज वालों को सुबह हरे रंग और भोजनोपरान्त भूरे रंग का जल दिया जाता है।

सूर्य किरणों से अलग-अलग रंगों का प्रभाव प्राप्त करने के लिए सरलतम उपाय यह है कि जिस रंग का प्रभाव  चाहें उसी रंग की कांच की बोतल लेकर उसमें तीन चौथाई पानी/ तेल/ मिश्री/ चीनी/ सुगर आपॅफ़ मिल्क डालकर धुप में रख दें।

पानी 8 घंटे में, तेल 45 दिन में, चीनी मिश्री सुगर ऑफ मिल्क एक सप्ताह में संबंधित रंग के गुणों वाली औषधि बन जाएगी। पानी आधी कप की मात्र में पीया जाता है। तेल मालिश किया जाता है। चीनी, मिश्री, सुगर ऑफ मिल्क आधी चम्मच की मात्र में खाया जाता है।

स्ेांक - इन्फ्रा रेड लैम्प, शार्ट वेव डायथर्मी, अल्ट्रसाउन्ड उपकरण आदि चिकित्सालयों में गर्मी देने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। मोम को पिघलाकर सेंकने का कार्य भी किया जाता है। घरों में बोतल या रबर की थैली में गर्म पानी डालकर सेेंका जाता है। ईट गरमा कर उससे सेंकने का काम लिया जाता है। मिट्टी की पट्टी को गर्म कर सेंकने तथा लेप करने के प्रयोग भी किए जाते हैं। सेंक अंग विशेष की स्थानीय अथवा सम्पूर्ण शरीर की, की जाती है। सम्पूर्ण शरीर कीे सेंक के लिए धूप, थर्मोलियम, गर्म वायु स्नान अथवा भाप स्नान की व्यवस्था की जाती है।

धुप में तेल मालिस करके ठंढ़े जल का स्नान करने की आदत बहुत कम लोगों को है। ऐसे लोग प्रायः स्वस्थ और सबल बने रहते हैं।

गर्मी दर्दनाशक प्रभाव उत्पन्न करती है। इसलिए  जहां कहीं दर्द हो लोग अनेक विधियों से सेंकाई करते हैं।

मिट्टी चिकित्सा - हाई बीपी- 2 फुट गहरा व्यक्ति के लेटने लायक गड्डा खोदकर उसमें कीचड़ सानकर रोगियों को थोड़ी देर आधा घंटा लेटने का अभ्यास कराए जा सकते हैं। इससे शरीर की पूरी थकान दूर हो जाती है। रक्तचाप अधिक होतो सामान्य हो जाता है। ठंढ़ी रीढ़ पट्टी के प्रयोग से हाई बीपी कम हो जाता है।

मूलतानी मिट्टी पूरे शरीर में लगाकर उसके सुखने की प्रतिक्षा करनी चाहिए और सुखने पर रगड़कर साफ कर ताजे पानी से स्नान करने से घमौरी, कील मुंहासे निकलने की संभावना समाप्त हो जाती है। यदि निकली हो तो ठीक हो जाती है। जिनके शरीर से पसीने की दुर्गंध आती हो उन्हें यह प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

मुल्तानी मिट्टी का लेप चेहरे पर लगाकर सुखने पर रगड़कर साफ करना चाहिए। तत्पश्चात धो देना चाहिए। इससे कील, मुंहासे ठीक हो जाते हैं। चेहरा कांतियुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति भयंकर रूप से कील मुंहासे से पीड़ीत हैं उन्हे कब्जियत दूर करने वाले आहार क्रम तथा उपायों को भी साथ में प्रयोग करना चाहिए।

कब्जियत दूर करने के लिए मिट्टी की पट्टी (एक ईंच, आधा ईच, 2 ईंच मोटी) को पेडु पर रोज लगभग 15 से 30 मिनट लगाई जाए तो कब्जियत दूर हो जाती है। पेट के समस्त रोगों में यह रामवाण है।

बुखार हो तो यह पट्टी पेडु पर तथा माथे पर दोनों जगह एक साथ लगायी जा सकती है और बुखार कम होने तक बार-बार बदला जा सकता है।

