प्राणायाम
प्राणायाम क्या
है ?
प्राणयाम अर्थात
प्राण की स्वभाविक गति विशेष रुप से नियमित करना । --पतंजली
प्राणायाम से लाभ
-- चित शुद्व होता है एवं एकाग्रता आती है। स्मरण शक्ति एवं धाारणा शक्ति में
वृद्वि होती है। मानसिक कार्य करने वाले, आत्मोनति के इच्छुक और विद्याथियों के लिए
प्राणायाम अति उत्तम है। चर्म रोग, रक्त शुद्व होता है। कंठ से संबंधित रोग -
ग्वाइटर, कंठमाला, टांसिल आदि दुर होते है। कफ , धातु संबंधि रोग, गठिया, क्षय, तपेदिक, खांसी, ज्वर प्लीह, क्ष्उच्च रक्त चाप, हृदय रोग - कुंभक नहीं द्व, एसीडिटी, अल्सर, मस्तिष्क विकृति, वात, पित, कफ, नासिका एवं वक्ष स्थल से संबंधित रोग ,मानसिक तनाव दुर
होता है। शरीर शुद्वी के लिए जिस प्रकार स्नान की आवश्यकता है उतनी ही मन शुद्वी
के लिए प्राणायाम की आवश्यकता है।
1- नाड़ीशेधन प्राणायाम या अनुलोम विलोम
2- सुर्यभेदी प्राणायाम
3- उज्जायी प्राणायाम
4- सीत्कारी प्राणायाम
5- शीतली प्राणायाम
6- भस्त्रिका प्राणायाम
7- भ्रामरी प्राणायाम
8- मुर्छा प्राणायाम, केवली या प्लावनी
1- नाड़ीशोधन प्राणायाम या अनुलोम विलोम
ख् बाएं नासारंध्र से बिना आवाज के श्वास लेकर
दाएं से बिना आवाज के निकालें। पुनः दाएं से श्वास लेकर बाएं से निकालें। अब एक
चक्र पुरा हो गया।
प्राणायाम सिद्व होने के लिए या उसका अधिकाधिक
लाभ लेने के लिए शरीर अन्तर्गत सुक्ष्म नस नाड़ियों का शुद्व होना आवश्यक है
क्योंकि सामान्यतः यह नाड़ियां मल से भरी रहती है। और मल से व्याप्त नस नाड़ियों की
श्ुाद्वी पश्चात प्राणायाम के विभिन्न प्रकारोें का अभ्यास सहज हो जाता है और उसके
अधिक से अधिक लाभ प्राप्त होता है। इसलिए नाड़ीशोधान प्राणायाम को अन्य प्राणायामों
की अपेक्षा प्राथमिकता दी गई है।
विधि:-- सर्वप्रथम पदमासन में स्थित होकर कमर
गर्दन सीधी तथा दृष्टि सम रहे। दोनों हाथों को अंजली मुद्रा में नाभि के पास
तत्पश्चात दाहिने हाथ की अनामिका और मध्यमा, अंगुठा से मुद्रा बनाकर नासिका पर स्थित करें।
अंगुठे से दाएं नासारंध्र को बंद कर बाएं नासारंध्र से बिना आवाज किए धीरे- धीरे
श्वास का पुरक करें। पुरक करते समय धीरे-धीरे श्वास के साथ पेट फुलाते है तथा
मुलबंध एवं जालंधर बंध लगाकर आंखें बंद कर दाहिने हाथ को अंजली मुद्रा में नाभि के
पास लाते है और श्वास का कुंभक करते है। श्वास न रोक पाने की स्थिति में पुनः दाएं
हाथ की मुद्रा बनाकर नासिका पर स्थित करते है। जालंधर बंध हटाते है मुलबंध को ढ़ीला
छोड़कर आंखें खोलें अनामिका तथा मध्यमा अंगुलियों से बाएं नासारंध्र को बंद कर दाएं
नासारंध्र से बिना आवाज किए श्वास का रेचन करते है। रेचन करते समय श्वास के साथ ही
