दमा
दमा में दर्द, हाथ पैर फुला हुआ, थकावट महसुस होती है, अधिक बलगम बन जाती है, कफ की अधिकता होती है। 2» व्यक्ति दमें से पीड़ित है।
कारण:- 1 आनुवंशिक कारण, एलर्जी, प्रदुषण, इनफेक्सन, मानसिक तनाव, खाँसी-जुकाम ज्यादा होने से दमा हो जाता है।
लक्षणः-1- शारीरीक लक्षण -
सिर दर्द, फेफडे़ में दर्द, थकान महसूस करना, शक्तिहीनता, चक्कर आना।
मानसिक लक्षण:-
मरने का डर, आक्रमणों का डर, चिड़चिड़ापन, क्रोधित होना, चीजों से असंतोष होना।
श्वसन संकुचन
लक्षण:- हॉंफना, श्वास का फुलना, बलगम बनना, छाती में जकड़न, घबराहट होना, दम घुटना।
दमा वाले रोगी को
श्वास लेने से ज्यादा दिक्कत श्वास छोड़ने में होती है ।
श्वास के साथ-साथ
आवाज होती है। छाती फुलना, खाँसी होना, थोड़ा सा परीश्रम करते समय श्वास छोड़ने में
कठिनाईं, रात्री में दमें का दौरा अधिक हो जाता है। कमजोरी तथा बेचैनी का विषेश अनुभव, पैरों के तलवे
में जलन, कभी-कभी पीठ में दर्द होता है, रोगी को श्वास का घुटन महसुस होता है, श्वास की नलियों
में खींचाव के कारण पसलियों में दर्द, प्रायः दौरे के समय रोगी का श्वास रुकने जैसी
महसुस होती है उस समय रोगी हाँफता है और रोग के साथ संघर्ष करता है। यदि रोगी सोया
हुआ हो तो उठकर बैठ जाता है रोगी के शरीर पर और चेहरे पर ठंडा महसुस होने लगता है
और शुद्व वायु के लिए खीड़की की तरफ भागने लगता है। उसे नासारंध्रों से श्वास का
रेचन करवाते है अर्थात् उडयानबंध तुरंत करने से रोगी को राहत मिलती है क्योंकि
श्वास छोड़ते वक्त बव2 यानि कार्बनडाईं आक्साइड ज्यादा से ज्यादा बाहर निकल जाती
है और व2 यानि आँक्सीजन लेने की क्षमता ज्यादा होती है। दमा का सामान्य लक्षण वायु
प्रकोष्ठों में सिकुड़न से श्वास लेने और छोड़ने में कठिनाई होना।
श्वास लेते समय
और प्रश्वास के समय कौन कौन से अवयवों का उपयोग किया जाता है -
नाक, गला, कंठ, श्वास नली, फेफडे़ और श्वास पटल यानि डायफ्राम श्वसन के
प्रमुख अंग है ।
दमे रोग के निदान
के लिए -
दमा को जड़ से
खत्म करने की विधि किसी में नहीं है ।
एलोपैथी में -
डेरीफाइनील, टेड्राल, एड्रेनालिन, इफेड्रिन, अस्थालिन, जिसका काम सिकुड़ी हुईं सांस नलियों में फैलाव
लाना है। दुसरे वर्ग के भीतर जमे बलगम को तरल बनाकर बाहर निकालने वाली दवाएं हैं
जैसे - ब्रोमहेक्सिन। तीसरे वर्ग की दवाएं रिजर्व में रखी जाती है जो रोग के उग्र
होने पर दी जाती है जैसे - प्रेडनीस्लोन, डेल्टार्कोटिल आदि। अंॉक्सीजन देकर केवल मरीज
को तत्काल राहत पहुँचा सकते हैं। परन्तु रोग तो वहीं का वहीं रह जाता है कई बार इन
दवाईंयों से धीरे-धीरे रोग अधिक भयंकर हो जाता है। रोग के द्वारा श्वास की नलियों
पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। दमे के रोगों से ग्रस्त रोगी को कम उम्र में अभ्यास
कराया जाए तो कंट्रोल कर सकते है ।
सावधानियाँ - दमे
वाले को नौली नहीं करानी है ।
अचूक औषधि -
कारण -
श्वास की नलिकाओं
मेेंं जो श्लेेष्मा जमा होती है वो सूत्रनेति, जलनेति, धौति से आसानी से बाहर निकल जाती है, क्योंकि श्वास
लेने में आसानी हो जाती है। अतः दौरे वाले को षटकर्म की क्रियाएं अवश्य करानी
चाहिए।
कुंजल क्रिया
द्वारा बलगम पिघलकर बाहर निकल जाती है ।
सु़त्रनेति, जलनेति, भस्त्रिका कराएं
।
नेति क्रिया - जब
सूत्रनेति की रगड़ने की क्रिया के द्वारा श्वास की नली की अच्छी तरह से सफाई हो
जाती है। सफाई होने के साथ-साथ बढ़ा हुआ माँस भी कट जाता है दमा, जुकाम, साइनोसाइटिस आदि
का अचूक दवा है ।
सूत्रनेति के बाद
जलनेति और कपालभाति अवश्य करनी चाहिए। अर्थात् लोहार की धौकनी की भाति रेचक पुरक
करने से लाभ होता है। 20 प्रकार के कफ रोगों से मुक्ति मिलती है।
धौती से खाँसी, दमा, प्लीहा एवं 20 प्रकार के दमा
के रोग दुर होते है। यद्यपि धौति पेट में जाकर श्वासनली की श्लेष्मा निकलने में
सक्षम है। नली के समीप श्वासनली होने से एक में धौती जाने से दोनों की सफाई हो
जाती है। दमा एलर्जी के कारण होती है। किसी-किसी को विजातिय द्रव्यों से दमा हो
जाती है। धौती क्रिया करने से बाहर निकल जाती है। जिससे की आंतरिक एलर्जी नहीं
होती। वस्त्रधौति से कफ निवारण होता है इससे श्वास का रास्ता साफ हो जाता है ।
शंखप्रक्षालन -
इस क्रिया के द्वारा विजातिय पदार्थ निकल
जाते है। ये शोधन की सबसे उत्तम क्रिया है। श्वसन लक्ष्ण के रोगियों के कम करने की
क्षमता होती है। इसके करने से शरीर की शुद्वी होती है और देह निर्मल होता है। दमा
वाले को सुक्ष्म व्यायाम की केवल श्वसन क्रियाएं ही कराते हैं जिसे बिना थकान के
आसानी से हो जाती है सुक्ष्म व्यायाम की सारी क्रियाएं खडे़ होकर की जाती है जिससे
अपार शक्ति मिलती है और श्वास लेने से सफाई हो जाती है ।
ब्रोनकाइटिस -
कफ बाहर निकलने
में सहायता मिलती है। फेफडे़ मजबुत होते हैं क्योंकि श्वास लेने से फेफड़े वायु से
भर जाते है जिससे की अधिक सक्रिय होकर रक्त को भली-भाति शुद्व करते है। रोग
प्रतिरोध की शक्ति को बढ़ाते है इस प्रकार दमा के रोग में सूक्ष्म क्रियाएं
आश्चर्यजनक प्रभाव डालते है।
1-
उच्चारण स्थल तथा
विशुद्व चक्र की शुद्वि -- इसके करने से गले में जमा हुआ कफ़ निकल जाते है ।
2-
प्रार्थना -
3-
बुद्वि तथा धृति
शक्ति विकासक क्रिया - शिखामंडल के नीचे बुद्विस्थान पर जो नाड़ी है उसकी कफ आदि
होने से नाड़ी की गति अवरुद्व हो जाती है जिससे की व्यक्ति की बुद्वी मंद हो जाती
है, स्मृति मंद हो जाती है। इस प्रकार लम्बे गहरे श्वासों से नाड़ी का कपफ़ टुट
जाता है तथा बुद्वी चक्र की शुद्वि होती है। मस्तिष्क में कफ को सुखाता है।
4-
ग्रीवा शक्ति
विकासक क्रिया - ग्रीवा शक्ति में गले का कफ सुख जाता है या मुँह के रास्ते से
बाहर निकलता है ।
5-
वक्षस्थल शक्ति
विकासक - फेफडे़ के नीचे अधिक व्यवहार किया जाता है जिससे चालू हो जाता है तथा
फेफड़े के नीचले भाग के संचालन में संचार हो जाता है तथा रक्त की शुद्वी होती है
फेफड़ों की क्षमता में सुधार आता है।
6 उदर शक्ति विकासक
क्रिया - दमे के रोगी को कुंभक नहीं कराया जाता बाकी नौ क्रियाएं श्वास निकालते
हुए पेट की भीतरी दीवार को जहाँ तक संभव हो सके संकुचित किया जाता है जिससे की
मध्य पट छाती की ओर बढ़ जाता है। इस अभ्यास से दमा रोगी संभवतः अपने मध्य पटल या
मांसपेसियों को अधिक प्रभावशाली बना सकता है तथा श्वसन संकुचन के लक्ष्ण व चिन्ह
कम हो जाते है।
आसन
आसनों के द्वारा
रोग दुर होते हैं ।
आसनों में
विजातिय पदार्थ तथा श्लेष्मा, बलगम, कफ निकालने की क्षमता होती है आसनों से
अंतःस्त्रवी ग्रंथियों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है।
पिट्यूटरी
ग्लैड़्स, थायराइड ग्लैंडस, लीवर, पैंक्रियाश आदि ग्रंथियों पर प्रभाव पड़ता है।
यह ग्रथियां अधिक प्रभावशाली होकर कार्य करता है। रोग प्रतिरोध की क्षमता बढ़ती है।
खाया हुआ अन्न भली-भाति पच जाता है। जिसको दमा अपच के कारण होता है उसको आसन बहुत
सहायक है। दमे की दौरा होने की आशंका समाप्त हो जाती है। दौरा प्रायः अपच से होता
है योगासनों से फेफड़े मजबूत, श्वास नलियों की सिकुड़न धीरे-धीरे कम होती है
जिसे की रोगी को श्वास लेने छोड़ने में किसी विशेष प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं होता।
आसन प्राकृतिक द्वन्दों के साथ-साथ मानसिक द्वन्दों के प्रति भी सहनशीलता बढ़ाती
है। यह मानसिक शक्ति, मानसिक प्रशन्नता, एकाग्रता भी बढ़ाती है। आसनों के द्वारा शरीर
में हलकापन होता है ।
कार्य करने की
क्षमता बढ़ती है। वात-पित-कफ दोषों का शमन होता है तथा जठराग्नि प्रदीप्त होता है।
एलर्जिक पदार्थों के प्रति सहनशीलता बढ़ती है ।
गोमुखासन -
फेफड़ों से संबंधित बिमारियों में लाभदायक है। यह आसन दमा,
टी- बी, क्षय से संबंधित
को विशेष रुप से करना चाहिए, क्योंकि इसमें एक तरफ से करने पर एक फेफड़े का
श्वास अवरुद्व हो जाता है और दुसरा फेफड़ा तीव्र वेग से चलने लगता है उसी प्रकार
दुसरी तरफ से करने पर पहले की तरह कार्य करने लगता है। इस प्रकार यह आसन फेफड़ो की
सफाई तथा रक्त संचार में काम करता है। इसमें एक व्यक्ति को एक श्वास में जितनी
अँाक्सीजन की आवश्यकता होती है उसके कई गुना मात्र में मिलता है ।
सिंहासन - इस आसन
के अभ्यास से सिंह के समान बल मिलता है और विरता की भावना मन में आती है जिससे की
दमा रोगी से लड़ने की शक्ति का भाव मन में आता है तथा गले से संबंधित रोग दुर होते
है। गले का कफ मुख द्वार से बाहर निकल जाता है।
कोनासन - इस आसन
से कमर, पसली तथा ग्रिवा का भाग खींच जाता है जिससे रक्त का संचार बढ़ता है। फेफड़े
विस्तृत होते हैं। कफ, दमा, क्षय, टी ़बी ़ आदि व्याधियों में यह आसन लाभ पहुँचाता
है।
ताड़ासन - इससे
फेफड़ों में अधिक से अधिक आँक्सीजन मिलता है जिससे फेफड़े विस्तृत होते है कफ रोगी
ठीक हो जाता है ।
अश्वथासन -
ज्यादा से ज्यादा आँक्सीजन मिलती है और दुषित वायु बाहर निकलती है।
कुर्मासन - इस
आसन में गले को खींचकर पीछे ले जाते है जिससे की थायरायड ग्रंथियों पर अच्छा
प्रभाव पड़ता है। गले के रोग ठीक होते है। नजला, जुकाम, दमा आदि श्वास रोग निवारण में सहायता मिलती है
लगाातार इस आसन के अभ्यास से शरीर में उष्णता आती है जिससे की कफ सुख जाता है और
दमें से राहत मिलती है ।
उतानकुर्मासन
- इसे करने से दिमाग और फेफड़ों की शुद्वी
होती है तथा फेफड़ों में जमा हुआ श्लेष्मा बाहर निकल जाती है और दिमागी परेशनियाँ
दुर हो जाती है जिन्हे दमा दिमागी परेशानियों से होती है उसे काफी फायदा होता है ।
कर्णपीड़ासन - खुन
का प्रवाह उर्ध्वगामी हो जाता है जो कि दिमागी परेशानियों को दुर करता है ।
भुजंगासन -
भुजंगासन में वक्षस्थल उपर उठने से इस आसन में फेफड़ो और छाती में पूर्ण प्रभाव
पड़ता है जिससे वह चौड़े होते है तथा फेफड़े को असीम बल मिलता है ।
मत्स्यासन - इस
आसन से सिर को मोड़कर अंदर ले जाने के कारण श्वास वाली नली पर अच्छा प्रभाव पड़ता है
तथा जठराग्निी प्रदीप्त होती है जिससे भोजन अच्छी तरह पच जाता है तथा श्वसन दर में
वृद्वि होती है जिन्हे दमा का दौरा अपच के कारण होता है उन्हे काफी सहायक है।
शवासन - श्रम हरण, चित विश्रांति, चित को शांति
मिलती है। आसन और प्राणायाम के द्वारा जो शरीर की सूक्ष्म नाड़ियों और तंतुओं में
थकान आ जाती है। वह दुर नहीं हो सकती है उसको शवासन दूर करता है। शवासन सब आसनों
के बाद में करना चाहिए।
म्ुाद्राओ में
दमे के रोगियों को उड्यान बंध कराना चाहिए। इसमें ज्यादा से ज्यादा श्वास को बाहर
निकालकर पेट को अंदर पिचकाते है क्योंकि जो दमें का रोगी होता है उसे ऑंक्सीजन
लेने की तो क्षमता होती है परन्तु उसके
फेफड़े में इतनी ताकत नहीं होती की वह कार्बन डाईं आक्साइड को बाहर निकाल सके। इस
उडयान के द्वारा जब श्वास को बाहर निकालकर पेट को पिचकाते है तब फेफड़ोेेेेें को
पूरी तरह खाली करने की कोशिश करते है और उसमें आँक्सीजन अंदर जाती है ऐसा बार बार
करने से फेफड़ों की ताकत बढ़ती है और दमे का रोगी अधिक मात्र में आँक्सीजन ले सकता
है ।
प््रााणायाम --
प्रणायाम अचूक औष्धि है ।
प्राणो का
विस्तार और नियंत्रित करना ही प्राणायाम है। प्राणायाम के द्वारा श्वास नली और
फेफड़े में जमा हुआ कफ तरल होकर बाहर निकल जाता है फलतः रोगी को श्वास लेने अैार
छोड़ने में सहायता मिलती है । प्राणायाम करने से
शरीर के अंदर की प्राणवायु में उष्णता आती है जिससे की इन्द्रियों और
नाड़ियों का मल शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
दहन्ते ध्याय मनानां धातुनां हि यथा मलः।
तथेन्द्रियाणां प्राणानां दहयन्ते प्राण
निग्रहात् ।
जिस प्रकार किसी धातु सोना, चाँदी, ताँबा, पितल आदि धातुओं
को अग्नि में तपाने से सब मल नष्ट हो जाते हेै उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा
इन्द्रियों के सब मल नष्ट हो जाते हैं प्राणायाम के द्वारा जठराग्नि प्रदीप्त हो
जाती है। भोजन ठीक से पच जाता है। दमे का दौरा उठता ही नही। श्वास की नली
श्वसनिकाओं की पुरी तरह सफाईं हो जाती है। फेफड़ो में आँक्सीजन पर्याप्त मात्र में
भर जाता है और प्राणायाम करने से श्वसनिकाएं फैल जाती है जिससे श्वास लेने और
छोड़ने में रोगी को सरलता हो जाती है। प्राणायाम करने से फेफड़े के सम्पूर्ण छिद्र
आँक्सीजन से भर जाते है। फेफड़े का कोई भी भाग आँक्सीजन से बंचित नहीं रहता जिससे
दमे का दौरा होते ही नहीं। प्राणायाम के द्वारा शरीर के सब मल दूर हो जाते है।
शरीर के साथ-साथ मानसिक स्थिरता और शक्ति प्राप्त होती है ।
दमे के रोगी के
लिए उपयोगी प्राणायामः- सूर्यभेदी, उज्जायी, भस्त्रिका ।
सूर्यभेदी
प्राणायाम:---इस प्राणायाम से शरीर में गर्मी पैदा होती है। अतः दमे वाले को काफी
लाभ पहुँचाता है। हल्के दौरे में इस प्राणायाम से दौरा शांत होने लगता है ।
उज्जायी
प्राणायाम --इसके अभ्यास से कंठ में कफ आदि के दोष उत्पन्न हो जाते है उसको
