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सूक्ष्म व्यायाम, स्थूल व्यायाम

 

सूक्ष्म व्यायाम

                उच्चारण स्थल तथा विशुद्व चक्र की शुद्वी  (ज्ीतवंज ंदक अवपबम)-- सामने देखते हुए श्वास प्रश्वास करना है।

प्रार्थना -

बुद्वी तथा घृति शक्ति विकासक क्रिया (उपदक ंदक ूपसस चवूमत कमअमसवचउमदज) - शिखामंडल में देखते हुए श्वास प्रश्वास की क्रिया करना है।

स्मरण शक्ति विकासक (उमउवतल कमअमसवचउमदज) - डेढ़ गज की दुरी पर देखते हुए श्वास प्रश्वास की क्रिया करें।

मेघा शक्ति विकासक(प्दजमससमबज कमअमसवचउमदज) - ठुढ़ीे कंठ कुप से लगाकर ग्रीवा के पीछे गढ़ीले स्थान पर ध्यान रखकर श्वास प्रश्वास करें।

नेत्र शक्ति विकासक (मलम ेपहीज) - दोनों नेत्रें से भ्रूमध्य उपर आशमान की तरफ देखें।

कपोल शक्ति विकासक(बीमबा तमरनअमदंजपवद) -  मुख को कौए की चोंच की भाती बनाकर वेग से श्वास अंदर खीचें। ठुढ़ी को कंठ-कुप से लगाकर नेत्र बंद करके कुंभक करें।

कर्ण शक्ति विकासक (भ्मंतपदह चवूमत कमअमसवचउमदज) - इसमें नेत्र, कान, नाक, मुख बंद करते हुए पुनः मुख को कौए की चोंच के समान बनाकर वायु खींचकर गाल फुलाकर कुंभक करें।

                ग्रीवा शक्ति विकासक (छमबा ेजतमदहजी मगमतबपेम) --

(प) झटके से सिर को आगे-पीछे ले जाना है।

(पप) इसमें सिर को लेफ्रट-राइट ले जाना है

10  (पपप) इसमें ग्रीवा सहित सिर को बाएं से दाएं और दाएं से बाएं बलपुर्वक चक्राकार घुमाना है।

11   (पअ) इसमें पेट को श्वास प्रश्वास सहित फुलाते पिचकाते हुए ठुढ़ी को उतान देकर गले की नसें उभारना है।

12   स्कंद तथा बाहुमुल शक्ति विकासक (ेीचनसकमत इसंकम ंदक रवपदज ेजतमदहजी कमअमसवचउमदज)-   श्वास भरकर कुंभक करते हुए स्कंद को तीव्रता से उपर नीचे ले जाना है।

13  भुजबंद शक्ति विकासक (नचचमत ंतउे ेजतमदहजी मगमतबपेम) - भुजबंद तथा भुजबली को इस प्रकार खीचे कि 90 डिग्री का कोण बन जाए। फिर झटके के साथ भुजाओं को बार-बार वक्षस्थल के सामने करें।

14 ( क)  कोहनी शक्ति विकासक (मसइवू ेजतमदहजी मगमतबपेम) - मुठी बांधकर झटके के साथ भुजबलियों को भुजबंद के साथ बार बार मिलाएं।

  ( ख) इसमें अंगुलियों को खोलकर पुर्णरुप से सीधा करें फिर भुजबली को झटके के साथ भुजबंद से बार-बार मिलाएं।

15्र (क) भुजबली शक्ति विकासक (।तउे ेजतमदहजी मगमतबपेम) --इसमें हाथ को सीधा रख कर बार-बार पहले बाएं हाथ को और फिर दाहिने हाथ को उपर नीचे ले जाए।

(ख ) इसमें दोनों हाथों को एक साथ उपर नीचे ले जाएं।

16  पुर्णभुज शक्ति विकासक (निसस ंतउे ेजतमदहजी मगमतबपेम) -  इसमें नासिका से श्वास भरकर कुंभक की स्थिति में भुजा को चक्राकार घुमाएं।

                दोनो भुजाओं को चक्राकार घुमाएं।

17  मणिबंध शक्ति विकासक (ॅतपेज क्मअमसवचउमदज)--(क)  हाथ की मुठी बांधाकर बलपुर्वक उपर नीचे मुठी को  चलाएं हाथ सामने की ओर सीधा रखें।

