योग किसे कहते
हैं। परिभाषा लिखें?
योग पान प्रान
योरैक्य स्वरजो रेतसोस्तथा।
सूर्या चन्द्र
मर्सोयोगो जिवात्मा परमात्मनोः।।
अर्थात्,
1- आपान और प्रान के मिलन को योग कहते हैं।
2- रज और वीर्य के मिलन को योग कहते हैं।
3- सूर्य और चन्द्र के मिलन को योग कहते हैं।
4- जिवात्मा और परमात्मा के मिलन को योग कहते हैं।
1- आपान और प्रान के मिलन को योग कहते हैं।
प्राण वायु की प्रतिष्ठा ह्रदय में और आपान
वायु की प्रतिष्ठा गुदा में मानी गई है।
भक्ति सागर के अनुसार, प्राण वायु ह्रदय के ठाहीं बसे अपना गुदा के
माही। जब साधाक मूलबंद के द्वारा गुदा को उपर की ओर संकुचित करता है तो गुदा स्थिर
आपान वायु उर्धामुखी यानि उपर की ओर होता है। जालन्धार बन्द लगाने से प्राण की गति
स्थिर हो जाती है। आपान वायु की उर्धमुखी एवं प्राण वायु के स्थिर होने के कारण जब
दोनों प्रधान वायु आपान और प्राण मिल जाती है अर्थात् एकीकृत हो जाती है तो एक
उष्मा उत्पन्न होती है जिससे महाशक्ति कुंडलनी का जागरण होता है इस प्रक्रिया के
द्वारा दोनों वायुओं का मिलन अनाहद चक्र में होता है जिसके फलस्वरूप साधक को नाद
सुनाई देते है और वह सम्पूर्ण विकारों से दूर हो जाता है तथा महाशक्ति कुंडलनी
जागृत होकर सुसुमना रूपी महापथ से चक्रों का भेदन करते हुए ब्रम्हरंध्र में शिव से
आकर के मिलती है इस प्रकार से आपान और प्राण के मिलन को योग कहते हैं।
2- रज और वीर्य के मिलन को योग कहते हैं।
बिन्दु शरीर का मूल है। यही बिन्दु सिर से पांव
तक प्रतिष्ठित रहता है। यह बिन्दु दो प्रकार का होता है 1- पाण्डुर यानि सफेद, 2-
लोहित यानि लाल। पाण्डुर
से तात्पर्य "ाुक्ल या "वेत से है। और लोहित से तात्पर्य रक्त यानि रज शक्ति
या कुंडलनी से है।
बिन्दु क्या है?
बिन्दु शिव का अर्थात चन्द्र का प्रतिक है और
रज कुंडलनी अर्थात शक्ति का प्रतिक है। शक्ति का स्थान मूलाधार चक्र में एवं
बिन्दु अर्थात् शिव का स्थान ब्रम्हरंध्र में माना गया है। जब योगी या योगसाधक
योगसाधना के द्वारा शक्ति को शिव से मिला देता है तो उस मिलन से परम पद अर्थात्
मुक्तावस्था की प्राप्ति होती है। प्राणायाम
के द्वारा जब साधक शक्ति या कुंडलनी को प्रेरित करता है तो वह सुसुम्ना
रूपी महाचक्रों का भेदन करते हुए शिव से जा मिलती है और इस मिलन के बाद योग साधक या
योगी दिव्यशक्ति या आलौकिक गुण से युक्त हो जाता है। इस प्रकार यौगिक साधना
अर्थात् आसन, प्राणायाम एवं मुद्रा के अभ्यास द्वारा शक्ति यानि कुंडलनी
को जागृत किया जाता है जिससे शक्ति रूपी कुंडलनी ब्रम्हरंध्र में जाकर शिव से
मिलती है। इस प्रकार के रज एवं वीर्य के मिलन को योग कहते हैं।
3- सूर्य एवं चन्द्र के मिलन को योग कहते है।
पिंगला नाड़ी दाएं नासारंध्र से एवं इडा नाड़ी
बाएं नासारंध्र से प्रारंभ होकर मेरूदंड से आधार तक जाती है इन दोनों के अनुसार चरणदास ने वर्णन किया है पिंगला दाहिने ओर है और इड़ा बाएं
तरफ, सुसुम्ना इन दोनों के बीच है। जब साधक विभिन्न आसन, प्राणायाम एवं मुद्रा के अभ्यास से प्राण को
साध लेता है तो साधना के परिणामस्वरूप प्राण सुसुम्नावाही होता है। कुंडलनीशक्ति
का मुख सुसुम्ना रूपी महापथ को रोके हुए रहती है। जैसे ही प्राण सुसुम्नावाही होता
है उसी क्षण कुंडलनी शक्ति का जागरण होता है और वह कुंडलनी चक्रों का भेदन करती
हुई ब्रम्हरंध्र में जाकर शिव से मिलती है।
4- जीवात्मा और परमात्मा के मिलन को योग कहते हैं।
जब योग साधक या योगी की कुंडलनी जागृत हो जाती
है तो उस साधक या योगी को समाधिष्ट अवस्था की प्राप्ति होती है। कुंडलनी की जागृत
न होने पर वह सत, रज और तम गुणों के कारण मन और रूप में आसक्त रहता है। जब तक
जीवात्मा शरीर और मन में आसक्त रहती है तब तक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो
सकता। हठ योग की क्रियाओं के आधार के द्वारा जीवात्मा शरीर मन एवं रूप के आकर्षण
से मुक्त होकर परमात्मा से मिल जाता है और साधक भौतिक जगत में स्थिर होकर ही
आध्यात्मिक जगत में विचरण करने लगते हैं। उनका सभी कार्य परमात्मा को अर्पित हो
जाता है। ऐसी स्थिति में साधक विषय वासनाओं से हट कर आध्यात्मिक आत्माओं में
प्रवेश करता है और अपने दूरगुर्णों से उपर उठकर ईश्वर के असीम सौंदर्य से एवं
माधुर्य का नित्य आनंद करता है। इस प्रकार आत्मा एवं परमात्मा के मिलन होते ही
साधक या योगी स्थिरतग्य हो जाता है अर्थात् सुख से सुखी एवं दुःख से दुःखी नहीं
होता। महर्षि पतंजली ने अपने योग दर्शन में कहा है। योग योगश्च चितवृत्ति निरोधः ।
गीता में आया है - योगः कर्मसु कौशलम्। समत्वं
योग उच्चयते।।
प्राणायाम के लिए 10 चीजों की आवश्यकता होती है-
1- प्राण, 2- आपान, 3- समान, 4- उदान, 5- ब्यान, 6- नाग, 7- कूर्म, 8- क्रिकल, 9- देवदत, 10- धनंजय।
इनमें 5 वायु प्रधान है।
सिद्वि के लिए छः
लक्ष्ण -
1- विश्वास होना चाहिए।
2- साधक का श्रद्वा युक्त होना।
3- गुरूपुजन में तत्पर्य रहना।
4- जीव मात्र में समानता का भाव रखना।
5- इन्द्रियों का संयम रखना।
6- परमित भोजन करना।
योग आरंभ करने
हेतु समय-
1- अप्रैल यानि चैत
2- मई यानि वैशाख 1 से 2 तक वसंत ऋतु
3- जून यानि ज्येष्ठ
4- जुलाई यानि आषाढ़ 3 से 4 गर्मी