उज्जायी कुंभक नष्ट कर देता है और जठराग्नि करके नाड़ियों की विकृत चीजों को नष्ट
कर देता है और शरीर में
धातुओं के कम हो जाने पर जो रोग उत्पन्न हो
जाते है उन्हे भी दुर करता है। उज्जायी प्राणायाम से फेफड़े मजबुत होते है। इस
प्राणायाम के द्वारा दमे के रोगी का पतला कफ धीरे धीरे गाढ़ा होकर बाहर निकल जाता
है ।
भस्त्रिका
--भस्त्रिका कुंभक के द्वारा वात, पित, कफ से होने वाली सभी बिमारियॉं नष्ट हो जाती
है। अग्नि प्रदीप्त होती है जिन्हे दौरा अपच के कारण होता है उन्हे ये काफी सहायता
देता है ।
ध्यान - 50» से अधिक ब्यक्ति
को दीमागी परेशानी से होता है यानि चेलबीवसवहपबंस होता है। यदि रोगी के मस्तिष्क
का संतुलन ठीक होगा तो दवा की कम आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए मानसिक संतुलन को बनाए
रखने के लिए हमें ध्यान की आवश्यकता पड़ती है। ध्यान से शरीर, प्राण, मन, हृदय, बुद्वी की शांति,पवित्रता एवं
निर्मलता आती है। व्यक्ति जैसा चिंतन करता है प्रायः वैसा हो जाता है। मैं निरोग
हूँ। मैं स्वस्थ हूँ। ऐसा निरंतर चिंतन करने से रोग से मुक्त हुआ जा सकता है।
अर्थात रोग हो जाने पर उसका चिंतन ही न करें। रोग का चिंतन करने से रोग बढ़ता है
एवं व्यक्ति का मनोबल दुर्बल हो जाता है। इसलिए ध्यान की प्रक्रिया दमे के रोग में
बहुत कारगर सिद्व हुआ है। दमे के रोगी को आहार पर विश्ेाष ध्यान देना चाहिए।
संतुलित आहार लेना चाहिए। ईलाज से परहेज आवश्यक है। मिर्च-मसाले चिकनाईं युक्त
पदार्थ, खट्टी चीजें, उतेजित पदार्थ दमे वाले रोगी को आवश्यक है। दुध, आइसक्रीम, चाकलेट, धुम्रपान, नींबू गर्मी में लेना चाहिए सर्दी में वर्जित।
चावल, भिंड़ी, कचालू, केला, अनार, नारियल, रेशेदार पदार्थ
नहीं खाना चाहिए। रात्री का भोजन सूर्यअस्त से पहले करें। पानी प्रचुर
मात्र में लेना है। हल्का भोजन कम मात्र में जो सुपाच्य हो ऐसे भोजन का सेवन करें।
जल्दी जल्दी दौरा पड़ता हो उस समय संजीवनी बुटी का काढ़ा बनाकर सेवन करने से तुरंत
लाभ होता है
1-
खँासी में अदरक
का रस + शहद
2-
अप्या+ तुलसी रस +शहद - खाँसी ठीक
3-
अदरक, प्याज का रस पिएं
उल्टी नहीं होती है ।
4-
सौंफ + मिश्री
2- अल्सर न्सबमत
अल्सर से रोगी को मानसिक तनाव रहती है। उसके
पेट में जरुरत से ज्यादा अम्ल क्ष्।बपकद्व बनता है जो केवल खाने को ही नहीं पेट के
अंदर गलाना शुरु कर देता है या उसमें घाव कर देता है। इसी घाव को अल्सर कहा जाता
है। जो खाना हम खाते है वो तीन सेकेण्ड के अंदर पेट में पहुँच जाता है, जो कि
भ्लकतवबीसवतपब ।बपक बनाते है जिनके द्वारा खाना पचता है। यदि मरीज को अधिक उच्च
अम्लता है तो पेट में अधिक ।बपक बनेगा जो
कि पेट में न्सबमत घाव कर देता है और पेट के वह स्थान फट जाते है और खुन आने लगता
है जो कि मुख से या मल के रास्ते से बाहर निकल जाते है इसे पेप्टिक अल्सर कहते है
।
अल्सर दो प्रकार
के होते है --- 1-
पेप्टिक
अल्सर 2- ड्योडिनम अल्सर
1-
पेप्टिक अल्सर
-- खाना खाने के पश्चात कुछ खाना छोटी
आँत में जाता है यदि उसमें कुछ अपच हो तो भ्बस
का कुछ भाग आँत में ही आ जाता है उससे घाव उत्पन्न हो जाता है जिसेे
पेप्टिक अल्सर कहते है। पेप्टिक अल्सर के चिन्ह बाहर से दिखाईं देते है। अर्थात
व्यक्ति कमजोर हो जाता है। खाना खाने के साथ साथ पेट में दर्द होना शुरु हो जाता
है उसे पेप्टिक अल्सर कहते है ।
2-
ड्योडिनम अल्सर
-- ड्योडिनम में खाना खाने के ढ़ाईं घंटे बाद पेट में दर्द या उल्टी होती
है। रोगी के श्'ारीर में कोईं घाव दिखाईं नहीं देता।नाभी के पास दाएं भाग
में दर्द होता है यहीं भाग ड्योडिनम का है ।
लक्षण --- भुख नहीं लगना, खाने में अरुची, दिमागी परेशानी रहना, कब्ज, पेट में हर समय थोड़ा-थोड़ा दर्द रहना, ज्यादा हो जाने
पर पेट में ज्यादा दर्द होना। मुँह में पानी आना, खट्टी डकारें आना, कभी-कभी उल्टी के साथ खून भी आना। पेट के उपरी
दाएं भाग में जोर से दर्द होता है इसकी जाँच के लिए बेरियम एक्स रे जँाच या गेस्टेªास्कोपी तकनीक को
अपनाया जाता है ।
कारण - धाुम्रपान, मानसिक तनाव, एलकोहल, चाय, कँाफी, ज्यादा माँस-मछली खाना,
मसाले युक्त आहार लेना, प्उवजपवद के कारण, डर लगना, भय, शोक, ईंर्ष्या
के कारण पेट को खाली नहीं रखना चाहिए । गरीब व्यक्तियों को अधिक होता है
क्योंकि र्प्याप्त मात्र में भोजन नहीं मिलता।
ळमदमजपब िंबजवत
रू-
घर में एक व्यक्ति को अल्सर है तो दुसरे को भी
हो सकता है क्योंकि खान-पान, रहने की जगह और कोईं भी म्उवजपवदंस
च्तवइसमउ होती है तो परीवार के हर सदस्य
पर प्रभाव पड़ता है इसलिए परीवार के किसी सदस्य को न्सबमत हो सकता है ।
सावधानियाँ ----
नित्य प्रति मलाशय साफ रखना चाहिए। खाने पर
विशेष ध्यान देना चाहिए। अधिक गरिष्ठ भोजन, घी , तेल, मक्खन, थ्ंज वाले भोजन आचार, तम्बाकु, शराब, नशीले पदार्थ, खट्टा पदार्थ का सेवन नहीे करना चाहिए। आधे
घंटे के बाद पानी पिएं। थोड़ा-थोड़ा देर के बाद ठंड़ा दुध ले सकते है क्योंकि ।बपक
को छमनजतंसप्रमक करता है। मानसिक तनाव
युक्त परीवेश में नहीें रहना चाहिए। अधिक मेहनत वाले कार्य नहीं करना चाहिए।
मंड़ुकासन बिल्कुल नहीं लगाया जाता।
आसन
अल्सर वाले रोगियों को योगाभ्यास में पीछे
झुकने वाले, उछलने वाले कोईं आसन नहीं कराना चाहिए क्योंकि पीछे झुकने
पर घाव पर ज्यादा दबाव पड़ता है। उड्यान, नौली, कुंभक, पंपिंग की क्रियाएं न्सबमत वालों को नहीं कराया
जाता क्योंकि घाव फटने की आशंका रहती है। केवल आगे झुकने वाले आसन कराए जाते है।
अल्सर वाले रोगी को ऐसा योगाभ्यास करना चाहिए
कि ज्यादा से ज्यादा ।बपक बाहर निकले और रोगी को आराम मिले ।
शटकर्म - कुंजल, वस्त्रधौती (गर्म दुध में भिगोकर ), बाघी, शंखप्रक्षालन ।
कुंजल -- थ्ववक च्वपेपवद वालों के लिए अच्छा है
।
धौती ---दुध ।बपक को ।सांसपदम में बदल देता है
न्सबमत वालों को दुध में भिगोकर धोती खानी चाहिए।
बाघी
-- इसमें जो खाना हम खाते है यदि वह ढ़ाई तीन घंटे तक हजम नहीं हुआ तो वह
।बपक ही बनता है। भोजन के उपरान्त जिस अन्न का रस नहीें बनता वह पेट में रहकर सड़ना
शुरु कर देता है जिससे ।बपक बनते है। किन्तु बाघी करने से दुषित भोजन बाहर आ जाता
है ।
ः---- इस क्रिया के द्वारा पुरा भोजन अच्छी प्रकार
से मुख से गुदा द्वार तक बाघी के बाद खीर खाने का प्रावधान है ।
शंखप्ऱ़क्षालन से पूर्ण शुद्वी हो जाती है
अर्थात् नमक की पानी से घाव की सफ़ाईं हो जाती है। नमक का पानी घाव के लिए
एंटीसेप्टीक का काम करता है। पूर्ण कि्रया हो जाने के बाद घी युक्त खीचड़ी उसमें
मरहम का कार्य करता है ।
सूक्ष्म व्यायाम - उच्चारण स्थल तथा विशुद्व
चक्र की शुद्वी, प्रार्थना, बुद्वी तथा घृति शक्ति विकासक, स्मरण शक्ति
विकासक, मेधा शक्ति विकासक। इन पाँचों क्रियाओं के द्वारा जो भी रोग मस्तिष्क से
उत्पन्न होते है वे दुर हो जाते है। बुद्वी विकसित होती है। स्मरण शक्ति बढ़ती है।
मन को शांति प्रदान करती है। इन सभी क्रियाओं से व्यक्ति का मानसिक संतुलन बना
रहता है ।
उदर शक्ति विकासक -- इसमें व्यक्ति को श्वास
प्रश्वास की क्रिया कराई जाती है। परन्तु उड्यान, नौली , कुंभक और पंपिंग की क्रिया नहीं करवाते क्योंकि
घाव के फटने की आशंका रहती है ।
आसन:-----
(केवल आगे झुकने वाले आसन कराए जाते है
पीछे झुकने वाले आसन नहीं करवाए जाते क्योंकि
पीछे झुकने पर घाव पर अधिक दबाव पड़ता है और वे सब आसन करवाते है जो
मस्तिष्क को संतुलन बनवाने का कार्य करते हेै ।)
पदमासन:---- इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है जिससे भोजन
अच्छी प्रकार से पच जाता है उसको अल्सर की संभावना नहीं रहती। मानसिक संतुलन बनाए
रखता है।
वज्रासन --- इसे करने से भोजन अच्छी तरह से पच जाता है।
सिंहासन --- इसे करने से डर, भय, दुःख आदि दुर हो जाते है और व्यक्ति संयमित
होता है ।
कुर्मासन -- आगे
झुकने से पेट सिकुड़ता है जिससे ।बपक कम बनता है ।
कोनासन - ।बपक बन गया है तो इसके द्वारा पेट के निचले
तरफ़ जाता है और मल के द्वारा बाहर निकल जाता है ।
उतानपदासन, कटिचक्रासन ,
पश्मिोतानासन -
मन में प्रसन्नता रहती है ।
शवासन --- सब प्रकार के ज्मदेपवद को दुर करता है ।
भूनमनासन, जानुशीर्षासन, कोनासन।
प््रााणायाम
--- शीतली, शीतकारी -- क्योंकि पेट में जो घाव होता है ठंड़
प्रभाव डालता है। ठंड़ा श्वास जब अंदर जाता है तो ठंढ़ी श्वास मरहम का कार्य करता
है। प्राणायाम मानसिक संतुलन बनाता है। ज्मदेपवद कम करता है ।
काकी मुद्रा ----
15 मिनट ध्यान करने
पर व्यक्ति एकाग्रचित प्रश्न्न होता है जो कि व्यक्ति के म्उवजपवदंस ठंसंदबम को
कंट्रोल करता है इसलिए ध्यान की क्रिया न्सबमत वालों को जरुर करनी चाहिए ।
3 बवासीर , पाइल्स
(च्पसमे )
लक्ष्ण:---
इसमें मलद्वार में जलन होती हेै ।
बार-बार शौच जाने की इच्छा होती है। गुदाद्वार पर बोझ सा महसुस होता हेै।
अधिक रक्त स्त्रव से चेहरा पीला पड़ता है। भूख नहीं लगती। पाइल्स में गुदाद्वार की
जो नस नाड़ियां रहती है उन नस नाड़ियों में जब ठीक ढ़ंग से रक्त का संचार नहीं होता
तो वह दिन प्रतिदिन कार्यरहित हो जाती है और उन्हीं नाड़ियों में शरीर का विशाक्त
खुन पहले से ही जमा रहता है फलस्वरुप नस नाड़ियॉं अपने स्थान को छोड़कर गुदा स्थान
से बाहर आ जाती है। मल त्यागते समय नाड़ियों पर जोर पड़ता है तो वे फट जाते है और
असहाय दर्द के कारण उनमें खुन भी बाहर
निकल आता है इस स्थिति को ही बवासीर कहते है। यह रोग गुदाद्वार के बाहर व अंदर भी
हो सकता है।
कारण :----- यह रोग अधिाक कब्जवत रोगी को होता है। शारिरीक
परीश्रम न करने से होता है। मांस मदिरा चाय कांफी आदि का प्रयोग करने से यह रोग
होता है। यकृत दोष इस रोग का कारण है। यकृत रोगों के साथ साथ जिन लोगों को पतले
दस्त रहते है उनको बवासीर नहीं होता क्योंकि मल तरल होने के साथ साथ शरीर से
विशाक्त पदार्थ भी बाहर निकल जाते हैं और
मलत्याग करने से गुदा द्वार पर ज्यादा दबाव नहीं पड़ता। यकृत दोष के साथ साथ यदि
कब्ज हो तो व्यक्ति के शरीर में च्पसमे होती है
क्योंकि कब्ज के कारण शरीर का विशाक्त पदार्थ शरीर से बाहर नहीं निकलता और
कठिन मल त्यागते समय उसका दबाव गुदाद्वार पर पड़ता है और वहां की दुर्बल नस नाड़ियां
सहन नहीं कर पाती और धीरे धीरे गुदा द्वार से बाहर आती है ।
- भगंदर
गुदाद्वार के नली
में घाव पैदा होता हेै उसे ही भगंदर कहते है। साधारणतः पहले गुदाद्वार में छोटी सी
फुंसी होती है जब वह मल के दबाव से फट जाती है तो उसमें से खुन बाहर निकलता है और
वही घाव धीरे धीरे सुराग बनाकर अंदर
घुस जाता है इसी को भगंदर कहते है। यह रोग ज्यादातर अधिक आयु 45 - 50 वालों को होता है।
जो लोग ज्यादा गरिष्ठ भोजन करते है जैसे - मांस-मदिरा, काफी-चाय, धाुम्रपान करते है उसी व्यक्ति को यह रोग होता
है। क्योंकि इन सब कारणों से शरीर का रक्त विषाक्त हो जाता है, इसी विषाक्त रक्त
से इस रोग की सृष्टि होती है ।
सावधानी - इसमें
पेट हर समय साफ रहना चाहिए । अधिाक शारीरीक व्यायाम करना चाहिए, टहलना चाहिए। घी, मक्खन, कच्चा केला, दुघ, खोया-पनीर, मांस का सेवन
नहीं करना चाहिए ।
गरिष्ठ भोजन चाय, काफी, मादक द्रव्य हानिकारक है। ज्यादा दबाव देकर मल
त्यागना हानिकारक है। अधिक देर तक मल त्यागने में समय नहीं देना चाहिए। अति मैथुन
हानिकारक है क्योंकि अधिक संभोग से कब्ज होती है। जिसके कारण इस रोग का होने की
संभावना रहती है ।
नींबु का रस पानी के साथ सेवन करना चाहिए। शौच
के समय पहले गर्म गुनगुना पानी का सेवन करना चाहिए जिसे मल त्याग अच्छी तरह हो सके
।
पपीता, अनार का रस, नीबु का रस सेवन करना चाहिए। दोपहर में लस्सी, छाछ लाभदायक है।
हरी सब्जी से अघिक दिन तक कब्ज नहीं रहता है ं
षटकर्म :- गणेश
क्रिया - इस क्रिया को करने के लिए मध्यमा
अंगुली में देशी घी लगाकर मलद्वार में बार -बार अंगुली को डालकर निकालना ही गणेश
क्रिया है। इसके द्वारा कठिन मल को निकाला जाता है। तेल लगाकर नहीं करना चाहिए।
कुंजल, वस्ति, शंखप्रक्षालन
सुक्ष्म व्यायाम
- उदर की 10 क्रियाएं - इसमें शरीर का सारा जवगपद बाहर निकल जाता है ।
कटी शक्ति की
पांचों क्रियाएं - आगे पीछे झुकने से पदजमेजपवदंस उवअमउमदज होता है जो मल को नीचे
मलद्वार में पहुंचाने में सहायक है। इससे गुदा द्वार की नस-नाडियां मजबूत बनती
है जिसे मल विसर्जन करने में आसानी होती
है।
स्थूल व्यायाम -
सर्वांगपुष्टि, सुर्यनमस्कार
आसन - पदमासन इसे भष्मासन भी कहते हैं। वज्रासन- इससे गुदा संबंधि रोग नहीं होते।
धनुरासन - इसकें
अभ्यास से पेट की गैस आराम से बाहर निकल जाती है।
गोमुखासन, गोरक्षासन, उत्कटासन, भुनमनासन, पादांगुष्ठासन, सिंहासन, भद्रासन
डवअमउमदज वाले
आसन -
शंखप्रक्षालन के चारों आसन -1- सर्पासन, 2- उर्ध्वहस्तोतानासन, 3- कटिचक्रासन, 4- उदराकर्षासन। पादांगुष्ठनासाप्रशासन, उर्ध्वसर्वांगासन, सर्वांगासन, आकर्णधनुरासन, मयूरासन ।
नोट:- शीर्षासन हानिकारक है ।
प्राणायाम:-
नाड़शोधन, भसि़्त्रका बिना कुंभक के