उडयान बंध लगाते हैं। पुनः उपरोक्त विधि से विपरित नासारंध्र से इसका अभ्यास करें।
इस विधि से प्राणायाम का एक चक्र पुर्ण होता है।
लाभ:-- मल से व्याप्त नाड़ियों में प्राण का
प्रवाह सुचारु रुप से नहीं हो पाता, ऐसे में प्राणायाम की सिद्वी कैसे होगी। यह
प्राणायाम चर्म रोग के लिए सर्वश्रष्ठ माना गया है। इसके नियमित अभ्यास से रक्त
शुद्व होता है। शरीर कांतिमय हो जाती है।
सावधानी - इस प्राणायाम के अभ्यास में कुंभक का
अभ्यास उच्च रक्त चाप तथा हृदय रोगियों के लिए उपयुक्त नहीं है। अतः उच्च रक्त चाप
तथा हृदय रोगियों, दमा के रोगियों को नाडिशोधन के अभ्यास में कुंभक नहीं करना
चाहिए।
बाएं नासारंध्र से प्रारंभ कर दाएं नासारंध्र
से पुर्ण करने पर ही एक चक्र पुर्ण होता है। प्राणायाम का अभ्यास स्वच्छ वातावरण
में तथा दैनिक दिनचर्या से मुक्त होकर खाली पेट करें।
2- सुर्यभेदी प्राणायाम:--
ख्दाएं नासारंध्र से बिना आवाज के श्वास लेकर
बाएं से बिना आवाज के धीरे धीरे निकालें।
सूर्य का अर्थ है रवि या दायां नासारंधा। इस
प्रणायाम में सूर्य स्वर पिंगला नाड़ी के अर्थात् दाहिनी नासारंध्र्र से सदैव पुरक
करते है जो उष्मा युक्त है और चन्द्र स्वर यानि इड़ा नाड़ी अर्थात बाएं नासारंध्र से
रेचक करते हैं बार-बार सूर्यस्वर से पुरक करने के कारण उसे सूर्यभेदी प्राणायाम कहते
हैं।
विधि:--
सर्वप्रथम पदमासन में स्थित होकर कमर गर्दन सीधी तथा दृष्टि सम रहे। दोनों
हाथों को अंजली मुद्रा में नाभि के पास तत्पश्चात दाहिने हाथ की अनामिका और मध्यमा, अंगुठा से मुद्रा
बनाकर नासिका पर स्थित करें। हाथ की मध्यमा एवं अनामिका अंगुली की सहायता से बाएं
नासारंध्र को बंद करते हुए दाहिने नासारंध्र से बिना आवाज के धीरे-धीरे श्वास का
पुरक करते है। पुरक करते समय पेट फुलावें पुरक के उपरांत मुलबंध तत्पश्चात जालंधर
बंध लगाकर पलकें बंद करते हैं तथा दाहिने हाथ को पुनः अंजली मुद्रा में स्थित करते
है। यथाशक्ति अथवा अनुपात अनुसार श्वास का कुंभक करते है। श्वास न रोक पाने की
स्थिति में पुनः दाहिने हाथ की मुद्रा बनाते हुए नासारंध्रों के समीप लाते हुए
जालंधर बंध हटा दें और मुलबंध को ढ़ीला छोड़कर आंखें खोलते हुए दाएं नासारंध्र को
बंद कर बांए नासारंध्र से धीरे धीरे बिना आवाज के श्वास का रेचक करते हैं। श्वास
निकालते समय पेट को अंदर ले जाते हुए उडयान बंध लगाते हैं। इस प्रकार सुर्यभेदी
प्राणायाम का एक चक्र पुर्ण होता है। यथाशक्ति उपरोक्त विधि से इस प्राणायाम का
अभ्यास करें।
लाभ -- सुर्यभेदी प्राणायाम कपाल का शोधान करने
वाला है। कफ और वात से उत्पन्न सम्पन्न रोगों का नाश करने वाला है। इसके निरंतर
अभ्यास से पेट में कृमि नहीं रहतें अर्थात कृमि रोगियों के लिए सवर्श्रेष्ठ