5- अगस्त यानि श्रावण
6- सितम्बर यानि भाद्रपद 5 से 6 वर्सा ऋतु
7- अक्टूबर यानि आश्विन
8- नवम्बर यानि कार्तिक 7 से 8 शरद ऋतु
9- दिसम्बर यानि मार्गशीर्श
10- जनवरी
यानि पौस 9 से 10 हेमन्त
11- फरवरी यानि माघ
12- मार्च यानि फाल्गुन 11 से 12 शिशिर
15 अप्रैल से 15 मई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर
वसंत और शरद ऋतु
में योग करना उचित है।
वसंत और शरद ऋतुओं में अभ्यास करना उचित है। इन
ऋतुओं में अभ्यास शुरू करने से सिद्वि मिलती है और रोगों से छुटकारा मिलता है।
हेमन्त, शिशिर और वर्षा ऋतु में योग आरंभ नहीं करना चाहिए। यदि इन ऋतुओं में योग
अभ्यास आरंभ किया जाए वह अभ्यास रोगप्रदायक यानि रोग देने वाला हो जाता है।
योगाभ्यास आरंभ करने के लिए वसंत और शरद ऋतु को उपयुक्त और अन्य ऋतुओं को
अनउपयुक्त बताया गया है। परन्तु यह निषेध या मनाही। योग आरंभ करने वाले नए साधकों
के लिए ही है। योग्य अभ्यर्थी अनुभवी साधकों के लिए नहीं।
वसंत और शरद ऋतु
जो आरंभ में उपयोगी इसलिए है क्योंकि इनमें न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न अधिक
ठंढ़ी। इसलिए साधना का आरंभ करने वालों को गर्मी या सर्दी के कारण होने वाले
विकारों या रोगों से प्रभावित नहीं होना पड़ता है जबकि अन्य ऋतुुओं में इसकी
संभावना बढ़ जाती है।
परन्तु अभ्यार्थी साधकों के लिए कोई भी ऋतु
बाधक नहीं हो सकती। उनका अभ्यास इतना बढ़ जाता है कि उनके शारीरीक क्षमता के कारण
किसी ऋतु के परिवर्तन का प्रभाव नहीं पड़ता।
शरीर तीन प्रकार के - स्थूल शरीर, कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर
पंचकोष या कारण शरीर का वर्णन करें।
पंचकोष या कारण शरीर पांच प्रकार के- अन्मय कोष, प्राणमय कोष, मनोनमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष।
अन्मय कोष - नाड़ी में होता है। अन्मय कोष पांच
प्रकार के तत्वों से बना है।
प्राणमय कोष - इसका स्थान ह्रदय में है।
मनोनमय कोष - मन को नियंत्रित करता है। पॉच
ज्ञानेन्द्रियों और मन मनोनमय कोष में मिलता है।
विज्ञानमय कोष - पांच ज्ञानेन्द्रियॉं बुद्वि
कंट्रोल करती है।
आनन्दमय कोष - एक बार में आदमी 1 मिनट में 15 बार सांस लेता
है।
सूक्ष्म व्यायाम से हड्डियॉं बनती है।
लोकशास्त्र में बताया गया है कि 206 हड्डियॉं होती है। जितेन्द्रियों पर विजय पाते
है।
हठ योग को
अष्टांग योग भी कहते हैं।
योग आठ तरह के
हैं-
धारणा, ध्यान, समाधि
- राजयोग यानि अंतरंग योग
यम, नियम, असान, प्राणायाम, प्रत्याहार - हठ योग यानि बहिरंग
आसन क्यों ? चरन दास सुकदैव कहै बिन आसन नहीं योग।
आसन सधौ तो योग सधौ तजिरोग।। - भक्तिसागर
योगः कर्मशु कौशलम। कार्य की कुशलता ही योग है।
कोश स्थान
प्राणमय कोश ह्रदय
मनोनमय कोश मन
विज्ञानमय कोश पांच
ज्ञानेन्द्रिया बुद्वि कंट्रोल करती है।
आनन्दमय कोश
1 मिनट में 15 बार सांस लेना
अन्मय कोश नाड़ी
में।
14 बातें योगा के लिए
आसन करने से पहले ये बातें याद रखें-
1- इडा- बायीं ओर की नाड़ी
(चन्द्रनाड़ी, गंगा, ठंढ़ी नाड़ी)
2- पिंगला - दायीं ओर की नाड़ी (सूर्यनाड़ी, यमुना, गर्म)
3- सुसुम्ना - बीच की नाड़ी (न गर्म न ठंढ़ी)
4- रेचक - श्वास बाहर निकालना
5- पूरक - श्वास भरना
6- कुंभक - श्वास रोकना
7- मूलबंध - गुदा का संकुचन
8- उड्यान बंध - पेट पिचकाना
9- जालंधर बंध - चिभुक लगाना यानि गर्दन का सांस रोकना
10- षटचक्र -
11- मात्र - 1: 4: 2
12- देश - शांतिप्रिय
13- काल - वसंत ऋतु
14- आसन - सिद्वासन एवं पदमासन को रोकने की 15 मिनट की क्षमता
आ जाए।
षटचक्र - पदस्थ -
इष्ट के चरणों में देखना
पिंडस्थ -
सर्वोतम ध्यान है, चक्रों के अनुसार होता है।
रूपस्थ -
रूपातित - ज्योति, सूर्य का ध्यान।
चक्र छः तरह के
हैं - प्राण छः चक्रों का भेदन करता है-
मूलाधार चक्र, स्वादिस्टान चक्र, मणिपुरक चक्र, अनाहद चक्र, विशुद्व चक्र, आज्ञा चक्र।
चक्र का नाम स्थान रंग पंखुड़ी देवता
1- मूलाधाार चक्र गुदा लाल चार गणेश
2- स्वादिष्टान चक्र लिंग के पास (मुतेन्द्रिय)पीला छः ब्रम्ह
3- मणिपुरक चक्र नाभि नीला दस विस्णु
4- अनाहद चक्र ह्रदय सफेद बारह शिव
5- विशुद्व चक्र कंठ भूरा सोलह सरस्वती
6- आज्ञा चक्र भ्रूमध्य नारंगी दो अर्द्वनारीश्व
(पार्वती$शिव)
7- शून्य चक्र तालू, ब्रम्हरंध्र अनंत अनंत महाशिव
16 आधार - पैर का अंगुठा, टखना, घुटना, जंघा, जंघामूल, उपस्थ गुदा, नाभि, ह्रदय, कंठ, कंठ-कुप, गला, नासिकाग्र, कनपटी, भ्रूमध्य, मस्तिस्क, ब्रम्हरंध्र।
3 लक्ष्य - अंतर लक्ष्य, बाह्रय लक्ष्य, मध्य लक्ष्य।
योम पंचकम - पॉंच
आकाश
1- घटाकाश - नाभि में
2- चिदाकाश - ह्रदय में
3- महाकाश - भ्रूमध्य में
4- मठाकाश - कंठकुप में
5- परमाकाश - ब्रम्हरंध्र में
चरम सिमा पर पहुंचने के लिए आसनों को अत्यधिक
महत्व दिया गया है। चरनदास आसनों के सिद्व होने पर ही योग की सिद्वि मानी है।
अर्थात् चरन दास कहते हैं- यह निश्चय बात है
आसन के सिद्व हो जाने पर ही सिद्वियॉं मिलती है। बिना आसन के योग नहीं हो सकता।
अगर आसन की सिद्वि हो जाती है तो रोगों का नाश हो जाता है और योग्य सिद्वियॉं
अवश्य मिलती है।
आसन तीन शब्दों से बना है-
आ- आत्मशुद्वि, स- सर्वशुद्वि, न- नभशुद्वि।
आसन क्या है?