मुद्रा:- मूलबंध, महाबंध, विपरीतकरणी, अस्विनी -गुदाद्वार को जल्दी-जल्दी खोलने बंद
करने की क्रिया को अस्विनी मुद्रा कहते है
।
चपसमग वपदजउमदज दो तीन महिना।
दो तीन महिना के बाद:- चतवबजवेमकलस वपदजउमदजए
कमसिवद
1ग1 10 कंले
20 जंइसमजेण् शउदव4 चवजेेंपनउ चमतउंहदमज (लाल दवा) गर्म पानी में थोडा सा डालकर 30 मिनट बैठना है। 10 दिन तक।
5- उच्च रक्त चाप (भ्पही ठसववक च्तमेेनतम)
यह आधाुनिक युग का रोग है। जीवन की तेज गति तथा
बढ़ते हुए उद्योग और मेट्रो वातावरण के द्वारा पैदा किया गया मानसिक तथा शारिरीक
दबाव का योगदान ठसववक च्तमेेनतम बढ़ाने में होता है। ठण्च्ण् स्फेगनोमैनेामीटर द्वारा
मापा जाता है हरेक धड़कन में उच्च प्रेसर को ेलेजवसपब चतमेेनतम कहा जाता है तथा
निम्न प्रेसर को क्पेंजवसपबण्
अधिकांश युवक में ठण्च्ण् 120/80 होता है। यह सामान्यतः उम्र के साथ बढ़ता है
तथा 160/90 तक भी पहुँच जाता है।
लक्ष्ण
ैलउचजवदे :- भ्लचमत जमदेपवद का पहला लक्ष्ण सुबह टहलते समय गर्दन तथा सिर के
पीछे दर्द के रुप में उपस्थित होता है जो तुरंत समाप्त हो जाता है। कुछ दुसरे
लक्ष्ण है डिजनेस ,पैलपिटनेस, हृदय के क्षेत्र में दर्द, बार-बार मूत्र का
आना, नर्वस टेंसन, थकान, श्वास लेने में तकलीफ ।
कारण (ब्ंनेम) - इसका
मुख्य कारण तनाव स्ट्रेस तथा जीवन जीने का गलत तरीका है। धुम्रपान तथा अधिक मात्र
में चाय, काफी तथा रिफाइन्ड भोजन जीवन के प्राकृतिक गति को नष्ट कर देता है और अवशिष्ट
तथा जहरीले पदार्थ को शरीर से बाहर निकालने से रोकता है। आर्टरिज के कठोर होने से
अथरोस्केलेरोसिस मोटापा तथा क्पंकपजपम से भ्लचमतजमदेपवद होता है। भ्ण्ठण्च्ण् का
दुसरा कारण है अधिक मात्र में नमक खाना, अधिाक वसा खाना तथा कम रेशेदार भोजन करना।
जलनेति, कुंजल नहीं
करवाना है, स्मरण शक्ति विकासक, मेघा शक्ति विकासक, ठतमेजीपदी म्गमतबपेम खड़े होकर, लेटकर और
बैेेेेेेेेेेेेठकर भी किया जा सकता हैं। ग्रीवा शक्ति विकासक क्रिया, व़क्ष स्थल शक्ति
विकासक, उदर शक्ति विकासक 1 से 4 तक कुंभक नहीं, नौली नहीं, कटीशक्ति विकासक 4, 5,
उधर्वगति, रेखागति, सुर्यनमस्कार नहीं करना है।
पीछे झुेकने वाले आसन कराना है - वज्रासन, योगासन, पश्चिमोतानासन, शवासन, मत्स्यासन, पवनमुक्तासन, शशांकासन।
प्राणायाम - भस्त्रिका, सितली , सितकारी, नाडी़शोधान, उज्जायी,दीर्घ श्वास प्रेक्षा।
भ्ण्ठण्च्ण् वाले
को 8 घंटे सोना चाहिए। ज्मदेपवद नहीे करना चाहिए।
कब्ज नहीं होने देना चाहिए।
तेल, घी, मांस मिर्च मसाले, आदि के वर्जन के
साथ हल्का सुपाच्य भोजन न्यूनतम नमक के साथ।
सप्ताह में एक
दिन उपवास रहना चाहिए जल पीकर।
खाना है ---गेहूँ
चावल, राई, मकई, अंकुरित दाने, मछली, साग सब्जी एवं ताजे फल,
सुर्यमुखी तेल ए ळतंचम
तिनपजए ूंजमत उमसवदए बंसबपनउए चवजेेंपनउ, लहसुन, आंवला, नीबू, गाजर का रस, पालक,
रक्त चाप जानने के लिए बायीं भुजा की धमनी को
जो उपरी हिस्से में सामने की ओर रहती है, चुना गया है जहां रक्त का दबाव शरीर के और
स्थानों से अधिक रहता है क्योंकि यह स्थान हृदय के बहुत निकट होता है ।
सामान्य व्यक्ति
में:--
ैलेजवसपब
ठण्च्ण् 100 जव 140 उउभ्ह
क्पेंजवसपब
ठण्च्ण् 60 जव 90 उउभ्ह
च्नसेमच्तमेेनतम
(ेलेजवसपबएक्पेंजवसपब) 30 जव 60 उउभ्ह
ज्ीम ।जतपंस
च्नसेम त्ंजम कृकृकृ
छवतउंसकृकृत्मेजपदह
ंकनसज 60 जव 85 इमंजे धउपद
त्मेजपदह ब्ीपसक 80 जव 100 इमंजेधउपद छमूइवतद प्दिंदज 100 जव 130 इमंजे धउपद
त्म्ैच्प्त्।ज्व्त्ल्
त्।ज्म् रूकृ ंकनसज- 14 जव 18 इतमंजीमेधउपद
प्दिंदज- 40 ठमंजे धउपद
च्ल्त्म्ग्प्।
(थ्म्टम्त्) दृ भ्प्ळभ् ठव्क्ल् ज्म्डच्म्त्।ज्न्त्म् रूकृकृ
छवतउंस वतंस
जमउचमतंजनतम 36ण्6 जव 37ण्2 (98 जव 99 )
च्ल्त्म्ग्प्।कृ (
भ्प्ळभ् ठव्क्ल् ज्म्डच्म्त्।ज्न्त्म् रूकृकृ)
।े पद मिअमत
ंइवअम 37ण्2ब
ैनइदवतउंस
ज्मउचमतंजनतम कृ ठमसवू 36ण्6ब
भ्लचवजीमतउपं
(स्वू इवकल जमउचमतंजनतम ) इमसवू 35ब
6- हार्निया
श्वास बाहर
निकालने पर ज्यादा धयान देना है ।
षटकर्म -
कुंजल, बाघी, शंखप्रक्षालन
स्ूाक्ष्म
ब्यायाम की 1 से 5 तक, उदर शक्ति विकासक कुंभक छोड़कर, स्ुार्यनमस्कार नहीं करना है ।
आसन --- उडयान
बंध, पेट पिचकाने वाले आसन, ठतमंजीपदह मगमतबपेमए कुंभक नहीं, आगे झुकने वाले आसन कराना हैै पीछे झुकने वाला
नहीं।
पश्चिमोतानासन , जानुशीर्षासन, मंडुकासन, वज्रासन, कुर्मासन, भूनमनासन, पवनमुक्तासन, मयूरासन, पृष्ठभूमिताड़ासन, उतानपादासन, शलभासन।
उड्डयानबंध, मुलबंध, जालंधर बंध
बिना पदमासन लगाए करें, पदमासन लगाकर न करें।
प्राणायाम
--- कुंभक छोड़कर सभी प्राणायाम।
सावधानी -- भुजंगासन , उष्ट्रासन नहीं कराना है।
7- हृदय रोग (भ्मंतज क्पेमेंम) , दिल का दौरा और एंजाइना
लक्ष्ण - रोगी के सीने में बाई ओर तेज दर्द होता है।
पसीना छुटता है और घबराहट होती है। तेज दौरा में रोगी बेहोश हो जाता है। धड़कन
एकाएक रुक भी सकती है।
कारण - जब हृदय
की दो मुख्य कोरोनरी धमनियां और उसकी शाखाएं सिकुड़ जाती है तो ह्रदय को पर्याप्त
मात्र में रक्त की आपूर्ति नहीं कर पाती है इसे एन्जाइना कहते हैं। एन्जाइना का
उग्र रुप है दिल का दौरा ं जिसे हार्ट अटैक भी कहा जाता है। ह्रदय को उर्जा
पहुंचाने वाली किसी एक धमनी में एकाएक रुकावट के कारण दिल का दौरा पड़ता है। दिल के
दौरा पड़ने के कई कारण है - अनियमित रक्त चाप, मधुमेह, मानसिक तनाव, मोटापा, अधिक मात्र में कोलेस्ट्राल युक्त भोजन करना, मदिरापान, धुम्रपान, शारिरीक मेहनत न
करना इत्यादि।
श्वास प्रश्वास की क्रिया करवाते है।
करवाना है - वक्ष स्थल शक्ति विकासक, मूलबंद, शवासन, धनुरासन, झुलासन, ताडासन, कोनासन, गोमुखासन, वज्रासन, कटिचक्रासन, बकासन, पादहस्तासन, अर्धमत्सयेन्द्रासन, पवनमुक्तासन, कटिचलन, मक्रासन, भ्रामणी
प्राणायाम।
नहीं करवाना है - कुंभक, नौली, कपालभाति, धौति, सूर्यनमस्कार, ह्रदय गति, इंजन दौड़
(श्रनउचपदह), उत्कूर्दन, सूर्यभेदी प्राणायाम।
प्राणायाम में कुंभक नहीं करवाना है।
खाना है- सूर्यमूखी का बीज, धनिया का बीज, इसबगोल, बिना चोकर निकाले
आटा, चावल, जौ, बन्दगोभी, भिण्डी, बिना मिर्च मसाले के भोजन करना है जो जल्दी पच
सके और ज्यादा चबाने की जरूरत नहीं हो। ज्यादा ठंड़ा और ज्यादा गर्म भोजन नहीं देना
चाहिए।
”दय रोगियों को पीठ के बल लिटाकर हथेली को
उरोस्थि या स्टर्नम के निचले भाग में रखते हुए इस स्थान को एक मिनट में 50 -60 बार नियम पुर्वक
दबाया जाता है। सामान्यतः इस स्थल पर स्टर्नम को व्यस्क व्यक्ति में दो से चार
सेंटीमीटर तक दबाना संभव होता है। कोलेस्टेªरॉल बढ़ जाने से ह्रदय रोग होता है।
8- फेफड़े (स्नदह) संबंधि रोग
श्वास प्रश्वास की क्रिया करनी है ।
पदमासन, भद्रासन, गोमुखासन, मयूरासन, उतानमंडुकासन, कागासन, नौकासन, कोनासन उत्थितपदमासन, विस्तृतपादसर्वांगासन,
एकनासिकाघर्षण, उड़ियान, स्वास्किासन, सिद्वासन, मत्सयासन, भुजंगासन, वक्ष स्थल शक्ति
विकासक, ह्रदयगति इंजनदौड़, नेति, शलभासन, सूर्यनमस्कार, प्राणायाम, कपालभाति, नौली।
9- मासिक धर्म
कारण:- मस्तिष्क
का संतुलन सही न रहने के कारण, मासिक धर्म का समय पर न होना, मासिक धर्म का
रुक जाना या कष्ट के साथ, रक्त की मात्र अधिक या कम होना, मासिक धर्म के समय कमर में ददर् होना, स्वभाव में
चिड़चिड़ापन, भूख न लगना, सिर में दर्द या भारी रहना।
कारण:- एक स्वस्थ स्त्री को मासिक धर्म समय पर न
होना, 28 दिन या महिने में एक बार समय पर जरुर होना चाहिए। इससे स्त्री के अंदर के सभी
दुषित या विजातिय तत्व बाहर निकल जाते है तथा शरीर निरोग एवं स्वस्थ होकर
संतानोत्पति के योग्य बना देती है किन्तु इसके अनियमित होने पर यह रोग का रुप
धाारण कर स्त्री के लिए कष्टदायी बन जाता है।
रोग क्यों हो
जाते है:--- आयरन की कमी के कारण, गरिष्ठ भोजन लेने
से, उचित आहार न लेने से, प्रोटीनयुक्त आहार और प्तवद युक्त भोजन न लेने से, शारीरिक श्रम न
करना, आचार-विचार, रहन-सहन, विचारों की शुद्वता न होना, खेल-कुद में भाग
न लेना, मानसिक संतुलन ठीक न होना।
यौगिक उपचार:---
षटकर्म:-- कुंजल, शंखप्रक्षालन, व़स्त्र धौति।
स्ूाक्ष्म
व्यायाम:-- उदर शक्ति विकासक की पहली चार
क्रियाएं, कुंभक छोड़कर पेट की पंपिंग, मूलाधार चक्र की शुद्वी, उपस्थ तथा
स्वादिष्टान चक्र की शुद्वी ।
स्थूल
व्यायाम:-- उर्ध्वगति, सूर्यनमस्कार
आसनः-- पदमासन
संबंधि सभी आसन, गर्भासन, कुक्कुटासन, मत्स्यासन, योगासन, गोऱक्षासन, गोमुखासन, कोणासन, सर्वांगासन, उर्ध्वसर्वांगासन, भुजंगासन, ताडासन, उर्ध्वहस्तोतानासन, कटिचक्रासन।
प्राणायाम:-- नाड़ीशोधन, उज्जायी।
मुद्रा :--
महामुद्रा, महाबंध, अस्विनी, विपरीतकरण्ी मुद्रा।
एब्रोमा अगस्टा
- 5 से 15 बुंद पानी के साथ दिन में 2-3 बार पीना है।
कपास की जड़ पानी
में उबालकर।
10- ल्यूकोरिया (ॅीपजम क्पेजबीेतहम)
कारणः- न्जतने
में प्दमिबजपवद के कारण होता है। डमदजंस प्दइंसंदबमए न्जतनेए न्जतने में थ्नदहने
का होना, यूरिनरी ओपनिंग में मांस का टुकड़ा होना।
मानसिक चिंता के
कारण, चटपटे व खट्टे पदार्थो का खाना, शारीरिक परीश्रम का अभाव,
योनी की सही सफाई
नहीं करना, मोटापा होना, गरिष्ठ भोजन खाना, गरीबी।
लक्ष्ण:-- हर समय स्त्री कमजोरी का अनुभव करती है। शरीर
में थकान, ज्मउचमतंजनतम कम होना, कमर में दर्द, पैरों में दर्द, हर समय शरीर गिरा-गिरा महसुस करना, योनी प्रदेज में
खुजली का होना, चिड़चिड़ापन, गुस्सा आना, बात-बात पर घबरा जाना,
इमोसनल इनबैलेंस होना।
उपचार:-- प्रोटीन युक्त आहार न लेना, नीम की पती को
उबालकर उसी पानी से नित्यप्रति दिन योनी प्रदेश को धोना, मूत्र विसर्जन करने के पश्चात् अच्छी तरह से
सफाई करना ।
निमपिलोय नीम के फल को रात्री में भिगेाकर सुबह
कपड़े में छानकर उस पानी का 40 दिन तक सेवन करना। पपीता, अनानास
शक्तिवर्द्वक आहार लेना। ये रोग महिलाओं को पूर्णरुप से खोखला कर देता है।
यौगिक
उपचार:--- शटकर्म:-- सूत्रनेति, जलनेति, कपालभाति, शंखप्रक्षालन, व़स्त्रधौति।
स्ूाक्ष्म
व्यायाम:-- श्वास प्रश्वास की पहली पांच क्रियाएं, उदर शक्ति विकासक, उपास्थ तथा स्वादिष्टान चक्र की शुद्वी ।
स्थुल
व्यायाम:-- रेखा गति, उर्ध्वगति।
आसन
:-उर्ध्वसर्वांगासन, धनुरासन, सर्वागासन, पदमासन, योगासन, नाभि के चारो आसन।
प्राणायाम:--शीतली, सीत्कारी ।
मुद्रा:-- मूलबंध, अश्विनी मुद्रा, विपरीत करणी मुद्रा।
ध्यान
11-
डिप्सीनोरिया
मासिक धर्म में देखा गया है कि मासिक धर्म
के 3-4 दिन बाद कमर दर्द, असहाय दर्द होती है। न्जतने में च्ंपदए च्मतपवक
के दिनों में असहाय दर्द।
कारण:-- सर्वाइकल प्दमिबजपवदए हारमोनल की इनबैलेंस, बवसमतने में पिइतवपक होना, पिइतवपक
में मांस के छोटे छोटे टुकड़े का होना, नजतने में सुजन होना, न्जतने में व्चमदपदह बन्द होना।
उपचार:-- 5 ग्राम सौंफ का
अर्क बनाकर उबालकर गर्म पानी दिया जाता है, गर्म पानी की बोतल से सेंकाई करना चाहिए दिन
में 3-4 बार।
यौगिक उपचार:--
़षटकर्म:-- कुंजल, वस्त्र धाौति, शंखप्रक्षालन
स्ुाक्ष्म
व्यायाम:-- पहली पांच क्रियाएं, उदर शक्ति विकासक, श्वास प्रश्वास
की क्रियाएं।
आसन:- पीछे झुकने
वाले सभी आसन, भुजंगासन, शलभासन, उष्ट्रासन, चक्रासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, गोरक्षासन, सुप्तवज्रासन, कटिचक्रासन, कोनासन, उर्ध्वहस्तोतानासन ।
प्राणायाम:--
भस्त्रिका, सुर्यभेदी।
मुद्रा: - महाबंध।
12- महावारी
कारण:-- दौरे में किसी के प्दमिबजपवद, हारमोनल इनबैलेंस
के चलते, क्रानिक इनबैलेंस , जैसे:-- ज्ण्ठण्, कैंसर, अल्सर, दमा, एनिमिया।
निदान:-- जम्पिंग म्गमतबपेम ज्यादा फायदा करती है। जंघा, पिडलनी, उत्कूर्दन, ह्रदय गति, नाभि के चारो आसन, शंखप्रक्षालन के
चारो आसन।
आहार:-- प्रटीन
युक्त आहार, मिर्च मसाले गरिज्ट भोजन न हो, दुध का सेवन ज्यादा, काला चना, पालक, गुड़, पीपल के कोमल पत्तों को चटनी बनाकर दुध में
मिलाकर 40 दिन तक सेवन करने से ठीक हो जाता है।
13-
वीर्य विकार यानि
स्वप्नदोष (ैमउमद थ्ंसस)
वीर्य विकार युवावस्था की आम रोग है। स्वप्नदोष
में वीर्य अपने आप स्खलित हो जाता है।
कारण:-- मानसिक चिंता, वीर्य विकार युवावस्था की आम अवस्था है इसमें
पेशाब के साथ वीर्य स्खलन, भूख नहीं लगती, शरीर में आलस्य एवं थकान, बल एवं वेग का
अभाव, स्वभाव का चिड़चिड़ापन, कार्य के प्रति उदासीनता, कमर में दर्द एवं शरीर का टुटना, प्रण शक्ति की
कमजोरी, मानसिक चिंता, मादक द्रव्यों का सेवन जैसे - मदिरापान, गुटका, तम्बाकु, चरस, गांजा, भांग, खटे चटपटे तथा
देर से हजम होने वाले पदार्थों का सेवन, अधिक
ैमगए सिनेमा, टीवी देखना, श्र्रृंगार रस प्रधान,
अश्लील पुस्तकों का पढ़ना
आदि वीर्य विकार के मुख्य कारण है।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, शंखप्ऱ़क्षालन, बाघी, वस्ति, सुत्र नेति, जलनेति, कपालभाति
सुक्ष्म
व्यायाम:-- पहली पांच क्रियाएं ।
रेखा गति, उर्ध्वगति।
सुर्यनमस्कार