पेचिस या हैजा हो तो पेट पर ठंडी मिट्टी की पट्टी लगातार बार-बार बदलते हुए तब तक लगाना चाहिए जब तक कि रोगी को आराम न मिल जाए। रोगी के शरीर में पानी की कमी न हो जाए इसके लिए पानी पिलाते रहना चाहिए।

नींबू $ शहद या  नमक भी पानी में घोलकर दें।

दाद यानि एग्जिमा पर मिट्टी का प्रयोग अत्यंत लाभकर पाया गया  है।

 

आकाश चिकित्सा

 

अल्पकालिक उपवास 1 से 3 दिन तक माना जाता है। तीन दिन से एक सप्ताह या उससे अधिक दिन का उपवास दीर्घकालिक उपवास माना जाता है।

दीर्घकालिक उपवास क्षय, मधुमेह आदि रोग जिनसे शरीर क्षीण हो रहा हो, नहीं करना चाहिए।

जब शरीर स्वच्छ हो जाए अर्थात् शरीर में एकत्र मल निष्कासित हो जाए तो उपवास तोड़ देना चाहिए। स्वच्छ शरीर के खुराक की मांग को यदि पूर्ति न किया गया तो शरीर स्वयं के मांसपेशियों का भक्षण करने लगेगा। शरीर क्षीण होता जाएगा।

स्वस्थ व्यक्ति को स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए साप्ताहिक एक दिन का उपवास हो, रोगी को रोग की अवस्था के अनुसार। उपवास तोड़ने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। रसाहार, फलाहार, पक्की सब्जी पर रहने के बाद साधाारण आहार पर आना दीर्घकालिक उपवास वालों के लिए आवश्यक है। ये आहार मुख्य रूप से क्षारिय होते हैं। इस प्रकार के आहार शरीर शोधान में सहायक होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा ईलाज में उपवास का विशेष महत्व है। उपवास के दौरान पाचन प्रणाली को विश्राम मिल जाता है। उपवास में रोगी अपने को ज्यादा स्वस्थ और ज्यादा ऊर्जावान अनुभव करने लगते हैं। जो अत्यधिक कमजोर रोगी होते हैं और व्यायाम नहीं कर सकते, उनके लिए मालिश, व्यायाम की पूरक का काम करती है। मालिश और व्यायाम का प्रयोग अंग-प्रत्यंगों को पुष्ट करते हुए शरीर के रक्त संचार को उन्नत करना होता है।

वायु चिकित्सा

श्वास प्रश्वास रौगिक अवस्थाओं में तथा तनाव वाली परिस्थितियों में आवश्यक है। 1 मिनट में व्यक्ति 13 बार श्वास प्रश्वास की क्रिया करता है। रौगिक अवस्थाओं में पूरी गहरी श्वास लेना कठिन होने लगता है। यदि क्रोध आ रहा हो तो 5-6 बार गहरी श्वास ले लेने पर तुरन्त वह मनः स्थिति में बदल जाती है। यदि धीरे धीरे पूरे श्वास को बाहर निकालकर रोकने का अभ्यास किया जाए तो मन एकाग्र होने लगता है।

आन्तरिक प्रयोग और बाह्य प्रयोग

आन्तरिक प्रयोग - श्वास लेना और छोड़ना।

बाह्य प्रयोग- कमरे के तापमान का नियंत्रण कर शरीर के तापमान को घटा सकते हैं।

वायु स्नान- नर्वस सिस्टम को कंट्रोल करता है।

वायु स्नान- पतले कपड़े पहनकर टहलना वायु स्नान कहलाता है।

वायु स्नान- कोल्ड एयर बाथ, हॉट एयर बाथ। सरकुलेसन बढ़ाने के लिए हॉट एयर बाथ का प्रयोग किया जाता है।

दमा - फेफडे़ पर असर पड़ने वाले व्यायाम और आसन,ध् यान, प्राणायाम कराए जाते हैं। सीने की लपेट और गर्म पाद स्नान दमा के दौरे को रोकने में विशेष प्रभावकारी है।

हॉट हैंड बाथ में दोनों हाथों को भिंगोते हैं। इससे दमा के रोगी को ठीक किया जाता है। गर्मपादस्नान दमा के दौरे को रोकने में विशष प्रभावकारी है।