1- स्थिर सुखमासनम् -
योगदर्शन
2-
प्रयत्नशौथिल्यान्त
समापतिभ्याम
3-
ततो द्वन्दो नभिघातः
1- स्थिर
सुखमासनम् - निश्चल सुखपूर्वक बैठने का
नाम आसन है। इसका मतलब यह है कि साधक आसन की सिद्वि को प्राप्त करे अर्थात् जब आसन
स्थिर हो जाती है तब साधक निश्चिल भाव से बिना हिले डुले सुख पूर्वक अर्थात् बिना
किसी कष्ट का अनुभव किए ही बहुत समय तक जिस आसन पर बैठकर आसानी से योग का अभ्यास
कर सके उसे ही स्थिर सुखमासनम् कहते हैं।
उपरोक्त शुक्त की पूर्ति के लिए महर्षि
पतंजलि ने यह सूत्र लिखा है-
प्रयत्नशौथिल्यान्त समापतिभ्याम्।।
अर्थात् आसन की शिथिलता से और अनन्त में मन
लगाने से आसन सिद्व होता है। जब आसन की पूर्णरूपेण सिद्वि होती है तो उस योगी की
सम्पूर्ण बाह्य योग्यता शिथिल अर्थात् धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। यह भी पूर्व
सूत्र का प्रतिपादन करता है अर्थात् समाधि तक पहुंचाने का संकेत करता है।
ततोद्वन्दोनभिघातः
अर्थात् आसन की
शीत उष्ण से आदि रोगों का आभास नहीं लगता क्योंकि इसका तात्पर्य है कि शरीर को इन
सब द्वन्द्वो से सहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है क्योंकि यह बाह्य द्वन्द्व चित
को चंचल करके आसन में विध्न पहुंचाते हैं। आसन में विध्न डालकर मन को चंचल करते
हैं। इन सभी तीनों सूत्रें का अभिप्राय यह है कि आसन की सिद्वि होने पर ही योगी
समाधि को प्राप्त हो सकता है।
आसन कैसा होना
चाहिए?
आसन में बिछाया
जाता है - कुशासन, ऊनी वस्त्र, कम्बल, मृगचर्म, सूती वस्त्र।
आसन तीन शब्दों
से बना है- आ- आत्मा स -
सर्वशुद्वि न - नभशुद्वि।
घिरंड संहिता में
32 आसन है। योगशास्त्र में 84 लाख आसन बताए गए हैं- 84 लाख, 84 हजार, 84 सौ उनमें से भी 84 प्रमुख आसन है 84 आसनों में प्रमुख 32,11,9,8,4,2,1
सधारणतया प्रचलित
आसन 108 या 84 है इन 84 आसनों में भी प्रधान 32 आसन है।
32 आसन -
1-
सिद्वासन, 2- पदमासन, 3- भद्रासन, 4- मुक्तासन, 5- वज्रासन, 6- स्वास्तिकासन, 7- सिंहासन, 8- गोमुखासन, 9- वीरासन, 10- धनुरासन, 11- मृतासन/ शवासन, 12- गुप्तासन, 13- मत्सयासन, 14- मत्स्येन्द्रासन, 15- गोरक्षासन, 16- पश्चिमोतानासन, 17- उत्कटासन, 18- संकटासन, 19- मयूरासन, 20- कुक्कुटासन, 21- कूर्मासन, 22- उतानकूर्मासन, 23- उतानमंडुकासन, 24- वृक्षासन, 25- मण्डुकासन, 26- गरूडासन, 27- वृसभासन, 28- शलभासन, 29- मकरासन, 30- उष्ट्रासन, 31- भुजंगासन, 32- योगासन।
11 आसन-
1- सिद्वासन, 2- पदमासन, 3- गोमुखासन, 4- वीरासन, 5- कुक्कुटासन, 6- उतानकूर्मासन, 7- धनुरासन, 8- मत्स्येन्द्रासन, 9- पश्चिमोतानासन, 10- मयूरासन, 11- शवासन।
4 आसन -
1- सिद्वासन, 2- पदमासन, 3- सिंहासन, 4- भद्रासन।
2 आसन-
1- पदमासन, 2- वज्रासन।
शरीर के आश्रय -
शरीर के निम्न छः आश्रय है - 1- अस्ति (अस्तित्व), 2- जायते (किसने जन्म दिया), 3- वर्धते(बढ़ना), 4- पखते (परिवर्तन), 5- श्रीयते ( नाश
होना शुरू हो जाता है), 6-
नशेते ( शरीर का नाश
होना)।़
32 आसन इस प्रकार है-
सिद्वं पदं तथा
भद्रं मुक्तं वज्रं च स्वास्तिकं। सिंहम् च गोमुखम् विरम् धनुरासनमेव च।।
मुक्तं गुप्तं
तथा मत्स्यं मत्स्येन्द्रासनमेव च। गोरक्षं पश्चिमोतानं उत्कटं संकटं तथा।।
मयूरं कुक्कुटम्
कूर्म तथा चोतानकूर्मकम्। उतानमंडुकम् वृक्षं मंडुकं गरूणं वृषभ्।।
शलभं मकरं
उष्ट्रं भूजंगं च योगासनम्। द्वात्रिदासनानि तु मर्त्यलोके च सिद्विदम्।।
पंचतत्व- (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी)।
प्रकृते महान ततो
अहंकार तस्ताद गणसोडशकार तस्मादपि सोडशकात पंचम्यः पंच भूतानि।
ज्ञानेन्द्रिया कर्मइन्द्रिया सूक्ष्मभूत स्थलभूत
5 5 (तनमात्र)श्रोत वाक आकाश तनमात्र पृथ्वी
कान मुख शब्दत्वचा पाणि वायुतन मात्र
अपू हाथ स्पर्श जल चक्षु पाद तेज तनमात्र तेज पैर रसजिह्रवा गुदा जल तन मात्र वायु रसघ्राण उपस्थ पृथ्वी तनमात्र आकाशनक गंध
तत्वों के नाम -
पांच तत्वों के बारे में
उत्पत्ति - 1- आकाश , 2- वायु, 3- तेज यानि अग्नि, 4- जल, 5- पृथ्वी।
विनाश - 1- पृथ्वी, 2- जल, 3- तेज यानि अग्नि, 4- वायु, 5- आकाश और इसके बाद
सृष्टि में मिल जाते हैं।
स्वाद तीन प्रकार
के - कड़वा, खट्टा, नमकीन।
गुण छः प्रकार के
- काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, अहंकार।
धातु सात प्रकार
के - रस, रक्त, मास, भेद, अस्ति, मज्जा, शुक्र।