आसन:-- सिद्वासन, गुप्तासन, गोरक्षासन, जानुजीर्शासन, ब्रम्हचर्यासन, गोमुखासन, पादांगुष्ठासन, सर्वांगासन, उर्ध्वसर्वांगासन, धनुरासन, कर्णपीणासन, शीर्षासन, उत्कटासन, गरुड़ासन, संकटासन।
प्राणायाम:--
शीतली, सीत्कारी ।
मुद्रा:-- महामुद्रा, महाबंधा, विपरीत करणी, अश्विनी, उडयानबंध, मुलबंध।
दवा:-- डाबर का
सतगिलोय एक चम्मच मक्खन के साथ 10 बादाम रोज।
14- नपुंसकता (स्त्री - पुरुष)
पुरुष में
क्रोमोसोम चतवचमत नहीं होने से, थ्मतजपसप्रंजपवद चतवचमत नहीं होती। हर माह मासिक
धर्म का न होना, सपर काउंट 80» से कम होना।
निदान:-- कुंजल, वस्त्र धौति, वस्ति, शंखप्रक्षालन ।
सूक्ष्म
व्यायाम:-- उदर शक्ति विकासक की दस
क्रियाएं, वक्ष स्थल शक्ति विकासक की दोनों क्रियाएं , मुलाधार चक्र, स्वादिष्टान चक्र, सर्वांगपुष्टि, सुर्यनमस्कार
आसन:-- पुरुष --
ब्रम्हचर्यासन
स्त्री :--
गर्भासन, पदमासन संबंधि सभी आसन, कुर्मासन, जानुशीर्षासन, गोरक्षासन, उत्कटासन, उतानपादासन, उष्ट्रासन, चक्रासन, सिंहासन , पादागुष्ठासन।
प्राणायाम:-- नाडिशोधन प्राणायाम, भस्त्रिका
म्ुाद्रा:--
महामुद्रा, मुलबंध, उडयान बंध, अश्विनी, विपरीतकरणी मुद्रा
ज्यादा पौष्टिक
आहार लेना चाहिए चने उबालकर । उड़द की दाल । पक्का चावल से पहले दुध लेना चाहिए।
दुध में छोहारे, खजूर
15-
परीवार नियोजन
षटकर्म:-- कुंजल, वस्ति, शंखप्रक्षालन ।
सूक्ष्म
व्यायाम:-- उदर शक्ति विकासक की दस क्रियाएं
, कटि शक्ति विकासक
की सभी क्रियाएं, मुलाधार चक्र, स्वादिष्टान चक्र ,
सर्वांगपुष्टि , सुर्यनमस्कार
आसन:--- प्रणवासन
10 -15 मिनट, एक पादकंधरासन, उत्थित पादकंधरासन, द्विपाद कंधारासन, खंजनासन, टिटिभासन, विस्तृतपाद सर्वांगासन,
भूनमनासन, विकटासन, मृगासन।
मुद्रा:-- विपरीत
करणी मुद्रा, वज्रौली, खेचरी।
प्राणायाम:--
16- गर्भवती महिलाओं के लिए
गर्भ धाारण करने
के 9 माह तक आसन
प्रथम माह में
सभी आसन कर सकते है।
दुसरे माह में
उछलने वाली क्रियाएं कोई आसन नहीं।
ढ़ाई महिने तक कुछ नहीं ।
3 माह में कोई आसन नहीं करना है।
पांचवें माह में पदमासन,
वज्र्रासन, सुप्तवज्रासन, उर्ध्वहस्तोतानासन, ताड़ासन, कोनासन, कटिचक्रासन , सुप्तवज्रासन
योगशास्त्र में वर्जित है ।
7वें माह के बाद कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। रोना
नहीं चाहिए। धार्मिक पुस्तक पढ़ना चाहिए।
गर्भवती स्त्री
को पपीता नहीं दिया जाता।
बच्चा पैदा होने
के तीसरे दिन वाले आसन -बार बार पैर को उपर उठाना, मोड़ें सीधा करें। एक पैर को बार बार 90 डिग्री पर उठाना, खडे़ होकर
कटिचक्रासन।
40 दिन बाद सूक्ष्म व्यायाम की पहली पांच क्रियाएं, भुजबली शक्ति
विकासक, पुर्ण भुजबली शक्ति विकासक, भुजबंद शक्ति विकासक, वक्षस्थल शक्ति विकासक,
कटि शक्ति विकासक पांव
खोलकर नहीं।
3 माह में उदर शक्ति की पहली चार क्रियाएं , मुलाधाार चक्र की
शुद्वी , स्वादिष्टान चक्र, वज्रासन, पदमासन, गोमुखासन, उतानपादासन, कटिचक्रासन, पांवों को मिलाने वाले सभी आसन।
17-
हिस्ट्रिया
(भ्लेजमतपं)
सम्मोहन -शून्यता की विधि का प्रयोग
क्षोभेान्माद (भ्लेजमतपं) के रोगियों के उपचार के लिए किया जाता है। केवल स्पर्श
करने के माध्यम से ही रोगियों को आराम मिल जाता है।
सम्मोहन के प्रयोग से अब यह प्रयोग सिद्व हो
चुका है कि मनुष्य के मस्तिष्क में शक्ति का कोई ऐसा रहस्यमय स्थान होता है जिसका
मनुष्य को स्वयं को भी बोध नहीं है।
उपचार -
अजवायन 2 तोला $ जटामांशी 3 मासा $पपीता 1 मासा पीस कर रख लें 4 रती दवा प्रातः दुध के साथ ।
प्रश्व के बाद पडे निशान नियमित मालिश से
समाप्त हो जाते है। हल्का गुनगुना पीली सरसों के तेल से मालिश करनी चाहिए। जाडे के
दिनों में प्रश्व उपरान्त सरसों के तेल में अजवायन पका कर शीशी में भर लेनी चाहिए।
मालिश से पुर्व मिश्रण को गुनगुना कर लें। स्तनों को बढाने के लिए जैतुन के तेल से
मालिश करना चाहिए।
18- अजीर्ण एवं अतिसार (क्लेचमचेपं - क्पंततवमने)
एक से अधिाक बार पाखाना करना पड़ता है जिससे
पहले हल्का पेट दर्द होता है तथा आंव आ जाती है (मल में रक्त या आंव) पेट दबाने पर
दुखन होती है। 2-3 सप्ताह का एक कोर्स
1- अमिक्लीन प्लस (।उपबसपदम चसने)2 जंइण् दिन में तीन बार अथवा डिपैंडाल ड
(कमचमदकंस-ड)
2- मैट्रानाइडाजोल 400 उह
फ़ण्प्ण्क्ण् - एक सप्ताह तक दिन
में तीन बार।
थ्संहलस या
डमजतवहलस - प्रसिद्व व्यापारिक नाम है ।
रात को सोते समय कमपोज या इसबगोल की भूसी अथवा
जैली प्रयोग करें।
या मैट्रानाइडाजोल के स्थान पर टिनिडाजोल का प्रयोग आज कल बढ़ रहा है जो
टिनिबा या ट्राइडाजोल 300 से 600 डह दिन में तीन बार 10 दिन तक ही दिया जाता है ।
19- बैसिलरी पेचिस
मैट्रानाइडाजोल या टिनिडाजोल का एक कोर्स या
यदि लाभ न हो तो सल्फा समुह की औष्धियॉं अथवा स्ट्रेप्टोमायसिन -क्लोरमफेनिकांँल
का एक कोर्स।
आजकल मैट्रानाइडाजोल तथा फलूराजोलिडोन का योग
डिपेन्डाल - एम तथा अरिस्टोजिल एफ के नाम से प्रचलित है का प्रयोग होने लगा है
औषधि के प्रभाव से मुत्र का रंग लाल होगा जिससे कोई हानि नहीं होती ।
20-
मानसिक रोग
कारण -
विभिन्न कारणेां से मस्तिष्क के बीच की ग्रंथियों में अतिक्रियाशील या
अल्पक्रियाशील हो जाती है। यदि अगली ग्रंथी ठीक से काम न करे तो व्यक्ति के स्वभाव
में चिडचिडापन हो जाता है। यौन ग्रंथियां अधिक क्रियाशील होने से व्यक्ति अधिक
कामुक एवं क्रोधी हो जाता है। वायुग्रथियां कमजोर होने से व्यक्ति अतिचंचल हो जाता
है। पिटयूटरी ग्लैंड़ कमजोर होने से बु़द्वी में, विवेक में विवेकहीनता होता है और भी कारणों से
मिंस्तष्क विकृत दिखाई देता है जैसे पंचवायु और त्रिमल कुपित होने से मस्तिष्क ठीक
से कार्य नहीं करता, जिसके कारण व्यक्ति विभिन्न अस्वभाविक कार्य करता है जैसे -
अकारण रोना, हंसना, बोलना, उपदेश देना, लक्ष्यहीन देखना आदि ये सब मानसिक रोग के कारण
है और कभी कभी अचानक मस्तिष्क में चोट लग जाने से मस्तिष्क संबंधि रोग हो जाते है।
इन सब परिस्थितियों में विभिन्न मनोवैज्ञानिक उपचार तथा ठीक तरह से यौगिक चिकित्सा
करने पर ही इसका निदान हो सकता है ।
सावधानी:--
मस्तिष्क विकृत अवस्था में रोगी ज्यादा तनाव पूर्ण अवस्था में होता है
इसलिए ऐसे रोगी के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। रोगी को दुःखपूर्ण वातावरण से
दूर रखना चाहिए और हमेशा खुश रहने की कोशिश करना चाहिए। रोगी जिस आदमी को पसंद करता है उसी के साथ रोगी
को रखना चाहिए। कामोतेजित पदार्थो का सेवन करना वर्जित है जैसे -चाय, काफी, तम्बाकू
अर्थात् अन्य मादक पदार्थ वर्जित है। रोगी को वायुकारक भोजन नहीं देना
चाहिए। चावल, मैदा, उडद की दाल, रेशेदार सब्जियां, सोने से पहले दुध देना चाहिए एवं पाँंव धोकर
सोना चाहिए। रोगी को दिन में 2-3 बार स्नान करना चाहिए और रोगी के सामने उसके
रोग के बारे में कोई बात नहीं करनी चाहिए ।
ंयौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:--कुंजल, 'ांखप्ऱ़क्षालन, बाघी, वस्ति, सु= नेति, जलनेति, कपालभाति, दुग्धानेति,घृतनेति
सुक्ष्म
व्यायाम:-- पहली पांच क्रियाएं, उदर शक्ति।
रेखा गति, उर्ध्वगति।
सुर्यनमस्कार
आसन:--उर्ध्वसर्वांगासन, धनुरासन, शीर्शासन, उत्कटासन, उतानकुर्मासन
उतानमंडुकासन, मत्स्यासन ,सुप्तवज्रासन , पादहस्तासन, पश्चिमोतानासन, भुजंगासन।
प्राणायाम:--
शीतली , सीत्कारी ।
स्वर में बायां
स्वर चलाने का तरीका बताना चाहिए ।
ध्यान - मंत्र
जाप
मुद्रा:--
विपरीतकरणी मुद्रा, महामुद्रा ।
21- पेचिस, पतली टट्टी होना (क्लेमदजतल)
यह एन्टअमीबा
हिस्टोलिका नामक प्रोटोजोआ के कारण होता है। यह परजीवी बड़ी आंत के अगले भाग
(ब्वसवद) में रहता है ।
लक्षण --इसमें
श्लेष्मा और खुन के साथ दस्त, उदरीय वेदना और संपीड कुंथन होता है। खाना नहीं
पचता और भूख नहीं लगती है।
उपचार - पानी
उबालकर पीना चाहिए।
यौगिक उपचार -
षटकर्म:-- कुंजल, शंखप्ऱ़क्षालन, सुत्र नेति, जलनेति, कपालभाति, उतानपादासन।
22ण् ज्ण्ठ, टयूबरकुलोसिस
धौती उर्ध्वगति, सर्वागपुष्टि, श्वास-प्रश्वास की पुरी क्रिया, वक्ष स्थल शक्ति
विकासक, गोमुखासन, कोनासन, योगासन, उतानमंडूकासन, विस्तृतपाद सर्वांगासन,
शीर्षचक्रासन।
23- सिर दर्द, माइग्रेन
आधे सिर में दर्द
लक्षण --
किसी काम में रुची न लगना, थकावट, भारीपन, मानसिक तनाव, चिढ़चिढ़ापन, उल्टी आती है, चक्कर आना।
कारण -- पेट खराब होने के चलते, पेट अच्छी तरह
साफ नहीं रहना, ज्मदेपवद के कारण, भ्ंपत क्लम करने से, आंख कमजोर होने से नेत्र रोग से, दॉंत, आंख, कान का दर्द होने
से, काम करने मेें रुची नहीं रहने के चलते, खाना में गलत चीज खा लेने से तथा तामसिक भोजन
करने से, अधिक खुन की कमी के चलते, खाना हजम नहीं होने के चलते, ईर्ष्या करने से, कब्ज अपच के कारण, मन में कुछ
ज्यादा सोंचने से, नजला जुकाम खॉंसी होने से, महिलाओं के मासिक धर्म समय पर नहीें होने से, अनियमितता के
कारण, अधिक संभोग करने से, यह रोग साइकोसेमेटिक है यह प्उवजपवदंस क्पेजनतइंदबम से होता
है जैसे - डर, अधिक गुस्सा उसी समय सिर में अधिक दर्द होता है। अपच के
कारण, पेट में गैस बनने के कारण, मानसिक श्रम, चिंता, दुख के कारण, नसों में खींचाव पड़ने से, थकान से, स्पअमत और ैचसममद
की विकारों से, रात्री में जागने से, सौंदर्य प्रसाधनों से,
स्वू ठण्च्ण् के कारण, हाईपर टेंसन के
कारण।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, श्ंखप्ऱ़क्षालन, त्रटक, वस्ति, सुत्र नेति, जलनेति, कपालभाति।
नाक में गाय का
शुद्व घी दिन में तीन बार घी को गुनगुना गर्म करके डालने से सिर दर्द ठीका हो जाता है।
स्ूाक्ष्म
व्यायाम:-- श्वास प्रश्वास की पहली पांच
क्रियाएं, नेत्र, कपोल, कर्ण, ग्रीवा
स्थुल
व्यायाम:-- रेखा गति, उर्ध्वगति।
आसन :-- वज्रासन, उष्ट्रासन, मत्स्यासन, पवन मुक्तासन, शीर्षासन, सुप्त वज्रासन, धनुरासन, सर्वागासन, पदमासन, उतानमंडुकासन, उतानकुर्मासन
प्राणायाम:-- शीतली, सीत्कारी, भस्त्रिका, उज्जायी।
ध्यान
सवधानी:--
वायुकारक भोजन नहीं लेना चाहिए। रोगी को दुख पूर्ण वातावरण से दुर रखना चाहिए।
उसके साथ मीठा बोलना चाहिए। समय पर भोजन करना चाहिए। दिन में तीन बार सुबह, दोपहर, शाम। हरी सब्जी, हरी साग का
प्रयोग करना चाहिए। रात्री को सोते समय दुध पीने से ब्वदेजपचंजपवद नहीं रहती इसलिए
रोगी तंदुरुस्त रहता है।
24- थकावट
शरीर के किसी भी
अंग से अधिाक कार्य करने से उसमें थकान महसुस होती है । यह कोई रोग नहीं है लेकिन
किसी व्यक्ति को बिना परीश्रम के 'ारीर में थकान महसुस होती है उसे रोग के
अन्तर्गत लिया जाता है। अन्यथा थकावट कोई रोग नहीं है। विभिन्न कारणों से थकावट
महसुस होती है - उच्च स्क्त चाप से, निम्न
स्क्त चाप से , फ़फ़ेडो संबंधिा रोगों से , ह्रदय रोग से, टीबी, न्युमोनिया, दमा, डायबिटीज आदि से ।
प्रोटीन की कमी से यह रोग हो जाता है। यदि इस
स्थिति में प्रोटीनयुक्त आहार लेने से शरीर ठीक हो जाता है तो उस समय कुछ आसन एवं
प्राणायाम का अभ्यास करते रहने से शरीर पुर्णरुप से स्वस्थ हो जाता है। परन्तु कइ
रोगों में थकान के लिए पहले व्यक्ति का इतिहास जान लेना आवश्यक है। ये रोग उसके
परीवार के किसी सदस्य को हुआ था या है। कभी कभी शरीर में त्ण्ठण्ब्ण् कम हो जाने
से थकान हो जाती है। अति शुक्र के क्षय होने से पुरुषों में यह रोग होता है स्त्रियों
को भी विभिन्न रोग इसी वजह से थकावट होता है। साधारणतः जिस कारण से थकावट होती है
उस रोग का निदान पहले करना चाहिए।
षटकर्म:-- पहली पांच क्रियाएं ,
उदर शक्ति विकासक क्रिया 5वीं छोडकर बिना
कुंभक के,
सर्वांगपुष्टि , उर्ध्वगति।
सुर्यनमस्कार
आसन:-- अस्वथासन, ताडासन, उतानपादासन, कटिचक्रासन, उर्ध्वहस्तोतानासन, मक्रासन, शवासन
घ्यान
सावधानी :-- रोगी
के रोग को देखते हुए उपचार करना चाहिए।
25-
नेत्र दोष ( डलवचपं)
लक्ष्ण:-- कम
दिखाई देना, आँखों में जलन होना, आँखों में खुजली होना,
आँखों में पानी आना, सिर भारी रहना, सिर दर्द रहना, भ्लचमत ।बपकपजल
के कारण।
कारण:-हेरिडिटी
आनुवंशिक, मस्तिष्क की कमी एवं निर्बलता, सर्दी जुकाम के कारण, गलत दवा लेने से आँखों पर विपरीत असर
होता है। ज्यादा पास बैठकर टीवी देखने से, बहुत तेज रोशनी में पढ़ने से, पेट की खराबी से, असंतुलित आहार से, भोजन में विटामिन
की कमी से, प्रौढ़ावस्था में अधिक चिंता तथा मदिरापान और पेट ठीक से साफ
नहीं रहने से।
सावधानी:-- गाजर
और चुकन्दर का रस लाभकारी है। त्रिफला की पानी से आँख धोना चाहिए। प्रातःकाल ठंड
पानी से आँख धोना चाहिए। शुद्व शहद आँखों
मे सुबह शाम डालना चाहिए। गाय की खीस खाने से आँखों के रोग ठीक हो जाता है। गाय का
देसी घी नासारंध्र में 10 -10 बूंद डालने से ।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, शंखप्ऱ़क्षालन, सुत्र नेति, जलनेति, कपालभाति, दुग्धानेति, घृतनेति।
सुक्ष्म
व्यायाम:-- पहली पांच क्रियाएं, नेत्र शक्ति, उदरशक्ति ।
स्थुल ब्यायाम:--
उर्ध्वगति।
सुर्यनमस्कार