प्राणायाम है। सुर्यभेदी प्राणायाम के
अभ्यास से बुढ़ापा पर विजय प्राप्त होती है। मस्तिष्क शुुद्व होता है। कुंडलिनी
शक्ति जागृत होती है। जठराग्निी प्रदीप्त होती है। शरीर में उष्णता आती है। यह
प्राणायाम चर्म रोगों में विशष लाभकारी है तथा इसके निरंतर तथा सविधि (सही तरीके
से) अभ्यास से वात संबधि रोग तथा गठिया रोगों से निवृति मिलती है।
सावधानी - 1- यह प्राणायाम दमा के रोगियों के लिए उत्तम है। किन्तु ऐसे रोगियों को कुंभक का
अभ्यास नहीं करनी चाहिए ।
2-
उच्च रक्त चाप, हृदय रोगियों तथा
मानसिक रोगियों को इसका अभ्यास नहीं करनी चाहिए।
पित प्रधान व्यक्तियों अर्थात् भ्लचमत ंबपकपजलए
अल्सर, पीलिया से ग्रसित व्यक्तियों को मना है।
3-
उज्जायी
प्राणायामः--
(दोनों नासारंध्रों से बिना आवाज के श्वास का पुरक करके बाएं
नासारंध्र से बिना आवाज के धीरे-धीरे श्वास का रेचन करें।
उज्जायी का अर्थ है विजय प्राप्त करना। इस
प्रणायाम के अभ्यास से साधक कठिन अभ्यास
की ओर अग्रसर होता है। इसलिए इसे उज्जायी प्राणायाम कहते है।
विधि:-- सर्वप्रथम पदमासन में स्थित होकर कमर गर्दन
सीधाी तथा दृष्टि सम रहे। दोनों हाथों को अंजली मुद्रा में नाभि के पास रखें।
दोनों नासारंध्रों से बिना आवाज के धीरे-धीरे श्वास का पुरक करें। पुरक उपरान्त
मुलबंध और फिर जालंधार बंध लगाएं तथा पलकें बंद करें। यथाशक्ति अथवा अनुपात अनुसार
श्वास का कुंभक करें। श्वास न रोक पाने की स्थिति में दाहिने हाथ की प्राणायाम
मुद्रा अर्थात् दाहिने हाथ की अनामिका, मध्यमा एवं अंगुठा से मुद्रा बनाकर नासारंध्र
पर स्थित करें। जालंधर बंध हटाते है मुलबंध को ढ़ीला छोड़कर आंखें खोलें। तत्पश्चात
दाई नासारंध्र को हाथ के अंगुठे से बंद कर बाएं नासारंध्र से बिना आवाज के धीरे
धीरे श्वास का रेचन करें। श्वास के रेचक के पश्चात उडयान बंध लगाएं। इस प्रकार
उज्जायी प्राणायाम का एक चक्र पुर्ण होता है।
लाभ:-- कंठ से
संबंधित रोग जैसे ग्वाइटर, कंठमाला, टांसिलायटिस आदि रोग दुर होते है। कफ की निवृति
होती है जठरागिनी प्रदीप्त होती है नाड़ी समुहों की विकृति दुर होती है। धातु
संबंधि रोग, गठिया, क्षयरोग, तपेदिक आदि दुर करने में सहायक है। खांसी, ज्वर, प्लीहा पर अच्छा
प्रभाव पड़ता है। गुप्त रोगों के लिए अच्छा है। अखंड ब्रम्हचर्य की रक्षा होती है।
कुंडलिनी शक्ति की जागृति होती है। जरा और मृत्यु पर विजय पाते है।
सावधानी -- भ्ण्ठण्च्ण्ए हृदय रोगियों, दमा से पिड़ित
व्यक्ति को कुंभक का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
4-
सीत्कारी
प्राणायाम -- क्ष्ज्ममजी ळंचेद्व
प्राणायामक
अन्तर्गत श्वास का पुरक मुख से सीत्कार ध्वनि के साथ करते है इसलिए इसका