( ख)   मणीबंध से आगे मुठी को वक्ष स्थल के पास बलपुर्वक उपर नीचे करे।

( क)  करपृष्ट शक्ति विकासक (ठंबा वि चंसउ कमअमसवचउमदज  मगमतबपेम) --  (क)  मुठी खोलकर कलाई के अग्र भाग को उपर नीचे ले जाना है। सामने की तरफ हाथ सीधा रखें।

(ख)  कोहनी मोड़कर

  19   करतल शक्ति विकासक - (च्ंसउ क्मअमसवचउमदज मगमतबपेम)

                (क)  अंगुलियों को फ़ैलाकर उपर नीचे करें।

                (ख)  कोहनी मोड़कर अंगुलियों को फैलाकर उपर नीचे करें।

 20          अंगुलीमुल शक्ति विकासक (पिदहमत श्रवपदज कमअण् मगमतबपेम)--

                (क )  हाथ सामने लाकर अंगुलियों को ढीला छोड़ें।

 21      (पिदहमत ेजतमदहजी मगमतबपेम)  (ख)  हाथों को सामने लाकर हाथों को सांप के फन की भाति बनाकर खीचें।

22    वक्ष स्थल शक्ति विकासक (ब्ीमेज कमअमसवचउमदज  म्गमतबपेम) -- (प) नासिका से श्वास भरते हुए कमर से उपरी भाग को पीछे की ओर ले जाएं।

23 (पप)  इसमें दोनों हाथों तथा कमर के उपरी भाग को पीछे की ओर श्वास भरते हुए ले जाएं ।

24  उदर शक्ति विकासक (।इकवउपदंस उनेबसम कमअण्) --

                 प्ण् (अजगरी) - नाक से धीरे-धीरे श्वास छोड़कर उडियान करें।

25           प्प्ण् इसमें श्वास भरकर पेट को फुलाएं तथा पिचकाएं।

26 प्प्प्ण्  गले को पुर्णतया पीछे ले जाकर श्वास प्रश्वास द्वारा पेट को फुलाना तथा पिचकाना है।

27           प्टण् इसमें नेत्रें से डेढ़ गज की दुरी पर देखते हुए श्वास-प्रश्वास द्वारा पेट को फुलाना तथा पिचकाना है।

28           टण्  इसमें गाल फुलाकर नेत्र बंद करके कुंभक करके ठुडी को कंठकुप से लगाएं।

29           टप्ण् 60 डिग्री पर आगे की तरफ झुककर पेट को फुलाते पिचकाते हुए श्वास प्रश्वास करें।

30           टप्प्ण् 90 डिग्री पर आगे की तरफ झुककर पेट को फुलाते पिचकाते हुए श्वास प्रश्वास करें।

31           टप्प्प्ण्  श्वास को पुर्णतया बाहर निकालकर आगे की तरफ झुककर 60 डिग्री का कोण बनाते हुए पेट को फुलाए-पिचकाए, अर्थात पेट की पंपिंग करें।

32   प्ग्ण्  श्वास को पुर्णतया बाहर निकालकर आगे की तरफ झुककर 90  डिग्री का कोण बनाते हुए पेट को फुलाए पिचकाएं।

33           ग्ण्  नौली क्रिया - इसमें दोनों पैरों के मध्य एक हाथ का अंतर रखते हुए दोनों हाथों से दोनों घुटनों को पकडकर 90 डिग्री का कोण बनाऐं। श्वास को पूर्णतया बाहर निकालकर पेट को पिचकाएं अर्थात पुर्ण उडियान लगाएं।

34  कटि शक्ति विकासक (ॅंपेज ैजतमदहजी क्मअण् म्गमतबपेम) --

                प्ण्   इसमें श्वास भरकर कमर के उपरी भाग को पीछे ले जाएं। दाहिने हाथ की मुठी बांधकर बाएं हाथ से दाएं हाथ की कलाई पकडें़।

35           प्प्ण्  इसमें पैरों के मध्य आधा फीट का अंतर देकर कमर पर हाथ इस प्रकार रखें कि अंगुठा आगे की तरफ रहे। श्वास भरते हुए पीछे की तरफ झुकें और श्वास निकालकर आगे की तरफ झुकें ।