त्रिदोस यानि
त्रिमल तीन प्रकार के - वात, पित, कफ।
द्वियोनी -
स्त्री, पुरूष
चतुविदाहार - चार
प्रकार के आहार- भक्ष्य, भोज्य, लोह्य, चोसे।
सात धातु -
अन्न से रस
रस से रक्त
रक्त से मांस
मांस से भेद
भेद से अस्थि
अस्थि से मज्जा
मज्जा से शुक्र
रस छः प्रकार के
- खट्टा, मिठा, चर्परा, कड़वा, कसैला, नमकीन।
सतोगुण - मोक्ष
प्राप्ति नहीं होती।
शरीर
आयाम - नियंत्रण
करना
वायु को सूक्ष्म
तत्व कहा गया है।
5 कर्मेन्द्रिया - प्राणमय कोश
5 ज्ञानेन्द्रिया $ मन - मनोनमय कोश
5 सूक्ष्म क्रियाएं बुद्वि कंट्रोल करती है।
शरीर में तीन
प्रकार की अग्नि है-
1- ज्ञानाग्नि - मुख में यह शुभ अशुभ कर्मों को
बताती है।
2- दर्शानाग्नि - ह्रदय में। रूप को दिखाना।
3- जठराग्नि - पेट में । भोजन को पचाने में।
पांच प्रकार की
दृष्टि -
1- भ्रूमध्य दृष्टि - दोनों भौवों के मध्य ध्यान
रखना।
2- समदृष्टि - समदृष्टि में एक ही सीधा में एक ही
जगह देखना।
3- नसिकाअग्र दृष्टि
4- अर्धमेद्य दृष्टि
5- नेत्रबन्ध दृष्टि।
शिशु उत्पति
¬ऋतुकाले सम्प्रयोगादेक रात्रेसितं कललं भवति। सप्त
रात्रेसितं बुद-बुदं भवति।
अर्ध
मासाभ्यन्तरे पिण्डो भवति।
मासाभ्यन्तरे
कठिनो भवति।
मासद्वयेन शिरः
सम्पद्यते।
मासत्रयेण पाद
प्रदेशो भवति।
अथ चतुर्थे मासे
गुल्फ जठर कटि प्रदेशा भवन्ति।
पंचमे मासे
पृष्ठवंशो भवति।
षष्टे मासे मुख
नासिकाक्षिश्रोत्रणि भवति।
सप्तमे मासे
जीवेन संयुक्तो भवति।
अष्टमे मासे
सर्वलक्षण सम्पूर्णा भवति।
पितू रेतोअ
तिरेकात्पुरूसो मात्।
रेतोअतिरेकात्स्त्री
उभयो
वीर्य तुल्य
त्वान्नपुंसको भवति।
व्याकुलित मनसोडन्धाः
खंजाः कुंजा वामना भवन्ति।
अन्योन्य वायु
परिपीडित शुक्र द्वेविधयातनु
स्थात्ततो
युग्माः प्रजायन्ते।
अथ नवमे मासि
सर्वलक्षणा ज्ञान करण सम्पूर्णो भवति
पूर्व जाति
स्मरति शुभा"ाुभं च कर्म विदति।।
स्त्री के ¬ऋतुकाल के समय
उचित
उचित प्रकार गर्भाधान संस्कार करने पर शुक्र और रज के मिलने
से कलल जैसा होता है। पुरूष का वीर्य और स्त्री का रज मिलने से गर्भधारण होता है।
मासिक धर्म के चौथे या पांचवे दिन से ग्यारहवें से पन्द्रहवें दिन तक गर्भाधान
संस्कार करने से संतान होने की संभावना अधिक होती है। मासिक धर्म के नवें से
ग्यारहवें दिन के करीब स्त्री का तापमान 1 डिग्री से डेढ़ डिग्री तक बढ़ जाता है। जिस दिन
तापमान अधिक हो जाता है उस दिन गर्भधारण की संभावना अधिक होती है। स्त्री पुरूष के
संभोग के बाद यानि गर्भाधान के बाद गर्भ में बच्चे की आकृति कलल पानी की बूंद की
तरह होती है। सातवें दिन पो की बूंद
जैसा बन जाता है। 15 दिन के बाद अर्थात् एक पखवाड़े में पिंड बनता है। एक महिने
के अंदर कठिन हो जाता है। दो माह में सिर लग जाता है। तीन माह में पैर बन जाता है।
चौथे मास में घुटने, पेट और कमर बनती है। पांचवें महिने में रीढ़ की हड्डी बन
जाती है। छठे महिने में मुख, नाक, कान, नेत्र आदि बन जाते हैं। सातवें महिने में बच्चे
में जीव पड़ जाता है तथा कोई चीज बाकी नहीं रहता है। आठवें महिने में सम्पूर्ण शरीर
परिपूर्ण हो जाता है तथा कोई चीज बाकी नहीं रहता है। शुक्र की अधिकता से, शुक्र रज के समान
मिलने से नपुंसक यानि हिंजड़ा बच्चा पैदा होते हैं। गर्भाधान संस्कार के समय
अगर स्त्री-पुरूष व्याकुल होते है तो उस
समय के गर्भ का बच्चा अंधा, कुबड़ा, लंगड़ा, बौना पैदा होता है और यदि वीर्य का हिस्सा
स्त्री के गर्भाशय के अंदर दो हिस्सो में बंट जाए तो जुड़वा बच्चा पैदा होता है और
नवें माह में वह ज्ञानेन्द्रियों आदि से पूर्ण हो जाता है और उसे पूर्वजन्म के शुभ
और अशुभ कर्म सभी ज्ञान स्मरण हो जाते है और वह उन कर्मों का फल भोगते रहने से
सोचकर बड़ी दुःखी होता है, क्योंकि पैदा होने से पहले बच्चों को नवें महिने में बड़ा
कष्ट होता है। वह गर्भ में जठराग्नि की गर्मी से बड़ा ही व्याकुलित होता है और वह
ईश्वर से प्रार्थना करता है कि यदि जल्द से जल्द उस बालक का गर्भ से छुटकारा मिले
तो वह अच्छे कर्म करेगा। वह इस चक्र से मुक्ति प्रदान करता है परन्तु जैसा ही
बच्चा भूमि पृष्ठ पर होता है पिछले जन्म की सारी बातें भूल जाता है और नवें महिने
के बाद दसवें महिने के दसवें दिन बच्चा पैदा होता है। दसवें महिने में बच्चा कभी
भी पैदा हो सकता है क्योेंकि सातवें महिने के बाद जीव पड़ जाता है। जैसे ही बच्चा