नाम सीत्कारी प्राणायाम रखा गया है।
विधि - पदमासन
में स्थित होकर कमर गर्दन सीधाी दृष्टि सम तथा दोनों हाथों को अंजली मुद्रा में
नाभि के पास रखते है। सामने देखते हुए मुख की दोनों दंत पंक्तियों को आपस में
मिलाते हैं। जिहवा को तालु में लगाकर रखें तथा मुख को खुला रखते हुए जममजी हंचे से
सित्कारी धवनि के साथ धीरे-धीरे मुख से श्वास का पुरक करें। पुरक के साथ साथ पेट
फुलाते हैं। पुरक के उपरान्त मुलबंध और जालंधर बंध लगाते हुए आंखें बंद करें।
यथाशक्ति या अनुपात अनुसार श्वास का कुंभक करें। 'वास न रोक पाने की स्थिति में जालंधार बंधा
हटाते हुए आंखें खोलें तथा मुलबंध को ढ़ीला छोड़ते हुए धीरे धीरे दोनों नासारंध्रों
से श्वास का रेचक करें। श्वास का रेचक करते समय आवाज नहीं आनी चाहिए। रेचक के
पश्चात उडियान बंधा लगाएं। इस प्रकार इस प्राणायाम का एक चक्र पुर्ण होता है।
लाभ --
इसके अभ्यास से साधक प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। अर्थात् सृष्टि
और संहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके साथ साथ वह भुख प्यास एवं निद्रा तथा आलस्य
पर अधिकार प्राप्त कर लेता है। गर्मी से उत्पन्न विभिन्न रोग जैसे - उच्च रक्त चाप, एसीडीटी, अतिएसिडीटी, अल्सर, मस्तिष्क विकृति आदि दुर हाते है। यकृत, प्लीहा क्रियाशील
हो जाते है। मुख से दुर्गंध आना, दांतों का रेाग दूर होता है तथा रक्त शुद्व हो
जाता है।
सावधानियां --1- कफ प्रकृति वाले
रोगी, दमा, श्वसनी दमा, ब्रान्काइटिस, जुकाम आदि रोगी के लिए मना है।
उच्च रक्त चाप, ह्रदय रोगी से
पीडित व्यक्ति को कुंभक का अभ्यास की वर्जना है।
ठंढे प्रदेशों
में इसका अभ्यास नहीं कराया जाता ।
5- शीतली (जिहवा को
मुख से बाहर निकालकर )
योगशास्त्र में शरीर को शीतल बनाने के लिए जिस
प्रकार का उल्लेख है उसे शीतली प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम के अन्तर्गत
जिहवा को नली का आकार देते हुए मुख से बाहर निकालकर सी-सी के आवाज के साथ शवास का
पुरक करें। फलस्वरुप पुरा शरीर ठंडा हो जाता है।
विधि --
पदमासन में स्थित होकर कमर गर्दन सीधी दृष्टि सम तथा दोनों हाथों को अंजली
मुद्रा में नाभि के पास रखते है। तत्पश्चात जिहवा को मुख से बाहर निकालकर दोनों
किनारों से मोड़ते हुए नली का आकार दे दें। तथा जिहवा से ही श्वास का पुरक आवाज के
साथ करें। पुरक पश्चात जिहवा को मुख के अंदर रखते हुए मुलबंध तथा जालंधर बंध लगाते
हैं तथा आंखें बंद करते हैं यथाशक्ति अथवा अनुपात अनुसार श्वास का कुंभक करें।
श्वास न रोक पाने की स्थिति में जालंधर बंध हटाते हुए आंखें खोलते हैं मुलबंध ढीला
छोड़ते है एवं दोनों नासारंध्रों से बिना आवाज के श्वास का रेचक कर देते हैं। जैसे