36           प्प्प्ण्  पैरों के मध्य चार ईंच का गैप देकर खडे़ रहें। तीव्र वेग से श्वास भरते हुए कमर के उपरी भाग को पीछे की ओर झुकाएं। फिर शीघ्रता पुर्वक श्वास छोड़ते हुए सिर को घुटनों से लगावें। ध्यान रहे क्रिया करते समय जंघा तथा घुटनों से स्पर्श न करें।

37  प्टण्  पैर परस्पर मिले हो। दोनों हाथों को गिद्व पंख की भाति फैलाकर खड़े रहें। फिर धीरे धीरे गिद्व पंख की भाति हाथ फैलाकर ही बायीं दायीं ओर झुकें।

38           टण् (कटिचक्रासन) - दोनों पैरों में एक हाथ का अंतर देकर खड़े रहें। वेग पुर्वक श्वास भरते तथा छोड़ते हुए उपरी भाग को अद्वचन्द्राकार घुमाकर पीछे की ओर ले जाएं ।

39  मूलाधार चक्र की शुद्वी (ठेंंस ूीममस चनतपपिबंजपवद मगण्   क्ष् त्मबजनउ उनेेमसेद्व) - इसमेंं शरीर के नीचले भाग का संकोचन करते हुए बलपुर्वक गुदाचक्र को उपर खींचना है।

40  उपस्थ तथा स्वादिस्टान चक्र की शुद्वी( ळमदपजंस - ेूंकीपेजींद ूीममस चनतपपिबंजपवद   क्ष्   त्मबजनउ डनेेमसे ंदक नतपदम डनेेमसे चनतपपिबंजपवदद्व) - इसमें आन्तरिक बल द्वारा गुदा सहित उपस्थ को उपर खींचना है।

41  कुंडलिनी शक्ति विकासक  (ज्ञनदकंसपदप चवूमत कमअण्  मगमण्)-- इसमें एड़ी से नितम्ब पर पृष्ठ पर जोर से मारना है।

42  जंघा शक्ति विकासक (ज्ीपही ेजतमदहजी कमअण् मगमतबपेम) - प्  तेजी से श्वास भरकर हाथों को उपर ले जाते हुए पंजों पर खडे रहे। कुदकर पैरों को फैलाना है।                       

43    प्प्  क्ष्कद्व (कुर्सी आसन )  -  इसमें श्वास भरते हुए इस प्रकार आधे बैठना है कि कुर्सी के समान प्रतित हो , दोनों हाथ सामने फ़ैलाए।

                क्ष्खद्व श्वास भरते हुए दोनाें घुटनों तथा हाथों को कंधों की तरफ फैलाकर धीरे धीरे इतना नीचे जाएं कि नितम्ब एड़ी से कुछ ही उपर हो।

जानु शक्ति विकासक (ज्ञदमम ेजतमदहजी कमअण् मगमतबपेम) - इसमें एड़ी से नितम्बपृष्ट पर जोर से मारकर पैर को आगे की ओर झटका देना है।

पिंडलनी शक्ति विकासक (ब्ंसअमे ेजतमदहजी कमअण् मगमतबपेम) - दोनों हाथों को आवृताकार घुमाते हुए नीचे बैठें।

पादमुल शक्ति विकासक (ेवसमे ेजतमदहजी कमअण् मगमतबपेम) -

     प्ण् पंजों के बल खडे होकर स्प्रिंग की भाति एडी़ को उपर नीचे करें।

     प्प्ण्  पंजों के बल जमीन से उपर उछलना है।

 

गुल्फपाद पृष्ठपाद तल शक्ति विकासक (।दासम - मिमज ेजतमदहजी कमअण् मगमतबपेम) - इसमें एक पाव से दुसरे पाव को एक हाथ आगे तथा जमीन से एक बालिस्त उपर उठाकर गुल्फ के आगे से बाएं-दाएं आवृताकार घुमाना है।

पादांगुली शक्ति विकासक (ज्वमे ेजतमदहजी कमअण् मगमतबपेम) - पैरों की दसों अंगुलियों को आपस में मिलाकर केवल अंगुलियों पर भार देकर खड़ा रहें।

 

                लाभ --- 

 

1-    उच्चारण स्थल तथा विशुद्व चक्र की शुद्वी  (ज्ीतवंज ंदक अवपबम) - तुतलापन दुर होता है। विचार करने की शक्ति बढ़ती है। कटु स्वर मधुर हो जाता है। संगीत का अभ्यास करने वालों के लिए उपयोगी है।