आसन:-- मयुरासन, सिंहासन, वृषभासन, चक्रासन, उष्ट्रासन, कालभैरवासन, जानुशीर्षासन, चक्रासन, वृक्षासन, सर्वांगासन, उर्ध्वसर्वांगासन, धनुरासन, शीर्षासन, उत्कटासन, उतानकुर्मासन, उतानमंडुकासन, मत्स्यासन, सुप्तवज्रासन, पादहस्तासन, पश्चिमोतानासन, भुजंगासन।
मुद्रा:--
विपरीतकरणी मुद्रा ।
प्राणायाम:-- नाड़ीशोान प्राणायाम
पाँचों प्रकार की
दृज्टि।
26- (डायरिया) ब्वसपजपे
(ब्वसपब च्ंपद)
बड़ी आँत का पाश्चात्य नाम बवसवद है । इस बवसवद
की सृजन को ही ब्वसपजपे कहते है । बड़ी आँत में आपस में गुच्छे बन जाते है जिससे की
बड़ी आँत में सुजन आ जाती है और उस रोगी को बड़ी कमजोरी रहती है शरीर के अपरीजन्य मल
पदार्थ को शरीर से बाहर निकाल देना ही ब्वसवद के कार्य है। यदि ब्वसवद की कार्य
क्षमता में कुछ कमी आ जाती है तो शरीर स्थित ॅेंजम च्तवकनबज बाहर निकलने में
असमर्थ हो जाता है। इसके फलस्वरुप बड़ी आँत में संचित मल धीरे धीरे विशाक्त होकर
सड़ने लगता है और बड़ी आँत में सुजन आ जाती है और असहाय दर्द होता है। इस स्थिति को
ही ब्व्स्प्ज्प्ै कहते है ।
डनबने ब्वसपजपे (डायरिया) में बड़ीे आँत से जो रस बाहर निकलता है उसे डनबने कहते
है। जिस प्रकार पानी के द्वारा नाली में जो किचड़ होता है वह बाहर निकल जाता है।
ऐसे ही डनबने बड़ी आँत का मल शरीर से बाहर निकालता है। जब यह डनबने जरुरत से अधिक
बनता है तो शरीर स्थित मल को चिकना करके बाहर निकाल देता है यह क्रिया बार बार
होने पर डायरिया हो जाता है इसी का दुसरा नाम डनबने बवसपजपे है । बार बार मल को
शरीर से बाहर निकालने से व्यक्ति दुर्बल हो जाता है ।
न्सबमतंजपअम ब्वसपजपे --विजातिय मल, विजातिय डनबने और विशाक्त सड़ता हुआ ।बपक से बड़ी
आँत में घाव की सृष्टि हो जाती है उसके पश्चात उस घाव से रक्त निकलना शुरु हो जाता
है और मल त्यागते हुए वह रक्त मल के साथ बाहर आता है इस स्थिति को न्सबमतंजपअम
ब्वसपजपे कहते हैं । ऐसे रेागी के मल में कई प्रकार के विषाणु (टपतने) जन्म ले
लेते है, जो कि मल परीक्षण के समय पता चलता है। अधिक दिन तक यहीं रोग रहने से आंत में
बंदबमत तक हो जाता है। इसके फलस्वरुप रोगी की मृत्यु तक हो जाती है ।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में इसका कोई ईलाज
नहीं है क्योंकि आपरेशन के पश्चात वह हिस्सा निकाल दिया जाता है परन्तु कुछ दिन
बाद व्यक्ति पुनः उस रोग का शिकार हो जाता है।
योगशास्त्र में इसका निदान संभव है।
कारण:--जो लोग ज्यादा चाय, काफी, ंसबवीवसए
ेउवापदहए व्पसल ज्ीपदहे आदि का सेवन करते है उसको यह रोग हो जाता है। अधिक दिन तक
कब्ज रहने से भी यह रोग होता है।
सावधानी:-- रोगी को चाय, कॅांफी, ेउवापदह का सेवन
नहीं, भुख से पहले खाना नहीं। सप्ताह में एक उपवास जरुरी है। जब तक रोगी का
पूर्णरुपेण निदान नहीं हो जाता तब तक ज्यादा च्तवजमपद युक्त भोजन खाना मना है।
ज्यादा परीश्रम करना, उछलना कुदना मना है। इसमें मल को स्ंतहम प्दजमेजपदम में 24 घंटे से ज्यादा
नहीं रहने देना चाहिए। रोगी को सात्विक आहार देना चाहिए।
ब्वसपजपे का निदान योगशास्त्र में इस प्रकार है
--
षटकर्म---
वस्ति, नौली, बाघी, शंखप्ऱ़क्षालन
सुक्ष्म व्यायाम:-- पहली क्रियाएं - उच्चारण स्थल तथा विशुद्व चक्र
की शुद्वी - इन क्रियाओं से मानसिक संतुलन बढ़ता है, भय नहीं लगता, बुद्वी तीव्र होती है।
उदरशक्ति - इन क्रियाओं के करने से सारे शरीर
के ज्वगपद बाहर निकल जाते है जिससे ब्वसवद को शक्ति मिलती है । इसमें कुंभक नहीं
कराते।
कटि शक्ति विकासक - इन क्रियाओं के द्वारा पेट
अैार कमर के आगे पीछे, दाएं बाएं चारों तरफ की डवअमउमदज होती है। इसमें बड़ी आँत
में जो मल इक्ठा हो जाता है उसके चलने में सहायक होती है अर्थात मलाशय तक मल पहँुच
जाता है। इन क्रियाओं से आँतों में शक्ति मिलती है।
स्थुल व्यायाम:-- सर्वांगपुष्टि - इससे पूरे शरीर का व्यायाम
हो जाता है अर्थात प्दजमेजपदम की पुष्टि होती है।
मत्सयेन्द्रासन -- आँतों में
ठसववक ब्पतबनसंजपवद बढ़ता है। भोजन अच्छी प्रकार से पच जाता हेै जिससे
ब्वसपजपे के रोगियों को आराम मिलता है।
कटिचक्रासन-- इसमें खाना आमाश्य से आगे जाता है
जिससे पइसंउंजपवद कम हो जाता हेै ।
उदराकर्षासन -- इसके करने से ब्वसवद में ठसववक निकल जाते है ब्पतबनसंजपवद बढ़ता है तथा सारे ज्वगपद बाहर
निकल जाते हैं ं।
कोनासन -- इसके करने से प्दजमेजपदम की नसों मेे
ताकत बढ़ती है तथा मल आसानी से बाहर आ जाता है ।
उष्ट्रासन - जैसे ही हम आगे पीछे से अपने शरीर
को उठाते है तो प्दजमेजपदम में जो गांठें होती है वह खुल जाती है और प्दजमेजपदम की
ताकत बढती है।
अश्वत्थासन --
इसके द्वारा मानसिक संतुलन बना रहता है।
धनुसरसन -इसके अभ्यास से पेट की गैस बहुत आराम
से बाहर निकल जाती है। दिमागी परेशानियां दूर होती है।
भुजंगासन - इसमें पेट के दाएं बाएं का डवअमउमदज
हो जाता है जिससे आंतों का मल मलाशय में चला जाता है ।
मयूरासन - भोजन आसानी से हजम हो जाता है ।
म्ुाद्रा -तडागी -- तडागी मुद्रा करने से
प्दजमेजपदम की डेेंंहम (मसाज )हो जाती है
महाबंध
- इस मुद्रा के द्वारा गुदा द्वार
को तथा प्दजमेजपदम को ताकत मिलती है ।
प््रााणायाम -- भस्त्रिका प्राणायाम से शरीर
में गर्मी बढ़ती है जो कि खाना का अच्छी तरह पचा देता है और अन्न से रस, रस से रक्त बनकर
सारे शरीर में पहुंचाता है।
शीतली - सीत्कारी:-- न्सबमतंजपअम बवसपजपे में
सहायक है जिससे अधिक क्रोध असंतुष्टता के भाव ठीक होते है ।
घ्यान -
ध्यान करने से ब्वदबमदजतंजपवद बढ़ता
है । व्यक्ति में विश्वास जागता है जिससे उन्हे डर, भय, शोक, दुःख, ईर्ष्या , क्मचतंजपवद आदि का असर नहीं रहता ।
ब्वसपब क्पेमेंम -- एक
ऐसी परिस्थिति जिसमें कुछ आंत्रिय आंत से संबंधित एन्जाइम के द्वारा जल में
घुलनशील गेहूँ के कुछ प्रोटीन का पाचन नहीं हो पाता, तो
छोटी आंत के कोशिका लायनिंग का नुकशान होता है ऐसे लोगों को गेहुं से बने
पदार्थ भोजन में नहीें लेना चाहिए ।
27-
ग्वाइटर, गलगंड, घेंघा रोग, थायराइड ळसंदक
प्वकपदम की क्पिपिबपमदबल के कारण, गले में थायराइड
ग्लैंड़ में सुजन आ जाती है। गले में जो ग्रंथी होती है उस ग्रंथी में सुजन या
वृद्वि की अवस्था को ळवपजमत कहते हेै इसे थायराइड़ गंथी कहते है। यह ग्रंथी जब फुल
जाता है तो रोगी को श्वास प्रश्वास में परेशानी होती है रोगी को कोई दर्द नहीं
होता परन्तुं रोगी के आंखे बाहर की तरफ़ आ जाती है। पलक से अँाख की पुतली बंद नहीं
होती। उसकी आंखें सुज जाती है। रोगी को हमेशा दुर्बलता का अनुभव होता है। इसी को
ळवपजमत कहते है।
कारण: - दुध, साग, सब्जी, आयोडिन की कमी होना, एन्फ्रलूएंजा के कारण,
नजला - जुकाम के कारण, खट्टी चीजें खाने
से, गंदगी की वजह से,
पानी साफ नहीं
होने से या पानी को ज्यादा साफ करने के वजह से आयोडिन निकल जाता है।
लक्ष्ण:--
रोगी की आवाज खराब हो जाती है। हड्डियां कमजोर हो जाती है। ब्वदेजपचंजपवद
होने लगती है। डिप्रेसन हो जाता हेै। मोटापा हो जाता है। बाल झड़ना, जिहवा मैले की
तरह हो जाती है। हर समय थकावट, भ्लचमतजमदेपवदए भ्मंतज ।जजंबाए ब्ीवसमेजतवस बढ़
जाता है।
भारत के कुछ भागों में आयोडिन कम होता है। जो
लोग हाईप्रोटीन, डाइट प्रोटीन उन लोगों को होने की संभावना रहती है। गर्भवती
स्=ीयों में यह रोग अधिाक हो जाता है। अस्वभाविक शुक्र के क्षय होने से पुरुषों
में यह रोग हो जाता है। जो लोग समुद्र तट के किनारे रहते है उनको कम होता है
क्योंकि साधारणतः आयोडिन उपस्थित होता है। पहाडी स्थानों पर रहने वाले लोगों को
रोग अधिक पाया जाता है।
यौगिक चिकित्सा:--
षटकर्म:--
कुंजल, जलनेति, सूत्र नेति (सुजन के समय मना है) शंखप्रक्षालन, व़स्त्रधौति।
सुक्ष्म व्यायाम:-- पहली पांच क्रियाएं, ग्रीवा शक्ति
विकासक, कटिशक्ति विकासक क्रिया- 1, 4, 5
स्थुल व्यायाम:-- सर्वांगपुष्टि ।
सुर्यनमस्कार
आसन:--
पीछे जाने वाले आसन - उतानकुर्मासन, उतानमंडुकासन, मत्स्यासन, सुप्तवज्रासन, उष्ट्रासन, धनुरासन, कर्णपीणासन, मक्रासन, शलभासन, चक्रासन, भुजंगासन।
मुद्रा:-- विपरीतकरणी मुद्रा ,महामुद्रा।
प्राणायाम:--
उज्जायी प्राणायाम।
28-
हिपेटैटिस या पीलिया, जांडिस, पांडुर
लक्ष्ण:--
गैस्ट्रीक ग्लैंडस जो खा़द्यय पदार्थो को जीर्ण करते हेै, टुकडे करते है, रस में परीणत
करते है वहीं रस यकृत, प्लीहा के द्वारा शुद्व होता है उसके पश्चात ैचसममद और स्पअमत से आत्र रस निकलता है वह
खाद्यय रस के साथ मिश्रित होकर उस रस को रक्त में परिणत कर देता है वहीं स्पअमत
रक्त को हृदय की ओर ले जाता है हृदय उसी रस को पूर्ण शरीर में संचार करता है हृदय
के बाएं भाग में नीचे की तरफ इसका स्थान है। यकृत का वजन साधारणतः ढ़ेड से 2 ज्ञण्हण् तक
होता है क्योंकि ये शरीर का सबसे बडा खुन तैयार करने का यंत्र है किन्तु यहीं खराब
हो जाए तो शरीर गठन प्रणाली में रुकावट आ जाती है अैार शरीर विभिन्न रोगों का आवास
स्थल बन जाता है। रक्त तैयार करना, शोधान करना इसके प्रमुख साधन है। जब अजीर्ण और
अपच में रक्त अजुद्व हो जाता है तो यह शुद्व करने की कोशिश करता है जब शुद्व नहीं
होता तब यह रोग स्पअमत रोग ग्रस्त हो जाता है अर्थात स्पअमत दुर्बल कमजोर हेा जाता
है।
कारण:-- साधारणतः
अधिक चाय, काफी, धुम्रपान, मांस, मछली, तले हुए पदार्थ, मसाले युक्त खा़द्यय पदार्थ शरीर युक्त रक्त को
विशाक्त कर देता है। और वही रक्त शोधन के लिए यकृत और प्लीहा को अधिक परीश्रम करना
पडता है इसकेे साथ साथ यकृत खराब हो जाता है तो उसके साथ कई रोगों के लक्ष्ण दिखाई
देते हैं जैसे - मुंह में पानी आना, मल मूत्र में पीलापन, ऑंखों मे सुजन और पीलापन, शरीर स्थित रक्त
मेे जो त्ण्ठण्ब्ण् रहते है वह धीरे-धीरे कम हो जाते है और रक्त में पीतरक्त अधिक
हो जाता है। वहीं पीत का रंग पीला हो जाता है इसी रोग को जांडिस, पांडुर रेाग या
पीलिया कहते है।
यौगिक चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, बाघी।
सुक्ष्म व्यायाम की सभी श्वास प्रश्वास की
क्रियाएं।
आसन:-- रोगी को भुख उचित लगने लगे तो हल्के
आसन:- ताडासन, भुजंगासन, उर्ध्वहस्तोतानासन, कटिचक्र्रासन वो भी रेागी का रोग दुर होने के
पश्चात बाद जो कि शटकर्म में बाघी और
कुंजल के द्वारा सप्ताह या 10 दिन में पूर्ण रुप से स्वस्थ हो जाता है।
उपचार - मुली और गन्ने का रस, मसूर के दाल के
पकौड़े दही में डालकर चावल में खाने के पश्चात ढ़ाई घंटे बाद बाघी करवाते है। बाघी
के बाद हल्का खीर खाना है। भोजन में लस्सी, ग्लूकोज, मीठी चीजें, संतरा, पपीता, पनीर का पानी, कच्चा नारियल, अनार लेना चाहिए।
सावधानी:-- मांस-मदिरा,
मिर्च-मसाले, चाय काफी, पीले कपड़े का
प्रयोग नहीं करना चाहिए। रोगी के आस पास पीला चीज नहीं रहना चाहिए।
अदरक का रस $ गुड व त्रिफला का चूर्ण = पीलिया खत्म।
29- प्देवउपं (अनिद्रा)
स्वास्थ्य रक्षा के लिए गहरी नींद जरुरी है।
प्रकृति की एक बहुत बडी देन है नींद। समस्त प्राणियों के लिए नींद की व्यवस्था
करके सोना अनिवार्य बनाकर प्रकृति ने जीवधारियों पर न सिर्फ उपकार किया है बल्कि
अनुग्रह भी किया है। वरना जीव को जो विश्राम और आनंद गहरी निंद सोने पर मिलता है
वह नही मिलता, तब हमारी क्या दुर्दसा होती है इसकी हम कल्पना भी नहीं कर
सकते। इस दुर्दसा का थोडा बहुत अनुभव उन लोगों को होता है जिन्हे देर तक नींद नहीं
आती या नींद की गाोली खाए बिना जो सो नहीं पाते।
गहरी नीद सोने से न सिर्फ हमारे शरीर को ही
बल्कि हमारे मस्तिष्क को भी आराम मिलता है जिससे हमे सोकर उठने के बाद ताजगी तथा
स्फुर्ति नहीं, बल्कि सुस्ती, थकावट और भारीपन का अनुभव करते है। क्योंकि
गहरी नींद न सोने से हमारे शरीर, मस्तिष्क और स्नायु संस्थान को भी आराम नही मिल
पाता। शीतकाल मे हमारा स्वास्थ्य अच्छा और शरीर बलवान इसलिए भी हो पाता है कि
शीतकाल की रातें बड़ी होती है जिससे शरीर केा विश्राम करने का ज्यादा समय मिलता है।
हमारी नींद गहरी होगी तो मस्तिष्क द्वारा सोच विचार करने तथा चिंता तथा तनाव
ग्रस्त रहने की स्थिति नहीं बन पाएगी। ऐसी स्थिति नहीं बन पाएगी तो पाचन शक्ति
अच्छी रहेगी क्योंकि पाचन संस्थान और पाचन शक्ति पर सबसे ज्यादा बुरा असर चिंता
तथा शोक करने पर ही पडता है। गहरी नींद में सोने पर चिंता,
फिक्र करना तो दुर खुद
अपना ख्याल भी नहीं रहता। गहरी नींद में हम आनन्द की स्थिति में पहुंच जाते है
इसलिए सोकर उठने के बाद हम तरोताजा और चुस्त अनुभव करते हैं ऐसा अनुभव हर किसी को
नसीब नहीं होता। सिर्फ उसी को होता है जो गहरी नींद सो पाता है। और जो गहरी नींद
नहीं सो पाते वह नींद की गाोली खाकर इस स्थिति को प्राप्त करने की कोशिश करते है।
कुछ लोग इसी कोशिश में शराब पीना भी शुरु कर देते है। नींद की गोली या शराब से
नींद नहीं आती, नशा आता है, बेहोशी आती है। नींद और नशे में बहुत फर्क है।
1-
जाग्रत अवस्था-- पहली अवस्था तो जागने की है सोना दो प्रकार का
होता है एक अवस्था स्वप्न देखते हुए सोने की होती है और दुसरी गहरी नींद सेाने की।
मन और शरीर की स्वप्न स्थिति में लेटते ही दो
