नाड़ियॉं
नाड़ियों का उदगम
स्थान कन्द स्थान, नाभि से नीचे तथा स्वादिष्टान से ऊपर है। जहां से 72,864 नाड़ियॉं निकलती
है, उनमें से दस नाड़ियॉं प्रधान है। पांच ज्ञानेन्द्रियाें को जो नाड़ियॉं जाती है-
इड़ा, पिंगला, सुसुम्ना, गंधारी, हस्तजिह्वा, पुसा, यशस्वनी, अलंबुसा, कुहु, शंखीनी।
1- शंखीनी - गुदा में 2- पुसा- दोनों कान 3- यशस्वनी - बाएं कान 4- अलंबुसा- जीभ में 5- कुहु (किरकल) - लिंग 6- इडा - बाएं तरफ ठंढ़क
7- पिंगला- दाएं तरफ गर्मी 8- सुसुम्ना - बीच
में 9- गंधारी - बाएं आंख में 10- हस्तजिह्वा -
दाएं आंख में।
सुसुम्ना के
कार्य - धारणा, ध्यान, समाधि की प्राप्ति।
शंखिनी के कार्य
- मल विसर्जन
वारूणी - मूत्र
विसर्जन
कुहु - मूत्र का
ले आना
शिवनी नाड़ी -
अखंड ब्रम्हचर्य का पालन।
मानव शरीर के
अंदर योगशास्त्र के अनुसार 72,864 नाड़ियों का वर्णन आया है और उन नाड़ियों का
उद्गम स्थान नाभि मंडल माना गया है। यहां से ही 72,864 नाड़ियां उत्पन्न हुई है जो शरीर में दाईं-बाईं, उपर-नीचे और मध्य
में विद्यमान है। उदर के मध्य भाग मणिपुरक चक्र में अर्थात् स्वादिस्टान चक्र के
उपर और नाभि के नीचे गोले का कन्द स्थान उसके बीच एक पक्षी के अंडे के समान
नाड़ियों का उद्गम स्थल है। इन 72000 नाड़ियों में 10 नाड़ियां प्रमुख है।
चूड़ामणि उपनिषद में
नाड़ियों के विषय में कहा गया है- इड़ा बामे स्थिता भागे दक्षिणे पिंगला स्थिता।
सुसुम्न मध्य देश तु गंधारी वाम चक्षुसि।। दक्षिणे हस्तजिह्वा चैव पूसा करणे च
दक्षिणे। कुहश्च लिंग देशेतु मूल स्थाने तू शंखिनी।। चरणदास नाड़ियों के विषय में
कहते हैं-
1- गुदा स्थान के अंदर शंखिनी नाड़ी है जो मल
विसर्जन करती है।
2- किरकिल गुदा स्थान में मूत्र का विसर्जन करती
है।
3- पूसा और यसस्वनी दोनों बाएं कान में है।
4- गंधारी और हस्तजिह्वा
आंखों को देखने तथा पलक झपकाने का कार्य करती है।
5- अलंबुसा जिह्वा में इसके द्वारा छः प्रकार के
रसों का अनुभव करते हैं।
6- दाएं नासारंध्र्र, पिंगला नाड़ी, गर्म
जो शरीर के सिर से लेकर पांव तक के अंग को संचालित करती है। इसका कार्य
दाएं नासारंध्र से श्वास को लेना व छोड़ना है।
7- इड़ा को चन्द्रनाड़ी भी कहते हैं। इसमें मस्तिष्क
से लेकर पांव तक सम्पूर्ण शरीर में रक्त संचार में सहायक है। इसका मुख्य गुण शरीर
को ठंड़क देना है। शरीर में गर्मी पहुंचाना पिंगला का कार्य है व ठंड़क पहुंचाना इड़ा
का। इनमें किसी के विपरीत हो जाने पर मनुष्य का शरीर रोगी होने लगता हे। सुसुम्ना
नाड़ी इड़ा और पिंगला के बीच में है इसका स्थान शरीर के मेरूदंड के बीच में है।
अर्थात् इसके द्वारा योगियों के अपने लक्ष्य की प्राप्ति होती है तथा इसके द्वारा
योगी धारणा, ध्यान, समाधि को प्राप्त कर लेता है।
भक्ति सागर में
कहा गया है-
कभू इड़ा स्वर चलत
है कभू पिंगला माही।
मध्य सुसुम्ना
बहत है गुरू बिन जाने नाहीं।। सीवै अग्नि स्वरूप है बड़ी योग सरदार। याही से कारज
सधौ ऐसी सुसुम्ना नार।।
अर्थात् चरणदास
जी कहते हैं थोड़ी देर इड़ा स्वर चले और थोड़ी देर पिंगला ऐसा बार-बार चलने पर मध्य
में सुसुम्ना नाड़ी चलने लगती है। सुसुम्ना अग्नि समान बहुत तेजमान है। योग में सबसे
प्रमुख है क्योंकि योगियों के सारे कार्य इस नाड़ी से ही सिद्व होते हैं।
योगशिक्षोपनिषद
में कहा गया है- मलं तजेत कुहु नाड़ी, मूत्रम् मून्चति वारूणि।
चित्रख्या शिवनी
नाड़ी, शुक्रमोचन कारिणी।।
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