2-     प्रार्थना -  मानसिक विकारों की निवृति, मनोवाह नाड़ी की उर्ध्वगति, इष्टानुकम्पा की प्राप्ति और शरीर के अनेक रोगों की निवृति होती है। यह क्रिया चित एकाग्रता के लिए बहुत उपयोगी है। आत्म साक्षात्कार एवं परम शान्ति प्राप्ति का यह अभ्यास अचूक साधन है।

विशेष -  मनोवाह नाड़ी अर्थात वीर्य बहने वाली नाड़ी, जिसके द्वारा मनन किया जाता है उस नाड़ी का किंचित भी नीचे प्रवाह होने पर मन चलायमान होने लगता है और जब यह नाड़ी उर्ध्वमुखी रहती है तो मन में एकाग्रता आती है। मन के एकाग्र होने पर ही सम्पुर्ण इन्द्रियां अपने वश में रहती है। किसी भी विषय में अपने जीवन को पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए मन की एकाग्रता परम आवश्यक है।

3-    बुद्वी तथा घृति शक्ति विकासक क्रिया (उपदक ंदक ूपसस चवूमत कमअमसवचउमदज) -   इस क्रिया के अभ्यास से बुद्वी से संबंधित सभी प्रकार के रोग दुर होते है जैसे - विक्षेप, संचय आदि तथा सदबुद्वी प्रदान करने वाले ज्ञान तंतुओं की जागृति होती है।

4-       स्मरण शक्ति विकासक (उमउवतल कमअमसवचउमदज) - मस्तक और शिखा के मध्य स्थान से मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले रोगों जैसे - पागलपन, कान्ति, स्मृति, उन्माद आदि रोगों से यह किया मानसिक कार्य  करने वालों की थकावट दुर करके उन्हे अधिक से अधिक कार्य करने की क्षमता तथा स्मरण शक्ति का विकाश प्रदान करती है। स्वाध्याय करने वालों, कलाकारों विद्यााथियों, वकीलों के लिए इस क्रिया का अभ्यास परम उपयोगी है।

5-      मेघा  शक्ति विकासक (प्दजमससमबज कमअमसवचउमदज) - इस क्रिया से मेघा स्थानियों कफ आदि दोष दूर होते हैं, परम प्रेम तथा आकर्षण शक्ति की प्राप्ति होती है और प्राण सुसुम्नावाही होता है।

विशेष -  इस 1 से 5 तक की समस्त क्रियाओं में मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले वात, कफ आदि दोष जो विकृमिति, विक्षेप, बुद्वीमंद आदि रोगों का कारण बनता है उनका नाश होता है लोकशास्त्रें के अनुसार शरीर के समस्त चक्रों की शुद्वी तथा ग्रंथी विभेदन हो जाता है।

6-       नेत्र शक्ति विकासक क्रिया -  इस क्रिया के अभ्यास से नेत्र में होने वाले समस्त रोग रोग दुर होते हैं। नेत्रें की ज्योति बढ़ती है तथा जिद दृष्टि प्राप्त होती है।

7-   कपोल शक्ति विकासक - इस क्रिया के अभ्यास से कपोलों पर लाली छा जाती है। दांतों की पुष्टि होती है। पायरिया, पित रोग आदि दुर होते है। चेहरे पर अदभुत शांति तथा आकर्षण आकर बीच के गाल तथा ठुडियां भर जाते है। मुंहासे,  फुंसियां आदि का निकलना बंद हो जाता है।

8-  कर्ण शक्ति विकासक - इस क्रिया के अभ्यास से कान में होने वालेेे कर्ण मुल आदि समस्त रोगों की निवृति होती है तथा कान संबंधि रोग दुर होते है। बहरापन दुर होता है।

9, 10  ,11  ग्रीवा शक्ति विकासक - ग्रीवा की इन तीनों क्रियाओं से ग्रीवा संबंधि सारे दोष दुर होते है। ग्रीवा की स्थुलता नष्ट हो जाती है। ग्रीवा सुन्दर, सुढ़ौल तथा आकर्षक हो जाती है। गले के सारे विकार नष्ट हो जाते है। जैसे - टांसिल, कंठमाल , गलगंड आदि बिना आपरेशन के ठीक हो जाते है। कंठ का स्वर मधुर तथा सुरीला हो जाता है। तुतलापन तथा रुकरुक कर बोलने वालों के लिए ये क्रियाएं अत्यंत लाभकारी है। गुंगापन तथा गले के सम्पुर्ण विकार नष्ट हो जाते है। संगीत का अभ्यास करने वालों के लिए परम उपयोगी है।