पैदा होता है पांच तत्वों की आवश्यकता होने लगती है। नींद,
भूख, प्यास, सुख-दुख आदि के
चक्रों में पुनः पड़ जाता है। गर्भाधान करते समय पुरूष का दायां स्वर और स्त्री का
बायां स्वर, ऐसे समय में गर्भाधान करें तो लड़का ही होगा। यदि
स्त्री-पुरूष दोनों का दायां स्वर चले तो लड़का पैदा होता है। यदि पुरूष का बायां
और स्त्री का दायां स्वर चले तो लड़की पैदा होगी। यदि पुरूष का बायां और स्त्री का
भी बायां स्वर चले तो लड़की पैदा होगी। अगर सुसुम्ना स्वर चले तो बच्चा ही नहीं
होगा, अगर होगा भी तो अंगहीन या नपुंसक होगा। शुरू में ही जो स्वर चलता है और वीर्य
स्थगित होने से पहले स्वर बदल जाए जो गर्भधारण नहीं होगा अर्थात् शुरू से लेकर
वीर्य स्खलित तक एक ही स्वर चलना चाहिए।
गर्भाधान संस्कार करते समय यदि स्त्री का अंश ज्यादा होता है तो लड़की पैदा होती
है। यदि पुरूष का अंश ज्यादा हो तो लड़का पैदा होगा।
यम
महर्षि पतंजली के
अनुसार यम आठ तरह के हैं।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधी। (पां यो- 2/29)
यम का अष्टांग
योग का प्रथम अंग है। यम का शाब्दिक अर्थ नियंत्रण से है। अतः यम वह अनुष्ठान है
जिससे साधक बाह्य मुक्ता से अर्न्तमुक्ता की ओर अग्रसर होता है। यम के अभ्यास से
व्यावहारिक जीवन सात्विक एवं पवित्र बनता है। तथा साधक में राग, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह अादि की
निवृति होती है। साधक पूर्ण रूपेण शरीर एवं इन्द्रियों के नियंत्रण में सफल होता
है। हठ योग प्रदिपिका में स्वामी स्वात्मा राम जी ने दस यमों का उल्लेख किया है जो
इस प्रकार है-
अहिंसा, सत्यमस्तेय
ब्रम्हचर्य क्षमा धृतिः।
दयार्जवं
मिताहारः शौचं चैव यमा दशः।।
1- अहिंसा
अहिंसा के
प्रकार-
1- शारीरिक अहिंसा -1- शारीरिक रूप से तथा किसी अस्त्र-शस्त्र से किसी
प्राणी को न मारना शारीरिक अहिंसा कहलाती है।
2- वाचक अहिंसा - अपनी वाणी से किसी प्राणी को अपमानजनक शब्द न
कहना जिससे किसी को पीड़ा हो उसे वाचक अहिंसा कहते हैं। इसके विषय में कबीर दास का
मत है-
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय
औरन को शीतल करे आपन शीतल होय।
3-बौद्विक अहिंसा
(मानसिक अहिंसा) - अपनी बुद्वि में किसी के लिए अहित का विचार न लाना ही
बौद्विक अहिंसा कहलाती है।
अहिंसा - भगवान
बुद्व के अनुसार अहिंसा परमम् धर्म अर्थात्, अहिंसा ही परम धर्म है। भक्तिसागर में इसका
बहुत अच्छा विवरण मिलता है। प्रथम अहिंसा ही सुन लीजै, मन करि काहु दोष न दिजै।
कडुआ वचन कठोर न कहिए,
जीवघात तन सो नहि दहिये।
तन मन वचन न कर्म
लगावै, यहीं अहिंसा धर्म कहावै।।
अहिंसा का पफ़ल
- जब अहिंसा की प्रतिष्ठा किसी साधक में
पूर्ण रूपेण हो जाती है तो हिंसक पशु या व्यक्ति भी उस साधक के सामने आकर अहिंसक
हो जाता है। जैसे कि महर्षि पतंजली ने कहा है -
अहिंसा
प्रतिष्ठायाम तत् सन्निधौ वैर त्याग।
संयम - संयम का
विकास जीवन सापेक्ष है। संयम का विकास करने के लिए जीवन को बनाए रखना आवश्यक है।
अहिंसा का सीधा संबंध संयम से है। इसलिए जीवन को कोई महत्व नहीं दिया जा सकता।
जीवन बना रहे और संयम न हो तो वह अहिंसा नहीं होती।
2- सत्य
सत्य यम का दूसरा
अंग है। सत् से तात्पर्य असत्य भाषण न करने से है। जैसा देखा, जैसा महापुरूषों
से सुना और जैसा अनुभव किया उसको उसी प्रकार से समझना, उसी के अनुरूप कहना और उसी के अनुरूप आचरण करना
ही सत्य कहलाता है।
सत्य के प्रकार -
1- सत्य के अनुसार
ही शरीर से कर्मों को करना शारिरीक सत्य है। वैसा ही बोलना वाचिक सत्य है एवं वैसा
ही बुद्वि में धारण करना बौद्विक या मानसिक सत्य है। मनु के अनुसार,
सत्यम् ब्रूयात
प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यं अप्रियं।
प्रियं च नानृत
ऐज धर्म सनातनः।।
अर्थात्, साधक को हमेशा
हितकारी सत्य बोलना चाहिए, हितकारी कर्म करना चाहिए, जो कि दूसरे को अच्छा लगे, यही सनातन धर्म
है।
सत्य का महत्व
तथा पफ़ल -
‘ सत्यमेव ज्यते नानृतं (मुंड़कोपनिषद) (3-1-6)
अर्थात् सत्य की
विजय होती है झूठ की नहीं।
सत्य की महिमा का
वर्णन करते हुए कहा गया है-
‘‘ अश्वमेध सहसत्रं च सत्यम् च तुल्या धृतम्।
अर्थात् एक हजार अश्वमेध यज्ञों के पूर्ण स्थलों को यदि
सत्य के साथ तुला में रखकर तौला जाए तो सत्य ही भारी निकलेगा। कवियों ने भी सत्य
के बारे में कहा है-
सांच बराबर तय
नहीं झूठ बराबर पाप, जाके ”दय सांच है ताके ”दय आप।