चार मिनट में सीधे निद्रा में प्रवेश हो जाते है निद्रा से पहले तन्द्रा की स्थिति
नहीं बनती। तन्द्रा की स्थिति बनने लगे तो आप समझ जाइए कि यह स्वाभाविक स्थिति
नहीं है और नींद आपसे रुठने लगतीे है। आगे चलकर यहीं स्थिति बढ़ते बढ़ते अनिद्रा
नामक बिमारी में परीवर्तित हो जाती है।
शरीर को नीद्रा से लाभ:-- सुख पुर्वक नींद आने
से शरीर को आरेागय, पोषण बल और वीर्य की प्राप्ति होती है। इसके अलावा
ज्ञानेन्द्रियों की कार्य शक्ति और आयु यथाकाल तक प्राप्त होती है। नींद न आने से
शरीर रोगी, दुर्बल, नपुंसक, बलहीन, थकी हुई इन्द्रियों वाला और भयंकर बिमारियों का
शिकार हो जाती है जहां कुछ लोग अनिद्रा के शिकार होते है वहीं कुछ लोग अधिक नींद
आने से परेजान रहते है। 'ारीर में कफ़ और तमो गुण की मात्र बढ़ जाने से नींद अधिक आने
लगती है। जब कि वायु और पित कुपित होने से अनिद्रा रोग हो जाता है।
निंद आए इसके लिए शरीर श्रम से थका हुआ और मन
विचारों से शुन्य हो यह जरुरी है किसी प्रकार की चिंता या नींद लाने की चेष्टा भी
नींद को भगा देती हेै और हम करवटें बदलते रहते है।
अनिद्रा क्यों ---- अनिद्रा किसे कहते है ं
जब बार बार प्रयत्न करने पर भी नींद नहीं आती
तब आदमी परेशान हो उठता है। दिन भर मन मेेें गिरावट, सूस्ती और मायूसी बनी रहती है। ऐसी स्थिति में
जब हम डाक्टर से परामर्श करते है तब हमे कोई नींद की गोली बता दी जाती है जो एक
बार नींद की गोली के चक्कर में पड़ा तो वह फिर निकल नहीं पाता क्योंकि इसकी आदत पड़
जाती है। फिर गोली के बिना निंद नहीें आती बल्कि कुछ समय बाद यह हालत हो जाती है
कि नींद की गोली से नींद नहीं आती। इसे अनिद्रा रेाग कहते है। आज अधिाकांश लोगों
को अनिद्रा रोग हो रहा है। बडे बडे उद्योगपति तनाव से भरा जीवन जीते हेै कि उन्हे
सोने के लिए मादक द्रव्यों का सहारा लेना पड़ता है। इसके सहारे वे सोते नहीं बल्कि
बेहोश होते हेै। सोना और बेहोश होना एक बात नहीं है दोनों के परिणाम और प्रभाव अलग
अलग है। स्वाभाविक नीद्रा का अनुभव करके जागने और बेहेाशी से होश में आने पर
शारीरीक और मानसिक स्थिति एक
जैसी नहीें रहती। गहरी नींद सोकर उठने वाला तरोताजा, हल्का और फुर्तिला
हो जाता है। जबकि किसी भी नशे से बेहोश होकर सोनेवाला जब उठता है तो सिर भारी, हाथ पैर टुटने से
और मुंह का स्वाद बिगड़ा हुआ होता है। ऐसा होना यही साबित करता है कि नशे की नींद
प्राकृतिक नींद न होने से यह लाभ शरीर को नहीं देती जो स्वभाविक गहरी नींद से होती
है।
अनिद्रा रोग
क्यों होता हेै -- तो इसका सिर्फ इतना ही
जबाब है कि आप मानसिक तनाव, चिंता और चंचलता
से ग्रस्त हैं आपके शरीर का वायु और पित कुपित है और आपका स्नायुसंस्थान (छमतअवने
ेलेजमउ) संतुलित ठीक नहीं है इन कारणों को मिटा दिजिए और आप अनिद्रा रोग से मुक्त
हो जाएंगे ।
अनिद्रा रोगी के
लिए आसन:----
षटकर्म:-- कुंजल (भ्ण्ठण्च्ण् वाले न करें), सुत्र नेति, जलनेति, कपालभाति, शंखप्ऱ़क्षालन
अस्थमा और प्देवउपं वाले को शंखप्ऱ़क्षालन करवाएं।
सुक्ष्म व्यायाम
की सभी क्रियाएं ।
सुर्यनमस्कार
आसन:-- पदमासन, वज्रासन, भुजंगासन, मक्रासन शवासन, पुर्वहस्तोतानासन, विरासन, ताड़ासन, ब्रम्हचर्यासन, गोमुखासन, पादांगुष्ठासन, सर्वांगासन, उर्ध्वसर्वांगासन, धनुरासन, शीर्षासन, उत्कटासन, गरुड़ासन, संकटासन।
प्राणायाम:--शीतली, सीत्कारी ये
क्रियाएं ठतंपद को त्मसमग करने वाली है ।
दरूस्त करें
स्लीपिंग डिसऑर्डर:----
कहते हैं दिनभर
काम और तनाव के बाद यदि रात को चैन की नींद आ जाए तो थकावट और तनाव दुर हो जाते
हैं। निश्चित रूप से सात आठ घंटे की सामान्य नींद के बाद आई सुबह ताजगी भरी रहती
है। तरोताजा दिन की शुरूआत करने के लिए जरूरी है कि नींद गहरी आए, उसके बीच रूकावट
न हो, लेकिन ऐसी नींद सबको नहीं आती। अनियमित दिनचर्या, एल्कोहल, सिगरेट और पौष्टिक आहार के कारण शहरी क्षेत्र
का हर दसवॉं आदमी चैन की नींद की तलाश में है। विशेषज्ञाें का कहना है कि नींद न
आने का हल नींद की दवाओं में नहीं है। इसके लिए कई चरणों में क्रमबद्व प्रयास
स्वभाविक नींद दे सकते हैं।
क्या है सामान्य
नींद---
एक स्वस्थ्य व्यक्ति को लेटने के बाद 10 से 15 मिनट के अंदर
नींद आ जाती है। इसके लिए उसे प्रयास नहीं करना पडता, चिकित्सीय भाषा में बेहतर नींद को दो तरह से
समझा जा सकता है। यदि आप सो रहे हैं तो जरूरी नहीं कि हमेशा ही आप गहरी नींद लेते
हों। एनरेम और रेम में एनरेम पहले चरण की अवस्था है, जिसमें तीन चरणों में नींद आती है। पहले चरण में
गर्दन पर नियंत्रण खो जाता है, लेकिन ऑंखों की पुतलियॉं घुमती रहती हैं। दुसरी
अवस्था मेें मस्तिष्क स्थिर हो जाता है शरीर द्वारा मस्तिष्क को भेजी जाने वाली
तरंगें धीमी हो जाती हैं और बाहरी दुनिया से ध्यान हट जाता है। तीसरे चरण में
मस्तिष्क ही नहीं, शरीर भी सामान्य हो जाता है इस स्थिति को सपने देखने के लिए
भी जाना जाता है। बच्चे और बुजुर्ग इस अवस्था की नींद लेते हैं।
एनरेम की तीनों
स्थितियों के बाद रेम नींद आती है। रेम को लेकर विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं, जबकि यह सही है
कि एनरेम में स्थिर होने वाला मस्तिष्क नींद की इस अवस्था में सक्रिय हो जाता है।
इस िंस्थति में व्यक्ति को स्वतः बीते हुए समय की बातें याद आती है। स्वस्थ रहनेे
के लिए नींद के इस चक्र का पुरा होना जरूरी है।
नींद पर ग्रहण
---
कई लोग रात भर
करवट बदलते रहते हैं, जिसे एक तरह का साइकेट्रिक डिसआर्डर माना जाता है।
इनसोमेनिया और ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एनीमिया दो बीमारियॉं हैं, जिसमें नींद हमसे
कोसों दुर हो जाती है। दोनों ही स्थितियों का इलाज जल्द न होने पर परेशानियॉ हो
सकती हैं।
इनसोमेनियाः-
नींद न आना, जबरदस्ती नींद का प्रयास करना, करवटें या फिर घुम-घुम कर रात बिताने की मजबुरी
इन्सोमेनिया कहलाती है। विशेषज्ञ कहते है कि इन्सोमेनिया कई कारण और परेशानियों की
वजह होती है। शारीरीक श्रम की अपेक्षा मानसिक श्रम अधिक करने की स्थिति में भी
नींद गायब हो जाती है, जबकि इन्सोमेनिया के बाद काम में एकाग्रता की कमी, चिडचिडापन, शरीर में ऊर्जा की कमी,
थकान, आल्स्य जैसी
परेशानियॉ हो सकती है।
अब्स्ट्रक्टिव
स्लीप एनीमिया:- इस स्थिति में असामान्य
दिनचर्या या काम के तनाव की वजह से नहीं, बल्कि सांस लेने में रूकावट की वजह से नींद
बाधित होती है। कई बार स्लिप एनीमिया के शिकार लोग खर्राटे लेकर भी सो जाते हैं, लेकिन इसे बेहतर
नींद नहीं कहते। गले के टॉसिल बढने, श्वास की नलियॉ संकुचित होने या साइनस में
स्लीप एनिमीया की सिकायत हो सकता है। सामान्य व्यक्ति को यदि सांस लेने के लिए
गहरी सांस खींचनी या जम्हाई लेनी पडे तो यह रोग के लक्षण हो सकते हैैं। सीपीएपी
कॉन्टिनुअस पॉजिटिव एयरवे प्रेशर के जरिए तकलीफ दुर हो सकती है, लेकिन किसी भी
सुरत में नींद न आने के सही कारणों का पता लगाना जरूरी है।
प्राकृतिक उपचार भी है कारगर:- आयुष ने अनिद्रा
की एक वजह मस्तिष्क की एकाग्रता की कमी भी हो सकता है आयुष इस बिंदु को ध्यान में
रखकर ही मेडिटेशन को महत्व देता है। सोने से पहले गुनगुने पानी में पैर रखें तो
बेहतर नींद आ सकती है। मेथी का पाउडर गर्म पानी में डालकर पीएं या इसे लस्सी या
छाछ में भी मिला सकते हैं। सोते समय दिमाग न भटके इसके लिए मंत्रेचारण कर सकते
हैं। खाने में अधिक शाकाहार और प्रोटीन को
शामिल करें। सोने से पहले दिमाग को अन्य बातों से हटा लें। यदि नींद न आ
रही तो सोने का प्रयास न करें। एल्कोहल, सिगरेट या अन्य नशीली दवाएं न लें।
अनिद्रा के
आंकडे:-नवम्बर 2011
58» भारतीयों का काम अनिद्रा के कारण प्रभावित होता है।
11» भारतीय नीेंद न आने के कारण आफिस से छुट्टी लेते हैं।
38» लोग ऑफिस में सहकर्मियेां को सोते हुए देखते हैं।
33» लोग सोते समय खर्राटे लेते हैं जो असामान्य है।
02» लोग सोने की समस्या को लेकर डाक्टर के पास गए हैं।
न लें नींद की
गोली का सहारा:-
बेहतर नींद के
लिए गोलियों का सहारा लेना ठीक नहीं है। इसके मस्तिष्क पर नकरात्मक असर को देखते
हुए इन्हे नारकॉटिक दवाओं की श्रेणी में रखते हैं। नींद की दवाएं मस्तिष्क के
न्यूरोन्स को निष्क्रिय कर, सुस्त कर देती है। दवा लेने का मतलब है कि हम मस्तिष्क को
जबरन नींद के एनरेम चरण में लाना चाहते हैैं। नियमानुसार स्लीपिंग पिल्स नामक यह
दवाएं ओटोसी ओवर द काउंटर या सिधे दवा विक्रेता से नहीं मिलती। अस्थमा, दिल के मरीज या
फिर दर्द के कारण अनिद्रा के शिकारों को यह दवाएं चिकित्सक के परामर्श से दी जाती
है। नींद के लिए दवाओं का इस्तेमाल युवाओं में भी देखा गया है। दवा का लंबे समय तक
प्रयोग मस्तिष्क की क्रियाशीलता को कम करके, याददास्त कम कर सकता है। दवाओं के नाकारात्मक
असर के कारण मुंह सुखना और भुख कम लगना आदि समस्याएं होती है। टॅाक्सिन होने के
कारण इसका इस्तेमाल रक्तचाप को भी नियंत्रित करता है।
स्लीपिंग लैब है समाधाान:--अनिद्रा के शिकार
लोगों की पालोसामोग्राफी की जाती है। इस जॉंच से सेन्ट्रल न्यूरोन्स का विश्लेषण
किया जाता है। लैब के फाइबर चैम्बर में सोने की सामान्य स्थितियॉ पैदा की जाती है।
इस दौरान व्यक्ति के सोने के तीनों चरण, शरीर का तापमान, मस्तिष्क की क्रियाशीलता की मॉनिटरिंग की जाती
है। इस प्रक्रिया को आइंटोफोरेनिक अध्ययन कहते हैं। इससे चार चरण के स्लीपिंग
डेमों में अनिद्रा के कारणों का पता लगता है। इलेक्ट्रोफिजियोलोजी से मरीज की नींद
को सामान्य किया जाता है। चार से पॉंच चरण के डेमो में मरीज की समस्या दुर हो जाती
है।
बादाम का तेल लगाने से अनिद्रा रोग ठीक हो जाता
है।
30-
मोटापा
(व्ठम्ैप्ज्ल्)
मोटापा (व्ठम्ैप्ज्ल्) को ओवरवेट भी कहा जाता है। शरीर में जरुरत से
अधिक वसा द्वारा पहचाना जाता है। यह सामान्यतः च्ीलेपवसवहपबंस जरुरत से अधिक मात्र
में भोजन लेने से होता है। व्इमेपजल पश्चिमी देशों में बहुत सामान्य बिमारी है। यह
भारत में अधिक आमदनी वाले लोगो में होता है।
लक्ष्ण ----
व्इमेपजल गंभीर स्वास्थ्य समस्या है क्योंकि म्गजतं िंज हृदय, किडनी, लीवर, तथा अधिक भार
सहने वाले जोड़ो जैसे - हिप, घुटना, टखना में जमा हो जाता है जिससे की जीवन काल कम
हो जाता है। यह ठीक ही कहा गया है - जीतना लम्बा बेल्ट होगा उतना छोटा जीवन होेगा।
मोटे व्यक्ति बहुत से रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं जैसे कोरोनरी
थ्राम्बोसिस, हृदय घात, भ्ण्ठण्च्ए क्पंइमजपमेए ।तजीतपजपेए ळवनजए
स्पअमत ंदक ळंसस ठसंककमत का क्पेवतकमतण्
कारण:-- अधिाकांशतः मोटापा का मुख्य कारण अधिक मात्र
में खाना खाना है। इसका मतलब शरीर के ऊर्जा के जरुरत से अधिक मात्र में कैलोरी
लेना है। कुछ लोगों को अधिक कैलोरी वाला भोजन करने की आदत होती है। मोटापा विरले
ही थायराइड़ ग्लैंड़ या पिटयूटरी ग्लैंड के डिस्टरबेन्स के कारण होता हेै। थायराइड़
ग्लैंड़ या पिटयूटरी ग्लैंड के गड़बड़ी के कारण पुरे मोटापा का 2 प्रतिशत ही होता
है।
मोटे व्यक्ति को
डायबिटिज होने की संभावना ज्यादा रहती है भ्पही इसववक चतमेेनतमए शपकदमल चतवइसमउ
जोड़ों का दर्द होने की संभावना होती है। लेकिन ये जरुरी नहीं है कि मोटे व्यक्ति
को ये रोग होगा ।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, जलनेति, सूत्र नेति (सुजन
के समय मना है)शंखप्रक्षालन, व़स्त्रधौति, बाघी, नौली।
मोटे व्यक्ति को
एक सप्ताह में एक बार शंख प्रक्षालन कराना चाहिए। बाघी एक दिन बाद करना चाहिए।
व़स्त्रधाौति 40 दिन।
स्ूाक्ष्म
व्यायाम:-- उदर शक्ति विकासक क्रिया (1, पंपिंग, नौली, कटि शक्ति विकासक) क्रिया 1, 5, जंघा की पहली क्रिया
स्थुल व्यायाम:--
सर्वांगपुष्टि, उर्ध्वगति, उत्कूर्दन, इंजनदौड़।
सुर्यनमस्कार
आसन:--पश्चिमोतानासन, भद्रासन, भूनमनासन, चक्रासन, उष्ट्रासन, सर्वांगासन, भुजंगासन, गोमुखासन, उर्ध्वहस्तोतानासन, धनुरासन, कटिचक्रासन, योगासन, उत्कटासन, मत्स्यासन, पादहस्तासन, विस्तृतपाद सर्वांगासन,
शवासन, कटिचक्रासन, उड्डियानबंध, सुप्तपवनमुक्तासन, कोनासन।
नींबु $ शहद $ पानी
हरड़ $ बहेड़ा $ आंवला
प्राणयाम:--
भस्त्रिका प्राणायाम
31- मधुमेह
कारण:-- शक्कर
शर्करा, जो सामान्य भोज्य पदार्थ जैसे आलु, चावल, गेहूं, दुधा, शक्कर आदि चीजेां में प्रचुर मात्र में पाई
जाती है। मनुष्य शरीर में पाचन क्रिया के पश्चात ग्लूकोज में परिवर्ति हो जाती है
जो अवशोषित होकर रक्त वाहिनियों में पहुंच जाती है मनुष्य शरीर में उदर में
पैंक्रियाश ख् अग्न्याश्य, नामक ग्रथी है
जिससे प्देनसपदम ींतउवदम रत्रवित होता है। प्देनसपदम ींतउवदम ठसववक ळसनबवेम शर्करा को शरीर की आवश्यकता से कम मात्र में
रत्रवित होता है। जिससे कि रक्त में ग्लूकोज की मात्र बढ़ जाती है एवं शरीर की कोशिकाओं में ग्लूकोज की मात्र बढ़ जाती
है एवं शरीर की कोशिकाओं में ग्लुकोज न पहुंच पाने से ऊर्जा की कमी हो जाती है।