12  स्कंद तथा बाहुमुल शक्ति विकासक क्रिया --- कंधा की हड्डियां, मांसपेसियां , नस-नाड़ियां शुद्व, सुड़ौल और मजबूत होती है।

13- भुजबंद शक्ति विकासक- इस क्रिया क अभ्यास से विकृति, दुर्बल, अतिस्थूल आदि भुजाएं हिस्ट पुस्ट, सुंदर तथा सुढ़ौल बनती है। भुजबंद में अपूर्व बल आता है। भुजा तथा स्कंद के सारे दोष दूर होते है। मिलिटरी, पुलिस तथा लाठी चलाने वालों के लिए यह किरिया परम उपयोगी है।

14-          कोहनी शक्ति विकासक- इस क्रिया के अभ्यास से कोहनी के दोष दूर होते हैं। हड्डियों के जोड़ पुष्ट होते हैं। नस-नाड़ियों में रक्त का संचार भली भाति होने लगता है। कोहुनी के अग्र भाग में अपूर्व शक्ति आती है ंइसके निरंतर अभ्यास से महिलाओं की भुजा कोहनी से आगे सुन्दर गोलाकार बनती है तथा पुरूषों की भुजा पुष्ट व आकर्षक बनती है।

15-भुजबली शक्ति विकासक- इस क्रिया के निरंतर अभ्यास से 10 हजार मन वायु में जितनी शक्ति है उतनी ही शक्ति आ जाती हैं भुजबलियां सुन्दर, सुडौल और पुष्ट होती है।

16-पूर्ण भुजबली शक्ति विकासक- वायु की निवृति होती है तथा आन्तरिक नाड़ियों में पुष्टता आती है। हाथों के  सौदर्य की वृद्वि होती है। हाथ मुलायम तथा सुढ़ौल बनते हैं। भुजा पूर्णतया स्वाभाविक रूप से शक्ति संपन्न बन जाती है।

17, 18, 19, 20, 21- मणिबन्द शक्ति विकासक, करपृष्ठ शक्ति विकासक, करतल शक्ति विकासक, अंगुली मूल शक्ति विकासक, अंगुली शक्ति विकासक- 17 से 21 तक की पांच क्रियाओं से कलाई, करपृष्ठ, करतल, अंगुलियां सभी की पुष्टि होती है तथा हाथों में असीम बल आता है। मनोवाह नाड़ी की तीव्र ज्योति से सम्पूर्ण शरीर कान्तिमान हो जाता है। समस्त प्रकार के धातु रोगों की निवृति हो जाती है। हार्दिक शक्ति का विकास होता है। ये क्रियाएं लेखकों , टाइपराइटर आदि कार्य करने वालों, मशीनमैनों, डाराइवरों, कपड़ा बुनने वालों, शिल्पकारों और वाद्य संगीतज्ञों के लिए विशेष उपयोगी है।

22-वक्ष  स्थल शक्ति विकासक प् - इस क्रिया से फेफडे के सम्पूर्ण रोग ठीक होते हैं। सीना चौड़ा होता है वक्ष स्थल पुष्ठ तथा दृढ़ हो जाता है। ह्रदय के रोग दूर होते है तथा ह्रदय में असीम बल बढ़ता है। इस क्रिया को निरंतर करने से टीबी-, दमा, खांसी तथा समस्त कफ संबंधी रोग दूर हो जाते हैं। जिन लोगों का ह्रदय कमजोर है तथा जो लोग ह्रदय रोग से पीड़ीत है वे इस क्रिया को प्रातः शौच,स्नान के बाद 5 मिनट नित्य करे तो अवश्य ही उनके ह्रदय से सब कष्ट दूर होंगे तथा ह्रदय में एक नवीन जीवन का संचार होगा।