जब किसी साधक के
अंदर सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है या सत्य का पालन करता है तो महर्षि पतंजली ने
कहा है- सत्य प्रतिष्ठायाम क्रिया फलाश्रयत्वं (पातंजल योग (2/36)
अर्थात्, यह सूत्र स्पष्ट
कर रहा है कि सत्यनिष्ठ व्यक्ति का वचन सदा फलिभूत होता है।
3- अस्तेय
अस्तेय का शाब्दिक अर्थ चोरी न करने से है।
महर्षि याज्ञयवलक्य के अनुसार -
‘‘मनसा वाचा कर्मणा पर दव्येसु निस्पृहः।
अस्तेयमिति समप्रोक्तम रिजिभिः
तत्वदठिभिः।। - याज्ञवल्क्य संहिता
अर्थात्, अनाधिकृत रूप से
पराई वस्तु की मन वचन वाणी एवं कर्म से इच्छा न करना ही अस्तेय है। दूसरे शब्दों
में हम कह सकते हैं कि किसी भी ऐसी वस्तु की इच्छा न करना जो स्वयं के द्वारा
उपार्जित न हो। उसे अस्तेय कहते हैं।
शारीरीक रूप से किसी वस्तु को न चुराना शारीरीक अस्तेय है। झूठ
न बोलना एवं झूठ बोलकर किसी वस्तु को प्राप्त न करना वाचिक अस्तेय है तथा जो
सच्चाई है उसे ही बुद्वि में रखना एवं उसके अनुरूप आचरण करना बौद्विक (मानसिक)
अस्तेय कहलाता है।
फल - महर्षि
पतंजली ने योग दर्शन में अस्तेय के फल का इस प्रकार उल्लेख किया है-
अस्तेय प्रतिष्ठायाम
सर्वरत्नोपस्थानं। (पं- यों 2/37)
अर्थात् जब साधक
अस्तेय में सम्पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है तो साधक को सभी प्रकार के रत्न
प्राप्त हो जाते हैं। भक्ति सागर में उल्लेख है-
तीजे अस्तेय
त्याग सुनिजै, तन मन सो कछु नाहिं हरिजैं।
4- ब्रम्हचर्य
ब्रम्हचर्य यम का चौथा एवं अत्यधिक महत्वपूर्ण
अंग है। इसका शाब्दिक अर्थ ब्रम्ह में विचरण करना है। यह ऐसे आचरण से है जिसमें
ईश्वर की समीपता अधिकाधिक प्राप्त हो।
योगदर्शन में
महर्षि पतंजली ने कहा है-
ब्रम्हचर्य
गुप्तेन्द्रिस्योपस्थस्य संयमः।
अर्थात् गुप्तेन्द्रियों का संयम ही ब्रम्हचर्य है।
ब्रम्हचर्य
उपस्थस्य संयमः।
अर्थात्, उपस्थ संयम से
तात्पर्य वीर्य या रज के संरक्षण से है क्योंकि वीर्य का नाश मृत्यु की ओर उन्मुख
करता है और वीर्य रक्षण ही जीवन है। इसके विषय में हिरण्यसंहिता में कहा है
‘‘मरणं विन्दु पातेन। जीवनं विन्दु धारणात।।
अर्थात वीर्य का
नाश ही मृत्यु है और ब्रम्हचर्य (वीर्य की रक्षा ही जीवन है।)
याज्ञवलक्य
संहिता में कहा है-
मनसा वाचा कर्मणा
सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुन
त्यागो ब्रम्चर्य प्रचक्षते।।
अर्थात्, मन, वाणी एवं कर्म से
सब अवस्था में सदा सब जगह को त्याग देना पूर्ण ब्रम्हचर्य कहलाता है।
योग में मैथुन को आठ भागों में विभक्त किया है-
1-
नारी का स्मरण, 2- चर्चा करना, 3- बात-चीत करना, 4- खेलना-कूदना, 5- सौन्दर्य की
अनुभूति करना, 6- गुप्त बात (एकान्त में बात करना),
7- कामवासना की कामना करना, 8- काम में लिप्त
होना आदि ब्रम्हचर्य में बाधक है।
वेद के अनुसार
वीर्य धारणं
ब्रम्हचर्य।
अर्थात् वीर्य के
धारण (रक्षा करने से) करने से है। लेकिन इस वीर्य की रक्षा कैसे की जाए। उसका
उल्लेख दक्ष संहिता में इस प्रकार किया गया है। यहॉं अष्टविधि मैथुन त्याग को
ब्रम्हचर्य कहा गया है।
‘‘स्मरणं कीर्तन केलिः प्रेक्षणं गुप्त भाषणम्।
संकल्पोधयवसायश्च क्रिया निवृतरेव च।।
एतन्मैथुन
मष्टागं प्रवदनित मनीषिणाः। वपरीतं ब्रम्हचर्य मेत देवाष्ठ लक्षणम्।।
ये अष्ठ विधि
मैथुन इस प्रकार के है-
1- कामना पूर्ण मन से कामनी का स्मरण करना, 2- कामनी का सौन्दर्य आदि का लागात्मक वर्णन,
3- उसके साथ एकान्त में क्रीड़ा, 4- उसे लागात्मक दृष्टि से देखना,
5- उसके साथ एकान्त में विद्यालाप करना, 6- उसकी प्राप्ति का संकल्प
7- प्राप्ति के लिए प्रयत्न 8- क्रियानिष्पति
अर्थात् काम में लिप्त होना।
इन आठों का त्याग करना ही ब्रम्हचर्य है। उपर
से देखने में अष्ठ विधि क्षेत्रें का अति विस्तृत प्रतित होता है जबकि इनकी
अपेक्षा व्यास के अनुसार, गुप्तेन्द्रिय संयम का क्षेत्र सीमित प्रतित होता है। किंतु
ऐसी बात नहीं है। व्यास जी की परीभाषा पूर्ण अष्ठविधि मैथुनों को अपने ओर समाहित
किए हुए है।
ब्रम्हचर्य के
प्रकार -
ब्रम्हचर्य तीन
प्रकार का है-
1- शारीरीक ब्रम्हचर्य - अर्थात् शरीर से ऐसी कोई भी चेष्टा न
करना जिससे कि रज एवं वीर्य का स्खलन हो। ऐसा आहार नहीं करना जिससे काम जागृत हो।
2- वाचक ब्रम्हचर्य - वाचक ब्रम्हचर्य का अर्थ यह है कि अपनी