रक्त में मौजुद अतिरिक्त ग्लुकोज एक सीमा के पश्चात गुर्दे से निकलकर पेशाब के
रास्ते बाहर निकलने लगता है। प्रक्रिया के द्वारा इंसुलिन का कम मात्र में
स्त्रवित होना कतिपय रोगियों में आनुवंशिक रुप में व अन्य में गैर आनुवंशिक रुप
में होता है। वायरस भी इस रोग का कारण है।
इंसुलिन केा
उपलब्ध मात्र के आधार पर रोगियों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
1 ण् प्देनसपदम
क्मचमदकमदज :- ऐसे रोगियों में इंसुलिन
बहुत कम मात्र में होता है। अतः ऐसे रोगियों को वाह्य इंसुलिन पर निर्भर रहना पड़ता
है। इस वर्ग के रोगी कम उम्र में ही ग्रसित हो जाते है और आम तौर पर ऐसे रेागी
दुबले पतले शरीर वाले होते है।
2 ण् छवद प्देनसपदम
क्मचमदकमदज :- ऐसे रोगी में इंसुलिन की आंशिक कमी होती है। और आम तौर पर इस वर्ग
के रोगियों में या प्रौढ़ावस्था से आरंभ होते है मधुमेह एक ऐसा रोग है जो सही
देखभाल एवं उपचार से सामान्य रुप से चलता रहता है किन्तु इसका सही समय पर उपचार
नहीं किया गया तो इससे शरीर के विभिन्न अंगों पर असर पड़ता है ।
लक्ष्ण:-- मधुमेह
से ग्रसित रोगियों में लकवा, पैरालायसिस, हृदयाघात, रक्त चाप, गुर्दे की खराबी, मोतियाबिन्द, आंखों के पर्दे में भी खराबी आदि दुष्परिणाम हो
सकते है। मधुमेह के प्रमुख लक्षणों में अत्यधिक भूख एवं प्यास लगना एवं बार-बार
पेशाब का आना है। इस बिमारी से बहुत मरीज अधिक खाने के बाद भी कमजोरी महसूस करता
है एवं शरीर का वजन निरंतर घटता चला जाता है। ऐसे रोगियों में भोजन के बाद अत्यधिक
सुस्ती के भी लक्ष्ण पाया जाता है इस रोग के अन्य लक्ष्ण जैसे घावों का न भरना, शरीर में बार बार
संक्रमण आदि भी प्रमुख लक्ष्ण है ।
प्देनसपदम
क्मचमदकमदज रोगी कभी कभी मुर्छा, बेहोशी की अवस्था क्पंइमजपब बवउं में चले जाते है उसी से इस रोग
का पता चलता है। इस रोग में ग्लूकोज की मात्र जैविक रासायनिक परीक्षण द्वारा जांच किया
जाता है सामान्यतः इसके लिए खाली पेट (थ्ेंजपदह) में 75 ग्राम ग्लुकोज खिलाने के दो घंटे के बाद ठसववक
ेंउचसम या पेशाब (नतमं) लिया जाता है। मधुमेह एक ऐसा रोग है जिससे रोगी का शरीर
प्रतिदिन खोखला होता जाता है।
उपचार - मधुमेह के उपचार को तीन भागों में बांटा
गया है - 1- आहार, 2- व्यायाम, 3- दवा।
मधुमेह के उपचार में आहार का महत्वपुर्ण स्थान
है। मधुमेह के रोगी में इंसुलिन की कमी से शर्करा ही इसके दुष्परिणामों को बढ़ाती
है अतः ऐसे मरीज को प्रयास करना चाहिए कि वह एक निश्चित आहार ले जिसमें शर्करा की
मात्र कम हो। मधुमेह के रोगियों को अपना मानक वजन (ैजंदकंतक ूमपहीज) के आस पास रखना चाहिए। भोजन में शुद्व
शर्करा जैसे - चावल, शक्कर, आलू, शक्करकन्द व बहुत मीठे फल का उपयोग नहीं करना
चाहिए। भोजन में प्रोटीन के तत्व जैसे -चना, सोयाबिन, इत्यादि की मात्र भी सीमित होनी चाहिए। कम मीठे
फल जैसे- सेव, मौसमी, संतरा भी सीमित मात्र में लिया जा सकता है।
भेाजन में फाइबर की मात्र होने से शर्करा का अवशोषण धीमी गति से होता है ऐसे
रोगियों को सलाद काफी मात्र में लेना चाहिए। बिना चोकर निकाले आटे का प्रयोग करना
चाहिए। सब्जियों में करैला, सेम, पतिदार सब्जियां, आदि लेना चाहिए। आंवला,
चना, मेथी, खीरा, प्याज, लहसुन।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल
क्पंइमजपमे दवतउंस रहने पर 1 माह लगातार।
जलनेति, सूत्रनेति, कपालभाति
सूक्ष्म
व्यायाम:--श्वास प्रश्वास की क्रिया, ब्ीमेज इतमंजीपदह मगमतबपेम ए उदर की दसों
क्रियाएं, वक्ष स्थ्लशक्ति विकासक, कटि शक्ति विकासक, मुलाधार चक्र की शुद्वी, उपस्थ तथा
स्वादिष्टान चक्र।
सर्वांगपुष्टि ,
सुर्यनमस्कार।
आसन: - पूर्णमत्स्येन्द्रासन,
अर्धमत्स्येन्द्रासन, मत्स्यासन, कटिचक्रासन, मयुरासन-लीवर और
पैंक्रियास को इफैक्ट करता है। सुप्तवज्रासन, उतानकुर्मासन, उतानमंडूकासन, चक्रासन, उष्ट्रासन, पश्चिमोतानासन, उदराकर्षासन, भुजंगासन, सर्पासन, मंडुकासन, कुर्मासन, योगासन, शलभासन, मक्रासन, पृष्ठभूमिताडासन।
प्रणायाम:-- नाडीशोधन, भस्त्रिका
मुद्रा:-- उडियानबंध, मुलबंध, जालंधारबंध, विपरीतकरणी मुद्रा, महामुद्रा।
ध्यान
ळसलबवउं का ळसनबवेम
दवतउंस अंसनम 70 जव 90
90 जव 130 खाने के पश्चात
क्पंइमजपमे 250 उहध100उस हो सकती है ।
सामान्य व्यक्ति
में 180 उहधकस हसनबवेम समअमस से नीचे रहने पर शपकदमल के द्वारा मुत्र में हसनबवेम
नहीं आता है। शपकदमल के द्वारा यह हसनबवेम का सामान्य रीनल ळसनबवेम हैं।
उम्र का प्रभाव
-उम्र बढ़ने के साथ औसत िेंजपदह समअमस तथा औसत उपदपउनउ ठसववक ळसनबवेम दोनों बढ़ जाता
है। बुढ़े लोगों में कभी कभी अधिकतम ठसववक ळसनबवेम 180 उहधकस से अधिक हो जाता है। यह बुढ़ापे के कारण
प्देनसपदम ैमदेपजपअपजल से घटने के कारण होता है।
32- कब्ज (बवदेजपचंजपवद) पाखाना कड़ा होना
कारण:--
कब्ज का कारण (।बपकपजल) की विकृति
है। पित की उत्पति की मात्र अल्प होने से भोजन का पाचन नहीं होता और भोजन के न
पचने पर भोजन में ।बपक उत्पन्न होता है।
आंतो के सामान्य गति से अवरुद्व हो जाने से
कब्ज होता है। पित की मात्र में कमी के कारण शरीर में आलस्य पैदा होता है। व्यक्ति
जितना शारिरीक परिश्रम करता है उसी अनुपात में पित की उत्पति होती है। शारिरीक
परिश्रम करने से शरीर में पसीना भी आता है और श्वास प्रश्वास की क्रिया भी तेज
होती है। शारिरीक परिश्रम के कारण रक्त कण त्ण्ठण्ब्ण् टुटते है और यकृत (स्पअमत)
में छन कर पित बनाते है। स्पअमत में पित की मात्र अधिक होने पर पित स्वाभाविक रुप
से यकृत से बाहर आकर भोजन को अच्छी तरह से पचाता है ।
बचपनावस्था में परिश्रम की क्रिया अधिक होती है
इसलिए बचपन में कब्ज कम होता है। यौवनावस्था में परिश्रम कुछ सिथिल पड़ता है तो
कब्ज ज्यादा होता है और वृद्वावस्था में परीश्रम अत्यंत शिथिल पड़ता है। अतः कब्ज
अधिक होता है जो व्यक्ति इस तथ्य को समझ कर अपने सामर्थ्य के अनुसार परीश्रम करते
है तो उसे विवन्ध या काष्टबधता या कब्ज की बिमारी नहीं होती।
परीश्रम के अतिरिक्त ख्रटे भोज्य पदार्थ, सेंधा नमक, और काली मिर्च
यदि भोजन के साथ लिया जाए तो स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी है। इसलिए कटु अम्ल और
लवण, नमक को आग्नेय कहा है।
कब्ज और कोष्टबद्वता के कारण पाचन क्रिया का
हृास होता है इसके कारण खया हुआ भोजन सुखकर कब्ज पैदा करता है अैार जिसके वजह से
पितवाहिनी शोथ सिकुड जाता है
कामला, पिलिया, जांडिस आदि बिमारी हो जाती है।
लक्ष्ण:-- यदि एक दिन रात 24 घंटे बितने पर भी मल त्याग का वेग न हो तो
कब्ज माना जाता है। इसके साथ अन्न में अरुची, उदर में भारीपन बार-बार अपान वायु का निकलना, मूत्र त्याग का
बार-बार वेग होना इत्यादि कोष्टबधता कब्ज के लक्ष्ण है। काष्टबधता ( कब्ज ) के
कारण मन में मलिनता रहती है इसके वजह से साहस एवं उत्साह में भी कमी हो जाती है।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, शंखप्रक्षालन, बस्ति ।
सूक्ष्म
व्यायाम:-- उदर शक्ति विकासक क्रिया की दसों क्रियाएं डवेज है ।
आगे पीछे झुकने
वाली सुक्ष्म व्यायाम करानी है ।
आसन:-- सर्पासन, उर्ध्वहस्तोतानासन, कटिचक्रासन, उदराकर्षासन, पश्चिमोतानासन, सुप्तपवनमुक्तासन, नौकासन, चक्रासन, उष्ट्रासन, कागासन, मयूरासन, उतानपादासन -
नाभि के उपर सारा प्रेसर आता है।
स्थूल
व्यायाम - सर्वागपुष्टि, इंजनदौड़
प्राणायाम
-सुर्यभेदी, भस्त्रिका ।
म्ुाद्रा - विपरीतकरण्ी ,तडागी , उड्र्यानबंधा
आहार - हरी
पतेदार सब्जियां जैसे - साग, मेथी, चौलाई, पालक, बंधगोभी, बथुआ, नमकीन दलिया, मीठा दलिया, खीचड़ी-मुंग की दाल की।
अंकुरित आहार में
मूंग और चने, मोठ।
सलाद - टमाटर, खीरा, मूली -रफेज देता है।
कब्ज वाले को पानी ज्यादा पीना चाहिए। रोटी
ज्यादा, अरबी, भिंड़ी, टिण्डा घीया, तोरी $ भिंड़ी, मौसमी फल, जीमीकन्द (सूरन) -च्पसमे की बिमारी भी खत्म हो
जाएगी। रैता, छाछ इत्यादि।
पेट साफ करने के लिए - भ्नेा चवूकमतए इसबगोल की भूसी। या,
सौंफ $जीरा $ धानिया तीनों 10-10 ग्राम सुबह शाम खाना है।
33- गर्दन दर्द ( ब्मतअपबंस ेचवदकलसमजपे )
ब्मतअपबंस ेचवदकलसमजपे गर्दन की हड्डियों का
रोग है। इसके लक्ष्ण निम्नलिखित है -गर्दन, सिर, कंधों तथा पीठ के उपरी भाग में तनाव, दर्द एवं भारीपन, गर्दन की
मांसपेशियों में सुजन, चक्कर आना, गर्दन को मोड़ने में दर्द का अनुभव, एकाग्रता भंग
होना, अध्ययन में परेशानी।
कारण -
हमारी गर्दन में 7 हड्डियां होती है हड्डियों के ये गुटके एक दुसरे के उपर
व्यवस्थित होते है और इनमें प्रत्येक के बीच में एक खास दुरी होती है। कई अवस्थाओं
में जैसे - उम्र का बढ़ना, चोट लगना, अधिक गर्दन झुकाकर बैठना, मांसपेशियों में
तनाव आने से, गर्दन में अचानक झटका लगने से, वजन उठाने से, गरिष्ठ भोजन करने से, अधिक ऊँची तकिया लगाने से, धुम्रपान एवं
तम्बाकु के सेवन से, व्यायाम की कमी से, हड्डियों संबंधि कई रोग हो जाने से, तथा हड्डियों के
घिसने या बढ़ जाने की अवस्था में इन गुटकों के बीच की दुरी असामान्य हो जाती है
जिससे वहां से निकलने वाली तंत्रिकाओं पर दबाव पड़ने लगता है यह दबाव ही इस रोग के
लक्षणों को जन्म देता है। इनमें यदि प्रदाहयुक्त अवस्था है तो उसे बतअपबंस
ेचवदकपबंस तथा प्रदाह रहित अवस्था है तो उसे बतअपबंस ेचवदकपवसपजपे (स्पैड़िलाइटिस)
कहते हैं । तनाव युक्त वातावरण में लगातार काम करना ही इस स्थिति को जन्म देता है
।
34- कमर दर्द
लम्बर
स्पौंडिलाइटिस (कमर दर्द) यह कमर की हड्डियों का रोग है। आजकल इसके रोगी भी
बहुतायत से मिलते है। खासकर गृहड़ियां, घरेलू महिलाएं इससे अधिक पिड़ित रहती है।
लक्ष्ण:-- कमर तथा पैरों में दर्द तथा भारीपन, उपयुक्त स्थानों
पर तनाव, चलने में तकलीफ, तथा तनाव, आगे झुकने में तकलीफ़ होना, वजन उठाते दर्द
का अनुभव।
कारण -- हमारी कमर में 5 कशेरुकाएं होती है गर्दन की कशेरुकाओं के समान
ही इनके मध्य भी एक निश्चित दुरी होती है। उम्र बढ़ने कमर मेें चोट लगने, एकदम से गिर पड़ने, हड्डियों के
घिसने, बैठने के गलत तरिके से, मोटापा, मोेटे गदे पर सोने से,
सामने झुककर गलत तरीके से
वजन उठाना, शारिरिक दौर्बल्य, शारिरिक कमजोरी, लम्बी बिमारी या व्यायाम की कमी से इनके बीच की
दुरी असामान्य हो जाती है जिससे वहां से निकलने वाली तंत्रिकाओं पर दबाव पड़ने लगता
है इस दबाव के कारण लम्बर स्पौंडिलाइटिस (कमर दर्द) के लक्ष्ण उत्पन्न होने लगते
है।
कमर दर्द और
गर्दन दर्द की यौगिक चिकित्सा -
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, सुत्रनेति, जलनेति, कपालभाति।
सुक्ष्म
व्यायाम:-- ग्रीवाशक्ति विकासक, भुजबंद, भुजबली, पूर्णभुजबली, वक्ष स्थल शक्ति
विकासक, कटिशक्ति विकासक 1, 2, 4, 5
आसन:-- उतानपादासन, (पवनमुक्तासन -सायटिका में भी लाभकारी गर्दन
नहीं उठाएंगे)
नौकासन, नाभ्यासन, शलभासन, भुजंगासन, चक्रासन, मत्स्यासन, वज्रासन, उष्ट्रासन, सुप्तवज्रासन, उतानमंडुकासन, उतानकुर्मासन, शशांकासन -भगासन
लगाकर को आगे की तरफ़ खींचना है, गोमुखासन, अर्धमत्सयेन्द्रासन, कागासन 2-3 मिनट, पदमासन, उर्ध्वहस्तोतानासन, गरुड़ासन, कटिचक्रासन, ताडासन, विरासन ।
प्राणायाम:--
सूर्यभेदी - हृदय की बिमारी नहीं रहने पर, नाड़ीशोधान प्राणायाम ,
दीर्घश्वास का अभ्यास।
ध्यान --कमर या
गर्दन पर ध्यानस्थ होते हुए संबंधित दर्द का स्वच्छता सुझाव।
आहार - चीनी और
चिकनाई युक्त पदार्थों का वर्जन।
सावधानियां
- कमर एवं गर्दन दर्द की कुछ स्थितियों
में आगे झुकने वाली क्रियाएं एवं आसनों का अभ्यास वर्जित है। उछलने और दौड़ने की
क्रिया नहीं करनी है। सर्वांगासन, शीर्षासन अथवा सिर नीचे पैर उपर ऐसी स्थिति कमर
दर्द में मना की गई है। ठंडे खा़़द्यय पदार्थों का सेवन न करें तथा तकिया एवं मोटे
गदे का प्रयोग न करें ।
मेरुदंड क्रियाएं
एवं मेरुदंड व्यायाम बहुत जरुरी है।
मंत्र - हृं
(त्ींउ), हिृं (त्ीपउ)
35- वायु विकार या गैस बनना (हेंजतपब जतवनइसम)
भोजन के पश्चात जो वायु बनती है उसके अशुद्व हो
जाने से उसका अपान मार्ग में जाने से अवरोध हो जाता है और वायु उपर की ओर चली जाती
है इसे ही वायु विकार कहते है।
कब्ज या अपच के समान वायु विकार भी आजकल एक
सामान्य समस्या बन गई है। स्त्री -पुरुष, वृद्व और बालक सभी वायु विकार से पिड़ित नजर आते
हैं।
लक्ष्ण - 1- अपान मार्ग से वायु का अधिक निकलना, सिर दर्द, भारीपन, खटी डकारें, उबासी आना, पेट फुल जाना, पेट में आवाजें
आना, पेट में तनाव मालुम होना।
सायंकाल होते ही
उदासी या निराशा, स्वभाव में चिड़चिड़पन, कमर, पैर व मेरुदंड में दर्द का अनुभव, जी मिचलाना, छाती में जलन व
उल्टी आना, मुंह खटा होना तथा श्वास व मल से दुर्गंध आना, अनिद्रा, बेचैनी तथा
अशुद्व विचार आना, पेट व जोड़ों में दर्द होना।
कारण --इस रोग का
मुख्य कारण हमारे खाने पीने की गलत आदतें ही है। जल्दी-जल्दी खाना, गलत समय पर खाना, खाते समय अधिक
मात्र में पानी पी लेना तथा अधिक चटपटा एवं मिर्च मसाले युक्त भोजन लेने से वायु