23-          वक्ष  स्थल शक्ति विकासक प्प् - पूर्व क्रिया के लाभ के साथ वक्ष स्थल के अगले तथा पीछले भाग में असीम बल आता है और दृढ़ता आती है। भुजाओं का भी बल बढ़ता है। जिन दुबले पतले व्यक्तियों को सीने तथा पीठ की हड्डियां दिखाई पड़ती है, इस क्रिया के करने से वे मांसल होकर पुष्ट हो जाते हैं। इस क्रिया के अभ्यास से जीवन पर्यन्त कमर टेड़ी नहीं होती।

24- से 33-            (उदर की दस क्रिया) उदर शक्ति विकास - उदर शक्ति विकासक की सभी क्रियाओं से पेट के समस्त रोग दूर होते हैं। पेट का कोई भी रोग चाहे कितना भी पुराना क्यों न हो इस क्रिया के निरंतर अभ्यास से शीघ्र ही दूर हो जाता है। ये क्रियाएं पेट की स्थूलता को कम करने में दिव्य औषधि का काम करती है। इन क्रियाओं की विशेषता यह है कि नाभि की दूसरी ओर नाभि केन्द्र से संयुक्त सभी नाड़ियों में दिव्य शक्ति का संचार होता है। तथा आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है। योगियों को चरम लक्ष्य की प्राप्ति में ये क्रियाएं बहुत सहायक है। क्योंकि इन क्रियाओं से कुंडलनी शक्ति की जागृति में बहुत सहायता मिलती है।

34- से 38(कटी की पांच क्रिया) कटी शक्ति विकासक - कटी शक्ति की पांचों क्रियाओं से कमर सुड़ौल तथा पतली होती है। इसके निरंतर अभ्यास से कमर संबंधि हर प्रकार के दर्द दूर होते हैं। 25 वर्ष की आयु तक स्त्री-पुरूष  की लम्बाई बढ़ सकती है। इनके निरंतर अभ्यास से कमर में विशेष पुष्टता आती है।

39-  40- मूलाधार चक्र शुद्वी , उपस्थ तथा स्वादिष्टान चक्र शुद्वि -दोनों क्रियाओं से गुदा तथा उपस्थ संबंधी सारे रोग दूर होते हैं। मधुमेह (डायबिटीज), बवासीर, भगंदर, खूनी बवासीर आदि असाधय रोग शीघ्रातिशीघ्र समूल नष्ट हो जाते हैं। इन क्रियाओं में यह विशेष गुण है कि ये रोगों को जड़ से नष्ट करके स्थायी लाभ पहुंचाती है। उपस्थ के बहुत से रोग- सुजाक, आतशक तथा वीर्ये संबंधी सारे रोग इन क्रियाओं के निरंतर अभ्यास करने से समूल नष्ट हो जाते हैं। प्रमेह, स्वपनदोष, आदि तो सदा के लिए लुप्त हो जाते हैं। इन क्रियाअेां के निरंतर अभ्यास करने से स्त्रियों को भी अद्भूत लाभ होता है । लिकोरिया, प्रदर और यौन संबंधी सारे विकार तथा गर्भाशय के सारे दोष

दूर हो जाते हैं। इनसे स्तम्भन शक्ति बढ़ती है तथा ब्रम्हचर्य की पुष्टि होती है।

41- कुंडलिनी शक्ति विकासक- कुंडलीनी शक्ति की जागृति होती है।

42- 43-  जंघा शक्ति विकासक- जंघाओं में अपूर्व शक्ति आती है। जंघाएं कदली स्तंभ के समान सुन्दर, पुष्ट तथा सुड़ौल बनती है। बादी की निवृति होती है। बहुत दूर चलने पर भी थकावट नहीं आती। रक्त संचार सुचारू रूप से होने लगता है। स्थूल जंघाएं सुन्दर सुडौल बनती है।तथा पतली जंघाएं स्वाभाविक रूप में आ जाती है।

44- जानु शक्ति विकासक- घुटनों के जोड़ों की बादी की निवृति होती है। रक्त का संचार सुचारू रूप से होने लगता है। गठिया रोगों को दुर करती है।

45- 46- पिंडलनी शक्ति विकासक, पादमूल शक्ति विकासक- इन क्रियाओं के करने से पिंडलियां पुष्ट, दृढ़ तथा कंदली स्तंभ के उपरी भाग के सदृश्य सुन्दर बनती है। ब्रम्हचर्य की पुष्टि होती है। बादी की निवृति होती है। पिंडलियों में अपूर्व बल आता है। पादमूल पुष्ट, सुन्दर, सुडौल तथा सुदृढ़ बनता है।