वाणी से ऐसे शब्द या ऐसी बातचीत या चर्चा नहीं करना है जिससे कि काम जागृत हो।
3- बौद्विक ब्रम्हचर्य - बौद्विक ब्रम्हचर्य का अर्थ यह है कि
बुद्वि से ही काम के विचारों को न आने देना। ब्रम्हचर्य का पालन करने वाले को
चाहिए कि वह काम संबंधि कोई भी विचार अपनी बुद्वि में न आने दे। कोई ऐसा साहित्य न
पढ़े, ऐसा दृश्य भी न देखें जिससे काम को बढ़ावा मिले।
ब्रम्हचर्य के
महत्व तथा फल -
ब्रम्हचर्य की
साधना से शारीरीक, मानसिक तथा बौद्विक विकास होता है। शास्त्रें में ऐसा भी
कहा है- जो साधक ब्रम्हचर्य का पूर्ण रूप से पालन करता है उसके शरीर से सुगंध आने
लगती है और जब बिन्दु स्थिर हो जाता है तो उसे मृत्यु का भी भय नहीं रहता है।
महर्षि पातंजली के अनुसार-
ब्रम्हचर्य
प्रतिष्ठायां वीर्य लाभः (पा - यो- 2/36)
अर्थात् जब साधक
में ब्रम्हचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति हो जाती है तब उसके मन, बुद्वि, इन्द्रिय और शरीर
में अपूर्व शक्ति का प्रादूर्भाव हो जाता है। जिससे विभिन्न सिद्वियों की प्राप्ति
होती है। साधारण आदमी (मनुष्य) किसी काम में भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते।
5- क्षमा
क्षमा से तात्पर्य दूसरों के द्वारा किए गए
अपराध या अभिनय पूर्ण व्यवहार को भूल जाने से है। अर्थात् किसी रूप में उससे बदला
न लेने से है।
क्षमा के प्रकार
-
1- शारीरीक क्षमा - शारीरीक क्षमा का अर्थ यह है कि यदि कोई
मनुष्य हमारे लिए बुरा कार्य करता है तो हम अपने शरीर से कोई ऐसा कार्य न करें
जिससे कि उसका अपकार हो।
2- वाचिक क्षमा - वाचिक क्षमा का अर्थ यह है कि हम अपनी वाणी
से उन व्यक्तियों के लिए ऐसे शब्द बोलें जिससे कि उन व्यक्तियों का अपकार हो जो
हमारे लिए अपकार हो, बल्कि हम ऐसे शब्द बोले जिससे उनकी भलाई हो।
3- बौद्विक क्षमा - बौद्विक क्षमा का अर्थ है कि हम उन
व्यक्तियों के बारे में कोई अपकार की बात नहीं सोचें, जो हमारे लिए बुराई करते हैं बल्कि हमें उनके
उपकार के बारे में ही सोचना चाहिए। जब साधक शारीरीक, वाचिक तथा बौद्विक स्तर पर क्षमा का पालन करता
है अर्थात् किसी भी स्तर पर अपने लिए किए गए अपकार का बदला नहीं लेता है तो साधक
में अपूर्व शांति और निश्चिलतता आती है।
महत्व - क्षमा
क्रोध को शांत करने का अद्भूत शास्त्र है। क्रोध के नाश होने पर काम, लोभ, हिंसा, चोरी आदि सभी
दोषों का अंत हो जाता है। क्षमा का महत्व इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है-
‘‘क्षमा बलं अशक्तानाम शक्तानाम् भूषणं क्षमा।
क्षमा वशीकृते
लोके क्षमाया किं न सिद्वियति।।
अर्थात् क्षमा
शक्तिहीन का ताकत ही शक्तिशाली का आभूषण है। क्षमा गुण से संसार के सभी लोग उस
व्यक्ति के वश में हो जाते हैं तथा क्षमा से सभी कार्याें की सिद्वि होती है।
क्षमा गुण से संपन्न व्यक्ति या साधक पर दोष संगति का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके
बारे में शास्त्रें में उल्लेख है-
क्षमा बड़न को
चाहिए छोटन को उत्पात। का रहीम हरी को घटियो जो मृगु मारि लात।।
क्षमा भाव
स्थापित होने पर आन्तरिक, बाह्य, एवं बौद्विक शक्ति साधक को प्राप्त होती है।
इसके महत्व के बारे में शास्त्र में
उल्लेख है-
नरश्य भरणं रूप, रूपस्थ भरणं गुण।
गुणश्य भरणं ज्ञान, ज्ञानस्य भरणं
क्षमा।।
पुनः इन दो पंक्तियों
में भी क्षमा के महत्व को दर्शाया है।
‘‘जो तो कौ कॉंटा बोय ताहि बोय तू फूल। तोको फूल का फूल है
बाकौ है त्रिशूल।।
6- धृति
धृति यम का छठा अंग है। व्यक्ति के द्वारा किए
गए कार्य के फलाफल के प्रति प्रतिक्षा की जो ऊॅची भावना होती है वही धृति कहताली
है। धृति का शाब्दिक अर्थ धैर्य है। इसका तात्पर्य धारणा की दृढ़ता से है अर्थात्
मन में निर्मित विचार, परमान अपमान फलाफल की चिंता न करके वह सतत प्रयत्नशील रहने
का गुण ही
धृति कहलाता है।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि विषम या
प्रतिकूल परिस्थितियों में न घबराना बल्कि अपने उदेश्य की प्राप्ति के लिए और भी
जी जान से जूट जाना धैर्य कहलाता है।
धैर्यवान साधक विपत्ति के दिनों में भी अपने इस
गुण के कारण सदैव योग्य लक्ष्य की ओर ही अग्रसर रहता है। इसके अभाव में साधक का
भौतिक सुख सुविधाओं की ओर आकर्षित होने का भय रहता है। महात्मा कबीर ने धैर्य के
विषय में कहा है-
धीरे-धीरे रेमना, धीरे धीरे सब कुछ होय। मली सीचैं सो घरा, रितु फल होय।।