जैसे श्वास का रेचक करते हैं पेट अन्दर की तरफ चला जाए और अन्ततः उडयानबंध लगे।
उपयुक्त विधि से यथाशक्ति इस प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।
लाभ --
इस प्रणायाम के अभ्यास से वायु का पलीहा, ज्वर, पित का रोग दुर हो जाता है। भुख प्यास के उपर
अधिकार पा लेते है। इस प्रणायाम के अभ्यासी के शरीर में विष, जहर का प्रभाव
नहीं डालता। इस प्रणायाम के अभ्यास से
सौदर्य की वृदि होती है। इस प्रणायाम के अभ्यासी को अपनी त्वचा के बदलने तथा जल
एवं अन्न के रहने की शक्ति प्राप्त होती है। शरीर में शीतलता आ जाती है।
पित रेाग, अम्ल रोग, अजीर्ण (अपच, आदि रोग दुर होते है।
सावधानी - उच्च रक्तचाप तथा ह्रदय रोगी को
शीतली का अभ्यास नहीं करना चाहिए ।
ठंढे स्थानों में इस प्राणायाम का अभ्यास
नुकसानदायक है। कफ प्रकृति वाले व्यक्तियों को इस प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना
चाहिए ।
6- भस्त्रिका प्राणायाम
भस्त्रिका प्राणायाम के अभ्यास काल में पुरक और
रेचक भस्त्र अर्थात् लोहार के धौकनी के समान ध्वनि करते हुए करते है। इसलिए इसे
भस्त्रिका कहते है।
विधि -- पदमासन में स्थित होकर कमर गर्दन सीधी
दृष्टि सम तथा दोनों हाथों को अंजली मुद्रा में नाभि के पास रखते है। तत्पश्चात
दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली तथा अंगुठे से मुद्रा बनाकर नासारंध्र के समीप
लाएं। तत्पश्चात किसी भी नासारंध्र से
ध्वनि के साथ वेगपुर्वक श्वास का रेचक करें। रेचक के पश्चात पुनः उसी नासारंध्र से
ध्वनि के साथ वेगपुर्वक श्वास का पुरक करें। पुरक करते हुए बिना कुंभक किए विपरीत
नासारंध्र से उपरोक्त क्रिया दोहरा दें। इस प्रकार 20-25 बार जल्दी जल्दी अभ्यास करें। घ्यान रहे कि
रेचक करते समय पेट अन्दर की ओर जाए तथा पुरक करते समय पेट बाहर हो। श्वास प्रश्वास
के साथ ही पेट की गति होनी चाहिए। तब उपरान्त बाएं नासारंध्र को बंदकर दाहिने
नासारंध्र से बिना आवाज के श्वास का पुरक करें। पुरक के साथ ही पेट फुलाएं और
मुलबंध, जालंधार बंध लगाते हुए आंखें बंद करें तथा दाहिने हाथ को भी नाभि के समीप
अंजली मुद्रा में रखें। यथाशक्ति अथवा अनुपात अनुसार श्वास का कुंभक करें। श्वास न
रोक पाने की स्थिति में पुनः दाहिने हाथ की मुद्रा बनाते हुए नासारंध्र के समीप ले
आएं। जालंधर बंध हटाएं मुलबंध को ढीला छोडकर आंखें खोलें तथा दाएं नासारंध्र को
हाथ के अंगुठाेंं से बंद करते हुए बाए नासारंध्र से बिना आवाज के श्वास का रेचक
करें। रेचन काल में उडियानबंध लगाएं। उपरोक्त विधिपुर्वक यथाशक्ति इस प्राणायाम का
अभ्यास करें।
लाभ -- तेज वायु के आघात से कुंडलिनी शक्ति की