47-          गुल्फपाद पृष्ठपाद तल शक्ति विकासक- बादी की निवृति होती है। अंगुलियों तथा पंजों की पुष्टि होती है। पैर सुन्दर, पुष्ट तथा सुड़ौल बनते हैं। पंजों के सब रोग दूर होते हैं। गुल्फ (गिट्टा) सुदृढ़ पुष्ट हो जाता है

ं अधिक से अधिक चलने फिरने दौड़ने कूदने पर भी थकान नहीं आती।

48- पादांगुली शक्ति विकासक- इससे पांवों में विशेष बल आता है। पंजे तथा अंगुलियां पुष्ट होते है।

अंगुलियों का आकार सुन्दर बनता है। दौड़ने वालों के लिए यह क्रिया परम उपयोगी है। पहाड़ी प्रान्त में रहने वाले इसे अवश्य करें। इससे अंगुलियां रबर की भांति लचीली बनती है।

 

स्थूल व्यायाम

 

1-            रेखागति - सामने देखते हुए पैरों के अंगुठों से एड़ी मिलाते हुए तीव्रता से आगे पीछे चलें।

2-            ह्रदय गति - (इंजन दौड़) (भ्तक  ळंजप) -- इसमें नितम्ब पृष्ठ पर एड़ी मारें। और साथ ही जो पैर मुड़ा हो उस हाथ की कोहनी को वक्ष स्थल के पास मोड़ें।

3-            उत्कुर्दन (जम्पिंग)(श्रनउचपदह म्गमतबपेम) - श्वास भरने के साथ भुजाओं को चक्र देकर (चक्राकार घुमाकर) वक्ष स्थल के पास मोड़कर जमीन पर यथासाध्य उपर उछलें ।

4-            उर्ध्वगति (न्तकीअं ळंजप)--इसमें श्वास प्रश्वास के साथ क्रमशः हाथ पैर उपर उठाना है। इसमें एक पांव जमीन से एक फुट उपर उठा रहेगा पीछे की तरफ और जो पैर मुड़ा हो उसी हाथ को इस प्रकार कोहनी से मोडे कि 90 डिग्री का कोण बन जाए।

5-            सर्वांगपुष्टि (ैंतअंदहं  च्नेजप) --दोनों हाथों को मिलाकर श्वास भरते हुए पीछे से चक्राकार घुमाते हुए दुसरे पैर की ओर जाना है।

 

लाभ -

 

1-            रेखागति - शरीर में स्थिरता आती है। चित की प्रशंसा, मन की एकाग्रता तथा शरीर को संभालने की शक्ति प्राप्त होती है।

2-            ह्रदय गति --  (इंजन दौड़) (भ्तक  ळंजप) - फेफडों़ में अपुर्व बल आता है। चेहरे पर अपुर्व शांति होती है। वक्ष स्थल चौड़ा होता है। जंधा, पिंडलियां, वक्ष स्थल मजबुत हो जाती है। स्थूल शरीर वालों के लिए यह क्रिया दिव्य देन से कम नहीं है। थोड़े समय में ही शरीर को व्यस्थता हटकर शरीर प्रभावी स्थिति में आ जाती है। पतला शरीर प्रभावी रुप से भर जाता है। कितना भी कार्य करने पर थकावट मालूम नहीं होती। आश्चर्यजनक शक्ति का संचार होता है। इसके अभ्यास से स्वास्थ्य की पुष्टि होती है। भ्पही ठसववक च्तमेेनतमए कमर दर्द, ह्रदय रोगियों को नहीं करनी चाहिए।

3-            उत्कुर्दन (जम्पिंग) (श्रनउचपदह म्गमतबपेम) - इसकें अभ्यास से ठीगनापन दुर होता है और लम्बाई बढ़ती है। वक्ष स्थल चौड़ा होता हैं। पैरों में शक्ति आती है। शरीर की गंदी वायु बाहर आती है और शुद्व वायु सहित प्राण शक्ति अंदर भर जाती हैं। भ्पही ठसववक च्तमेेनतम, कमर दर्द, हृदय रोगियों, कमर दर्द, ठंबा च्ंपद वालों को नहीं करना चाहिए।