गठिया- एसिड़ यानि अम्लीय पदार्थ जमा होने से होता है। क्योंकि हड्डियां छारिय प्रकृति की होती है। क्षारिय प्रधान आहार फल, सब्जी दिया जाता है। जिन-जिन अंगों में जोड़ों में सुजन और दर्द इत्यादि है उन्हें सेंक कर ठंडी पट्टी बांधना और उपर से गर्म सुखा कपड़ा लपेटने या गर्म पट्टी आदि आवश्यकता अनुसार लगाई जाती है।

दर्द हो तो सेंकने से दर्द कम होता है।

हाई वीपी- ठंढे़ रीढ़ स्नान या ठंढ़ी रीढ़ पट्टी।

लो बीपी- गर्म रीढ़ स्नान, गर्म रीढ़ पट्टी।

कील मुंहासे- मुल्तानी मिट्टी चेहरे पर लगाकर लगड़कर साफ करने से भयंकर रूप से किल मुंहासे वाले व्यक्ति को कब्जियत दूर करने वाले आहार क्रम तथा उपायों का प्रयोग करना चाहिए।

 

कमर दर्द

 

 1 चम्मच मैथी $ आधा चम्मच अजवाइन नियमित लेना है।

पेडु की पट्टी से कालरा या डायरिया ठीक हो जाता है। पेडु की पट्टी गर्म हो जाने पर बदल दिया जाता है। बुखार में मिट्टी की पट्टी माथे पर  लगाने से ठीक हो जाता है। टेम्परेचर कम करने  के लिए पेडु की पट्टी कमर यानि नाभी के पास लगाने से टेम्परेचर कम हो जाता है। घाव होने पर मिट्टी की पट्टी लगाने से ठीक हो जाता है। मिट्टी को 10 दिन धूप में सुखाकर प्रयोग में लाते हैं। पेडु की पट्टी ब्वदेजपचंजपवद दूर करता है। अनिद्रा के रोगी को पैर को गर्म पानी में डालने पर अनिद्रा दूर हो जाता है या हॉट बाथ करना चाहिए।

बीपी, उन्माद यानि मानसिक उत्तेजना, शरीर में बदबू , ज्यादा पसीना आना आदि रोग गिली मिट्टी से स्नान करने से ठीक हो जाता है।

बी-पी- और नर्वस सिस्टम  कोल्ड स्पाइनल बाथ देने से ठीक हो जाता है।

फुट बाथ - कुर्सी पर बैठकर पैर का 6 ईंच भाग पानी में भिगो देते हैं और सिर पर ठंढी तौलिया रख देनी चाहिए।

हाट हैंड बाथ - में दोनों हाथ को भिगोते हैं इससे दमा के रोगी को ठीक किया जाता है।

96-97 डिग्री चेम्परेचर नेचुरल कहलाता है।

हॉट बाथ, कोल्ड बाथ, नेचुरल बाथ, टब बाथ प्रयोग में लाए जाते हैं।

नेचुरल बाथ सबसे ज्यादा प्रयोग में लाया जाता है।

पागलपन का पहला लक्षण नींद न आना, अनिद्रा दूर करने का सबसे अच्छा तरीका नेचुरल बाथ है।


वाग्भट ने कहा है कि भोजन के मघ्य, अंत और पूर्व में जल पीने से शरीर क्रमशः सम, स्थूल तथा कृश होता है।

आहार में अम्ल, लवण रस वाले पदार्थों की अधिकता हो तो अंत में दूध आदि पदार्थों का सेवन करना चाहिए। खाने के बाद बैठने से तंद्रा, लेटने से पुष्टि तथा टहलने से आयु की वृद्वि होती है।

यदि खाने के बाद लेटना हो तो बाएं करवट लेटना चाहिए, क्योंकि बाएं करवट लेटने से आहार का अच्छी तरह पाचन होता है।

भोजन करते समय कफ़ की वृद्वि होती है, पचते समय पीत की और पच जाने पर वायु की वृद्वि होती है।

भोजनोपरांत बढ़ने वाले कफ की शांति के लिए पान, मनोनूकुल, कशाय, तिक्त पदार्थों जैसे- सुपारी, कस्तुरी, लवंग, इलायची, सौंफ आदि का सेवन करना चाहिए।

 

 

 

 

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