जागृति होती है एवं ब्रम्हनाडी अर्थात सुषुम्ना नाडी मल रहित हो जाती है। फलस्वरुप
कुंडलिनी शक्ति सुखपुर्वक षटचक्रों का भेदन करते हुए ब्रम्हरन्ध्र में शिव से जाकर
मिलती है। इसलिए भस्त्रिका प्राणायाम को कुंडलिनी के जागृत होने में प्रत्यक्षरुप
से माना गया है। इस प्राणायाम के अभ्यास से त्रिदोश अर्थात् वात, पित, कफ दुर होता है।
नासिका एवं वक्ष स्थल से संबंधित रोग दुर होते है। शरीर को उष्णता प्रदान करता है।
दमा, श्वसनी दमा, ब्रान्काइटिस आदि दुर होते है। निम्नरक्तचाप के रोगियों के
लिए उपयुक्त है।
सावधानी - आवृतियों की संख्या साधक की शक्ति के
अनुकुल होनी चाहिए। उच्च रक्त चाप तथा ह्रदय रोगियों के लिए यह प्राणायाम वर्जित
है।
7- भ्रामरी प्राणायाम
(दोनों
नासारंध्रों से पहले पूरक फिर दोनों नासारंध्रों से रेचन करे भ्रमर जैसा।)
भ्रामरी शब्द का
अर्थ मधुमखियों की भनभनाहट अर्थात भृगि से लिया गया है। इस प्रणायाम में पुरक
भ्रमर की आवाज में एवं रेचक भ्रमर की आवाज में करते हैं। इसलिए इसे भ्रामरी
प्राणायाम कहा गया है। इस तरह आवाज के साथ आवाज करने से योगियों का चित आनंदमयी हो
जाता है। जिसका वर्णन करना असंभव है।
विधि ---
पदमासन में स्थित होकर कमर गर्दन सीधी दृष्टि सम तथा दोनों हाथों को अंजली
मुद्रा में नाभि के पास रखते है। तत्पश्चात दोनों नासारंध्रों को भ्रमर जैसा शब्द
करते हुए श्वास का पुरक करते है। पुरक के साथ पेट बाहर की ओर फुलाएं। मुलबंध जालंधर बंध लगाते हुए अांखें बंद करें ।
यथाशक्ति अथवा अनुपात अनुसार श्वास का कुंभक करें। श्वास न रोक पाने की स्थिति में
जालंधर बंध हटाकर मुलबंध को ढीला छोडतेे हुए आंखें खोलें तथा दोनों नासारंध्रों से
भ्रमरी जैसे शब्द के साथ रेचक करें। रेचक के समय उडियानबंध लगाएं। इस प्रकार इस
प्राणायाम का एक चक्र पुर्ण होता है।
लाभ -- मन में शांति एवं एकाग्रता आती है। कंठ
में मधुरता आती है। गायक कलाकारों के लिए यह प्राणायाम बहुत अच्छा है। रक्त दोष
दुर होते है। उच्च रक्तचाप, ह्रदय रोग एवं मानसिक तनाव दुर करने में सहायक है। इसके
अभ्यास से मन विषयों से रहित हो जाता है। इस प्राणायाम के अधिक अभ्यास से ऊँकार की
ध्वनि स्वतः ही सुनाई देने लगती है एवं समाधि की अवस्था प्राप्त होती है।
सावधानी ---- उच्च रक्त चाप, ह्रदय रोगी तथा
दमा से पीडीत रोगियों को कुंभक का अभ्यास नहीं कराते।
8- मुर्छा प्राणायाम, केवली या प्लावनी
केवली प्राणायाम
दो तरह के -- 1 सगर्भ 2 निगर्भ।
सगर्भ -- बीज मंत्र जैसे ऊँ के
साथ किया गया अभ्यास प्राणायाम।
निगर्भ -- बीज
मंत्र से रहित अभ्यास निगर्भ प्राणायाम।
एक सामान्य
व्यक्ति 24 घंटों में 21600 बार श्वास लेता है। श्वास बाहर निकालने पर हं की आवाज होती