विकार को बढ़ावा मिलता है। अति उष्ण एवं अति शीतल भोजन करने से ही यह स्थिति आती
है। मन में अशांति एवं चिढ़चिढ़ापन ही वायु विकार का सबसे बड़ा कारण है।
इस रोग के अन्य कारण है --
वायु प्रधान भोजन,भोजन को कम चबा कर खाना, चीनी युक्त दुध
पीना, अनियमित खानपान, चाय का अधिक सेवन, जला हुआ भोजन करना, पाचन शक्ति कमजोर होना,
रात्री में भोजन के तुरंत
बाद सो जाना, पारिवारिक कलह, मानसिक चिंता एवं अशांति, अधिक तले हुए एवं
मसालेदार चीजों का सेवन, दवाईयों का अधिक सेवन करना, अनियमित रहन सहन तथा नाभि स्थानांतरण।
रोग की रोकथाम
---
चने व अरहर की दाल तथा उनसे बनी हुई वस्तुओं
का सेवन कम करना। गरिष्ठ भोजन न करें जैसे - मैदे से बने हुए व्यंजन, सुखे मेवे, मिठाई। भोजन
पश्चात बाएं करवट वि़श्राम करें । भोजन के तुरंत बाद शयन के लिए न जाएं।
एक ही आसन में
अधिक देर न बैठें। प्रदुशित वातावरण से
बचें। मन शांत एवं स्थिर रखें ।
सुबह सुर्योदय से
पूर्व खुली हवा में टहलें।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, बाघी, शंखप्रक्षालन।
सुक्ष्म
व्यायाम:-- 1 से 5 तक श्वास प्रश्वास की क्रियाएं, उदर शक्ति विकासक, कटि शक्ति विकासक।
स्थूल
व्यायाम:-- सर्वांपुष्टि ।
सुर्यनमस्कार।
आसन - सुप्तपवन मुक्तासन, उतानपादासन, शलभासन, उष्ट्रासन, भुजंगासन, धनुरासन ,
बैठने वाले आसन:-- वज्रासन खाना खाने के बाद
जरुर करें। मंडुकासन, कुर्मासन, पश्चिमोतानासन, अर्धमत्सयेन्द्रासन, कागासन।
खडे़ होने वाले
आसन - उर्ध्वहस्तोतानासन, कटिचक्रासन, कोनासन, ताड़ासन।
प्राणायाम -
सूर्यभेदी, भस्त्रिका, नाडीशोधन
म्ांत्र -
रं (त्ींउ)
36- हार्निया
श्वास निकालने पर
ज्यादा ध्यान देना है।
यौगिक
चिकित्सा:--
षटकर्म:-- कुंजल, बाघी, शंखप्रक्षालन।
सुक्ष्म
व्यायाम:--1 से 5 तक श्वास प्रश्वास की क्रियाएं ं,उदर शक्ति विकासक ख् 5वीं कुंभक छोड़कर। सुर्यनमस्कार नहीं करना ह ।
आसन -- उडयानबंध, पेट पिचकाने वाले
आसन, ठतमंजीपदह म्गमतबपेम (कुभक नहीं) आगे झुकने वाले आसन करना है पीछे झुकने वाले
आसन नहीं करना है।
पश्चिमोतानासन, जानुशीर्षासन, मंडुकासन, वज्रासन, कुर्मासन, भूनमनासन, पवनमुक्तासन, मयुरासन, पृष्ठभुमि ताड़ासन, उतानपादासन, शलभासन, ख्उडियानबंध, जालंधर बंध, मूलबंध बिना
पदमासन लगाएं करें पदमासन लगाकर न करें।
प्राणायाम -
कुंभक छोड़कर सभी प्राणायाम
सावधानी -
भुजंगासन, उष्ट्रासन, सुर्यनमस्कार नहीं करना है।
37- कृमि दोष (ूवतउ
प्दजमेजपदम क्पेमेंम)
व्यक्ति के शरीर
में स्थित मलाश्य के अधिकता होने से उनमें विभिन्न प्रकार के किड़े जन्म ले लेते है
वहीं कीड़े विभिन्न प्रकार के रोगों के जड़ होेते है। कुछ कृमि के नाम इस प्रकार है
- तवनदक ूवतउएजंचम ूवतउएीववा ूवतउएजीतमंक ूवतउ ए चपद ूवतउण् कृमि के कारण व्यक्ति
का जीवन कभी कभी संचयात्मक कमजोरी हो जाती है। बहुत से कृमियों को देखा गया है कि
वह नाक और मुंह से बाहर निकलते है। शरीर विशेषज्ञों ने रक्त परीक्षण के बाद पाया
है कि जिन व्यक्तियों को कृमि रोग हुआ हो उन व्यक्तियों के रक्त में छोटे छोटे
कृमियों ने जन्म ले लिया होता है जिसके कारण उन्हे विभिन्न प्रकार के रोग हो जाते
है ।
लक्ष्ण-- वमन का
भाव होता है। पेट में दर्द होता है। चर्म रोग दिखाई देता है। शरीर क्रमशः पतला
होता चला जाता है। क्रोध और चिड़चिड़ापन होता है। आंखों में खुजलाहट। वायु विकार का
दोष, मल अत्यधिक होता है। भूख बहुत ज्यादा लगती है।
कारण -- जो लोग ज्यादा मिर्च मसाले खाते हैउनको कृमि
दोष होता है। सुअर के मांस खाने वालों को। जो व्यक्ति ज्यादा खुले मैदान में शौच
करने जाते है उन्हे इसका शिकार होना पड़ता है क्योंकि रोगी जब मल त्याग करता है तो
वहीं मल सुख जाने पर कृमि हवा में फैल जाते है और साथ साथ व्यक्ति के शरीर में चले
जाते है जिसे इस रोग का शिकार होना पड़ता है। जो व्यक्ति शौच करने के बाद हाथ मुंह
साफ नहीं करते उन्हे इस रोग का शिकार होना पड़ता है। शुद्व जल ग्रहण नहीं करने से
भी यह रोग होता है। पुराने रोगी के कफ़ में भी कभी कभी कीड़े उत्पन्न हो जाते है।
सावधानियां --
हमेशा साफ सुथरा रहना चाहिए। मल विसर्जन करने के बाद हाथों की और गुदा द्वार की
सफाई होनी चाहिए। नाखुन कटी होनी चाहिए। प्रतिदिन पेट साफ रहनी चाहिए। मांस, मछली, मीठा ग्रहण नहीं
करनी चाहिए। जिस भोजन के कारण होता है उसे नही खाना चाहिए जैसे -मादक पदार्थ, चावल, आलु, चुकन्दर, चोकर रहित आटा।
पानी शुद्व उबालकर पीना चाहिए।
वर्षात मे बाहर
की कोई वस्तु नहीं खानी चाहिए।
यौगिक निदान --
षटकर्म:-- कुंजल, बाघी, शंखप्रक्षालन, वस्ति।
सुक्ष्म
व्यायाम:--उदर शक्ति विकासक की दसों क्रियाएं। कटि की पांचों क्रियाएं ।
स्थुल व्यायाम -
सर्वागपुष्टि, सूर्यनमस्कार।
आसन -
मत्सयेन्द्रासन, अर्धमत्सयेन्द्रासन, पश्चिमोतानासन, जानुशीर्षासन, सर्वांगाासन, धनुरासन, मंडुकासन, उष्ट्रासन, मत्स्यासन, चक्रासन, शलभासन, कुर्मासन, कटिचक्रासन, भुजंगासन, गर्भासन।
मुद्रा --
महामुद्रा, उडयानबंध।
प्राणायाम --
सूर्यभेदी, भस्त्रिका, नाडीशोधन प्राणायाम।
38- कील मुहासे
(च्पउचसमे)
साधारणतः चेहरे पर छोटे छोटे फुंसियां या फोड़े
दिखाई देते है उन्हें कील मुहासे कहते है । स्त्री पुरुष की यौवनावस्था में अधिक
दिखाई देता है।
लक्ष्ण:--- रक्त
के विशुद्व होने के कारण किल मुंहासे होता है। यौवनावस्था के प्रारंभ में स्त्री
पुरुष के शरीर में पिटयूटरी अैार थायराइड ग्रंथियां विशष रुप से सक्रिय हो जाते है
क्योंकि उसी समय प्रकृति शरीर को भविष्य में माता पिता बनाने की आधाारशिला बनाते
है। उस समय पिटयूटरी और थायराइड गलैंड एड्रिनल ग्लैंड को आदेश देते है कि सेचुवल
ग्लैंड को सक्रिय बनाएं। इसके फलस्वरुप 12 से 14 वर्ष स्त्री और पुरुषों में 15-17 वर्ष यौवनावस्था
में प्रदार्पण करते है। पुरुषों में वीर्य एवं स्त्रीयों में रज की सृष्टि होती
है। यहीं वीर्य एवं रज के उतेजना के समय इन्द्रियों से बाहर निकल आते हैं यहीं
वीर्य एवं रज शरीर से ठीक ढ़ंग से बाहर नहीं निकले तो वहीं रक्त को विशाक्त कर देते
है क्याेंकि अतिरिक्त रज एवं वीर्य शरीर स्थित पित के साथ मिलकर खुन को खराब कर
देता है और यहीं खुन मस्तिष्कगामी जब होता है उस समय चेहरे के त्वचा पर फोडे फुंसी
के रुप में बाहर निकल आते है इसे ही हम पिम्पल्स कहते है । तैलिय त्वचा में कील
मुंहासे ज्यादा निकलते है, क्योंकि चेहरे में जमा तेल रोम कुप से बाहर नहीं निकल पाता
उसे रोम कुप की जडों में फुंसी के आकार में सुज जाती है।
कारण --- ज्यादा प्रसाधन संबंधि सामग्री चीजें इस्तेमाल
करने से क्योंकि यह प्रसाधन संबंधि रोम कुप को बंद कर देती है इसके कारण चेहरे पर
कील मुंहासे दिखाई देते है। पुरानी कब्ज के कारण और ज्यादा चाय, काफी, मिर्च मसाले
ज्यादा लेने से।
सावधानियां
-- ज्यादा चाय काफी नहीं लेना चाहिए।
नित्य प्रतिदिन मलाशय शुुद्व रखना चाहिए जिनके चेहरे की त्वचा अधिक तैलिय होती है
उन्हे अतिरिक्त मीठा और प्रोटीनयुक्त चीज लेना मना है। चाय, काफी, मादक द्रव्य न
लें मिर्च मसाले तला हुआ भोजन हानिकारक है।
ज्यादा प्रसाधन
सामग्री का उपयोग वर्जित है जिनके चेहरे पर पिम्पल्स है वो चेहरे की मालिस न करें।
मुंह को 3-4 बार ठंडे पानी से धाोएं। अतिरिक्त यौन संभोग मना है। यदि
पिम्पल्स हो जाते है उस समय उसको हाथ से दबाएं नहीं।
उपचार -- मलकामसुर लाल वाली की दाल को रात में पानी में
या दुध में भिगोकर उसे अच्छी तरह से पीसकर चेहरे पर दिन में दो बार लगाऐं। जिन व्यक्तियों
को पिम्पल्स हो जाते है वो नींबू का रस लगाकर कुछ क्षण बाद ठंडे पानी से धो लें।
रात में सेाने से पूर्व शवेत चंदन का लेप चेहरे पर लगाकर सो जाएं। चेहरे को दिन
में 5 -6 बार पानी से धोना चाहिए। संतरे के छिलके को सुखाकर चेहरे पर लगाने से चेहरा
सुन्दर बन जाता है। दुध से नहाने से व्यक्ति गोरा होता है। जिन व्यक्तियों को दाग
पड गए है वो जायफल को घिसकर चेहरे पर लगाकर सोने से जो पिम्पलस होते है वो दब जाते
हैं।
उपचार
---षटकर्म:-- शोधन की पुरी क्रिया
'श्वास प्रश्वास की आठ क्रियाएं, कपोलशक्ति, उदरशक्ति, सर्वांगपुष्टि, सूर्यनमस्कार।
आसन
---पश्चिमोतानासन, जानुशीर्षासन, उष्ट्रासन, मत्सयासन, चक्रासन, भुजंगासन, मयूरासन, सिंहासन, भुनमनासन, पादहस्तासन, योगासन, शीर्षासन।
मुद्रा --
महामुद्रा , उडयानबंध ,विपरितकरण्ी।
प्राणायाम --
शीतली, शीतकारी,उज्जायी, नाडीशोधन प्राणायाम ।
बरगद का दुध मुॅह में नित्य मलने से झाईयॉ दुर हो जाती
है।
39- गठिया
(ळवनज)ए ख् जोड़ों का दर्द ।तजीतपजपे,
1- रीमेटाइड आर्थराइटिस, 2- आस्टियो आर्थराइटिस
साधारणतः गठिया
एक प्रकार का जोड़ों का दर्द है। शरीर में निर्मल हड्डियों के संधि स्थान में यदि
दर्द होता है रोग के प्रारंभ में भिन्न-भिन्न स्थान में दर्द होता है और धीरे-धीरे
उक्त संधि स्थान क्रिया रहित हो जाती है इसमेंं मोटापा एक कारण है जिस स्थान में
गठिया होता है उस स्थान मेे असहाय दर्द होता है। गठिया विभिन्न प्रकार का होता है।
रीमेटाइड
आर्थराइटिस - सायनोवियम फुल जाता है और मोटा हो जाता है। और अधिक मात्र में तरल बन
जाता है इसी तरल के अधिक मात्र में बनने के कारण कड़ापन हो जाता है और दर्द होता
है। रीमेटाइड आर्थराइटिस अत्यधिक कलाई, अंगुली और पैरों में होता है। उसके बाद और जगह
फैलता है। सुबह में यह अधिक होता है। महिलाओं में अधिक होता हैं। तीन महिला = 1 उंसमण्
जोड़ों में दर्द
जैसे -अंगुलियों के दर्द, गर्दन के पास जोड़ों में दर्द, टखनों के जोड़ों में दर्द, इन जोड़ों में
पहले दर्द होता है भिन्न भिन्न संधि स्थान, मांसपेशियों पर, धीरे धीरे हृदय पर भी अधिकार कर लेता है। हृदय
पर इस रोग के होने से रोगी की जीने की संभावना कम हो जाती है। इसके द्वारा हृदय की
मांसपेसियों की कार्यक्षमता कम हो जाती है।
आस्टियो
आर्थराइटिस -- हड्डियों के आस पास
कार्टिलेज या अन्य उतकों के टुट फ्रुट से होता है। यह रोग साधारणतः विश्ेाष स्थानों
में होता है। घुटनों का जोड़, कंधो का जोड़, इस रोग के होने के पश्चात उन्ही विशेष स्थानों
में दर्द होता है कुछ दिनों के पश्चात इनमें सुजन आ जाती है जिससे वह गति रहित हो
जाती है यह रोग अधिकतर महिलाओं को ही मध्य आयु में होता है।
यह रोग अधिक भोजन
करने वालो जैसे - मांस, मछली, अंडा ऐसा भोजन करने के पश्चात उन पदार्थों को
पचाने के लिए शरीर मे जेा एन्जाइम होते है वह अधिक बनते है। एन्जाइम अधिक
होने के कारण वह रक्त में मिल जाते है और
रक्त संचालन होने के समय वहीं टांक्सिन जम जाता है। युरिक एसिड संधि स्थानों में
जम जाते है यह अधिकतर मोटे लोगों को होता है जो अधिक धुम्रपान करते है उन्हे गठिया
रोग हो जाता है। ज्यादा चाय काफी, मादक द्रव्यों का सेवन करने वालों को होता है।
उड़द की दाल, रजमा , चावल, भिंडी, कचालू, मांस मछली का सेवन वर्जित है।
यौगिक
उपचार:-- जिस अंग में गठिया का रोग है उसे
अधिक से अधिक चलाना चाहिए। दर्द होने पर भी रोगी का स्वभाव ऐसा होता है कि जहां
दर्द होता है वहां हिलाना नहीं चाहता इससे रोग बढ़ता है।
षटकर्म:-- कुंजल, बाघी, शंखप्रक्षालन, वस्त्रधौति।
सुक्ष्म
व्यायाम:-- ग्रीवाशक्ति विकासक, स्कंद तथा
बाहुमुल शक्ति विकासक, भुजबंद शाक्ति विकासक, भुजबली शाक्ति विकासक,
कोहनी शक्ति विकासक, मणीबंधा शक्ति
विकासक, करपृष्टशक्ति विकासक अंगुली शक्ति विकासक, जंघा शक्ति विकासक, जानु शक्ति विकासक, पादमुल शक्ति विकासक बिना उछले।
स्थुल व्यायाम -
सर्वागपुष्टि, उर्ध्वगति।
स्ुार्यनमस्कार।
आसन - पदमासन, पदमासन वाला आसन
वज्रासन, भुजंगासन, कोनासन, कटिचक्रासन, सुप्तवज्रासन, उतानकुर्मासन, उतानमंडुकासन,पादांगुष्ठासन ।
मुद्रा --
महामुद्रा, महाबंध।
प्राणायाम
--नाड़ीशाोधान प्राणायाम।
जिस जोड़ में
ज्यादा दर्द हो उसके आसन ज्यादा करने है।
अर्थरायटिस में
ज्यादा दर्द होने पर पदमासन नहीं कराया जाता है जिस जोड़ में ज्यादा दर्द हो उसको
डवअमउमदज करते है।
गठिया में तारपीन
तेल $ कडुआ तेल बराबर मात्र में पकाकर उपयोग करें।
गठिया में तारपीन
तेल$ कड़ुआ तेल $ मिटी का तेल बराबर मात्र में पकाकर उपयोग करें।
शीर्षासन नहीं
करना है- भ्ण्ठण्च्ण्ए ह्रदय रोगियों, अस्थमा, हाइड्रोसिल, हार्निया।
स्ुार्यनमस्कार
नहीं करना है- भ्ण्ठण्च्ण्ए ह्रदय रोगियों, अस्थमा, हाइड्रोसिल, हार्निया।
मत्स्यासन नहीं करना है- -- ठण्च्ण्एभ्ण्ठण्च्ण्ए ह्रदय
रोगियों, हार्निया के लोग जबरजस्ती न करें।
घनुरासन नहीं
करना है- भ्ण्ठण्च्ण्एह्रदय रोगियों ,हार्निया के लोग न करें ं।
वृक्षासन -
भ्ण्ठण्च्ण्ए ह्रदय रोगियों, सिर दर्द, कमर दर्द (सर्वाइकल) वालों को मना है।
गरुड़ासन -टेडा
पैर वाले न करें।
सूर्यभेदी
प्राणायाम -- ह्रदय की बिमारी नहीं रहने
पर करना है।
अल्सर -- पीछे झुकने वाले, उछलने वाले आसन न करें। नौली, कुंभक, पंपिंग की क्रिया, मंडुकासन बिल्कुल
नहीं करना चाहिए।
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