4-            उर्ध्वगति (न्तकीअं ळंजप)-- लम्बाई बढती है। फेफड़े की स्वछता बढ़ती है। फेफड़ों को अिाक से अधिक आक्सीजन मिलती हैं। ज्ण्ठण्, आस्थमा, ब्रान्काइटिस आदि बिमारियों को उर्ध्व गति से दुर किया जा सकता है।

5-            सर्वांगपुष्टि (ैंतअंदहं  च्नेजप) - सर्वांगपुष्टि से शरीर के सर्वांगिण अंगों की पुष्टि होती है। इस क्रिया से शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं रह जाता जिससे कि व्यायाम नहीं होता। जंघा, पिंडली, घुटने, नितम्ब, वक्ष स्थल, ग्रीवा, भुजाएं सभी इसके माघ्यम से पुष्ट होते हैं। लम्बाई बढ़ती है। कटि में लचीलापन आता है। फेफड़े में अधिक मात्र में आक्सीजन मिलती है। ज्ण्ठण् रोगियों के लिए परम उपयोगी है।

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स्वरोदय ज्ञान

  स्वरोदय ज्ञान   श्वास लेन और छोड़ने को स्वरोदय ज्ञान कहते हैं। सम्पूर्ण योग शास्त्र , पुराण , वेद आदि सब स्वरोदय ज्ञान के अन्तर्गत आते हैं। ये स्वरोदय शास्त्र सम्पूर्ण शास्त्रें में श्रेष्ठ हैं और आत्मरूपी घट को प्रकाशित दीपक की ज्योति के समान है। शरीर पांच तत्वों से बना है और पांच तत्व ही सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। शरीर में ही स्वरों की उत्पति होती है जिसके ज्ञान से भूत , भविष्य , वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान होता है। इस ज्ञान को जान लेने के बाद ऐसी अनेकानेक सिद्वियां आ जाती है साधक इसकी सहायता से अपने शरीर (आत्मा) को स्वास्थ्य एवं शसक्त बना सकता है। स्वरोदय दो शब्दों   के मेल से बना है। स्वर $ उदय = स्वरोदय। स्वर शब्द का अर्थ है निः श्वास एवं प्रश्वास अर्थात् श्वास लेना और छोड़ना। और उदय शब्द का तात्पर्य   है कि इस समय कौन सा स्वर चल रहा है और ज्ञान शब्द का अर्थ है जानकारी से है कि किस समय किस स्वर से शुभ एवं अशुभ कार्य किए जाए। जो फलीभुत हो। अर्थात् हम कह सकते हैं कि स्वरोदय ज्ञान वह विज्ञान है जिसे जानकर साधक अपनी शुभ और अशुभ कार्य करने में सफल होता है। देव यानि काया रूप

प्राणायाम

  प्राणायाम प्राणायाम क्या है ? प्राणयाम अर्थात प्राण की स्वभाविक गति विशेष रुप से नियमित करना । --पतंजली प्राणायाम से लाभ -- चित शुद्व होता है एवं एकाग्रता आती है। स्मरण शक्ति एवं धाारणा शक्ति में वृद्वि होती है। मानसिक कार्य करने वाले , आत्मोनति के इच्छुक और विद्याथियों के लिए प्राणायाम अति उत्तम है। चर्म रोग , रक्त शुद्व होता है। कंठ से संबंधित रोग - ग्वाइटर , कंठमाला , टांसिल आदि दुर होते है। कफ , धातु संबंधि रोग , गठिया , क्षय , तपेदिक , खांसी , ज्वर प्लीह , क्ष्उच्च रक्त चाप , हृदय रोग - कुंभक नहीं   द्व , एसीडिटी , अल्सर , मस्तिष्क विकृति , वात , पित , कफ , नासिका एवं वक्ष स्थल से संबंधित रोग , मानसिक तनाव दुर होता है। शरीर शुद्वी के लिए जिस प्रकार स्नान की आवश्यकता है उतनी ही मन शुद्वी के लिए प्राणायाम की आवश्यकता है। 1-             नाड़ीशेधन प्राणायाम या अनुलोम विलोम 2-             सुर्यभेदी प्राणायाम 3-             उज्जायी प्राणायाम 4-             सीत्कारी प्राणायाम 5-             शीतली प्राणायाम 6-             भस्त्रिका प्राणायाम 7-             भ्रामरी प्र