है। श्वास अंदर लेते समय स की आवाज होती है।
श्वास निकालना और
श्वास लेना हंस हो जाता है।
हं शिव को कहते
है। स शक्ति को कहते हैं।
कुंभक -सहित
कुंभक, केवल कुंभक
सहित कुंभक में
पुरक और रेचक किया जाता है।
केवल कुंभक में
केवल कुंभक किया जाता है पुरक अैार रेचक नहीं किया जाता।
मुर्च्छा
प्राणायाम --इस प्राणायाम के अभ्यास से रेचन के पश्चात साधक को मुर्च्छा की स्थिति
हो जाती है, उस प्रणायाम का नाम मुर्च्छा प्राणायाम है। मुर्च्छा का
अर्थ है - बेहोशी।
जब साधक पूर्व
वर्णित सभी या किसी भी प्राणायाम का सविधि लम्बी अवधि तक अभ्यास करता है तो प्राण
वश में होता है। प्राण ज्योंहि वशीभूत होता है इन्द्रियां मुर्छित हो जाती है तथा
साधक आत्मलीन हो जाता है। इसी स्थिति को मुर्छा प्राणायाम कहा गया है।
विधि --- पुरक के पश्चात अत्यन्त दृढ़ता पुर्वक जालंधर
बां लगाएं, तत्पश्चात वायु का रेचन करें। मुर्च्छा नामक यह प्राणायाम
सुखदायक और मनोमुर्च्छा करने वाला है।
लाभ --- यह प्राणायाम की श्रेष्टतम अवस्था तथा समाधि का
प्रथम सेापान है। इस प्राणायाम के अभ्यास से व्यक्ति भौतिक जगत से विरक्त होकर
आधयात्मिक जगत में विचरण करता है। साधक परमानंद एवं सिद्वि को प्राप्त करता है।
सावधानियां - इस
प्राणायाम का अभ्यास किसी योग्य गुरु के संरक्षण में ही करना चाहिए अन्यथा लाभ के
स्थान पर हानि हो सकती है।
केवली प्राणायाम
- वास्तविक रुप से कुंभक के दो भेद होते
है -
1-
सहित कुंभक, 2- केवल कुंभक
सहित कुंभक में
पुरक तथा रेचक के साथ कुंभक होता है। जबकि केवल कुंभक में पुरक तथा रेचक रहित
कुंभक होता है। रेचक तथा पुरक के बिना केवल कुंभक सिद्व हो जाने पर यह केवल कुभक
केवली प्राणायाम कहलाता है।
अर्थ - केवल
कुंभक के सिद्व हो जाने पर पुरक और रेचक की आवश्यकता नहीं होती तथा योगी के लिए
तीनों लोकों में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता।
अतः केवली कुंभक
प्राणायाम की वह उच्चतम अवस्था है जहां साधक अंदर की वायु अंदर ही तथा बाहर की
वायु बाहर ही बिना प्रयास के रोके और प्राण को सुषुम्ना भागों द्वारा ब्रम्हरंध्र
में स्थित कर समाधिष्ठ अवस्था को प्राप्त करे। यह केवली प्राणायाम गुरुगम्य है और
गुरु के प्रसाद से ही साधक के लिए संभव है। इस प्राणायाम के सिद्व हो जाने पर योगी
दुरदर्शी, दुरश्रावी सिद्वि से युक्त हो जाता है। योगी के मल मुत्र के प्रलेपन से लोहा
भी कण में बदल जाता है। राजपद को पा जाता है, इसमें संसय नहीं।
अन्ततोगत्वा हम
यह कह सकते है कि केवल कुंभक सबसे महत्वपुर्ण माना गया है तथा केवल कुंभक के समान
कोई कुंभक प्राणायाम नहीं है।
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