कबीर दास जी ने धैर्य के बारे में कहा है-
धीरज रहा तो सब रहा काहु सो न डराय। सिंह प्रेत अरू काल
धीरज से डर जाए।।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि धृति का अभाव
साधक को संकल्पवान एवं आत्मिक शक्ति प्रदान करता है जिससे वह साधना मार्ग में
निश्चित ही आगे बढ़ सकता है।
7- दया
दीनेषु अनुकंपा स दया।
किसी भी प्राणी को दुखी अवस्था या कष्ट में
देखकर अपने ”्रदय में उसके दुःख या कष्ट का अनुभव करना एवं अपने
पुरूषार्थ से उपार्जित संपति द्वारा उसकी सहायता करना या दुःख दूर करना या ऐसी
इच्छा करना ही दया है।
सभी प्राणियों को
आत्मबद्व (अपने से जोड़कर) देखना दया के अन्तर्गत आता है।
तुलसी दास ने कहा
है-
दया न जाके ”्रदय बसि, सो नर पशु समान।
पर निज अन्तर न
लखै, सचि दया निधान।।
पुनः इन के ही
अनुसार -
दया धर्म का मूल
है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न
छोड़िए, तब तक घट में प्राण।।
दया भाव के आते
ही साधक के अन्दर सत गुण की वृद्वि होती है। वह सुख-दुख, माया-मोह, तेरा-मेरा आदि के आकर्षण से उपर उठ जाता है तथा
उसके लिए सम्पूर्ण ब्रह्याण्ड ही अपना हो जाता है।
8- आर्जव
-आर्जव का अर्थ है कोमलता, सरलता से है। व्यक्तित्व की कोमलता, सरलता को ही
आर्जव कहते हैं। इसकी साधना से साधक के ह्रदय में शत्रु या मित्र के प्रति समान
भाव बना रहता है। वह राग, द्वेष, काम, लोभ आदि द्वन्दों से मुक्त रहता है। यदि साधक
में आर्जव गुण का अभाव होता है तो वह उपरोक्त द्वन्द से ग्रसित हो जाता है जिससे
उसकी स्थिरता या एकाग्रता भंग हो जाती है। फलस्वरूप योग साधना पथ में उसका आगे
बढ़ना कठिन हो जाता है।
साधक को मधुरभाषी होना चाहिए। उसके व्यक्तित्व
में कोमलता, धार्मिक ग्रंथ के अध्ययन से तथा सत्संग से आती है और उसमें
सत गुण की वृद्वि होती है। इस गुण के कारण साधक में अहिंसा, सत्यवादिता की
भावना जागृृत होती है तथा अहंकार का भाव पूर्णरूपेण कोमलता में विलिन हो जाता है
जिससे साधक योग साधना के उच्च मार्ग में अग्रसर होता है।
9- मिताहार
मित $ आहार, यहॉं मित का अर्थ अल्प है। एवं आहार का अर्थ
भोजन है। अर्थात् अल्प एवं संतुलित आहार को ही मिताहार कहते हैं। संतुलित आहार से
तात्पर्य शुद्व, सुमधुर एवं चिकनाई युक्त भोजन से है जो कि शीघ्र पचनेवाला
तथा धातु का पोषक हो।
वर्जित आहार -
योग साधना के लिए
वर्जित आहार -
योग साधक को कटु
पदार्थ जैसे - करैला
अम्लीय पदार्थ-
इमली
अतितिक्षण -मिर्च, चटपटी मसाले
लवण- नमकीन आदि
उष्ण (गर्म) -
गुड़ आदि तेल, तिल, लहसुन, प्याज, मांस-मदिरा, मछली, तम्बाकू, दही, मठा, बेर, हिंग, अत्यधिक ठंढ़ा या अत्यधिक गर्म, अत्यधिक चाय, काफी, बासी खाद्य
पदार्थ योगाभ्यास में वर्जित है।
संतुलित आहार -
योगाचार्यो के मतानुसार योगाभ्यासी को राजशिक, तामसिक भोजन न करके सात्विक भोजन ही करना
चाहिए। यह सात्विक भोजन भी अल्पमात्र में लेनी चाहिए। भोजन कितनी मात्र में लेनी
चाहिए इसके बारे में योगशास्त्र में उल्लेख है।
अन्नेन चतुर्थांस
अर्धत्वेन तश्तीयकं।
उदरस्य चतुर्थांस
संरक्षेत वायुचारणम्।।
अर्थात्, साधक को जितनी
भूख हो उसका आधा () भाग अन्न से , भाग पानी से तथा शेष भाग को वायु के
आवागमन के लिए खाली (संरक्षित) रखना चाहिए। योग साधक के लिए संतुलित आहार का सेवन
आवश्यक है क्योंकि सात्विक भोजन को यदि आवश्यकता से अधिक लिया जाए तो वह शरीर में
निद्रा, आलस्य आदि की वृद्वि करता है। जिसका प्रभाव साधक की साधना पर पड़ता है।
संतुलित आहार और
सात्विक आहार इस प्रकार है-
पुष्टं सुमधुरं
स्निग्धं गत्यं धातु प्रपोषणं।
मनोभिलिजतं
योग्यं योगी भोजन माचरेत।।
अर्थात्, खाद्य भोजन
पौष्टिक हो, सुमधुर निष्ट हो एवं चिकनाई युक्त हो एवं धातु को पुष्ट
करने वाला हो तथा मन को अच्छा लगे ऐसा भोजन योगी का होना चाहिए जो साधक योगारंभ
करने के समय में मिताहार न करे एवं उसके बिना ही योगाभ्यास करे तो उसके शरीर में
अनेक व्याधियॉं उत्पन्न हो जाती है एवं उसे योग में किंचित मात्र (थोड़ी सी) सिद्वि
नहीं मिलती। इसके बारे में घिरण्ड संहिता में उल्लेख है-
मिताहारं
विनायस्तु योगारंभ तु कारयेत।
नानारोगो
भवेतस्य किंचित योगे न सिद्वियति।। (घिरण्ड संहिता 5/16)
10- शौच
शौच का अर्थ स्वच्छता या पवित्रता से है।
शौच दो प्रकार का
माना गया है- 1- बाह्य शौच, 2- आंतरिक शौच।
1- बाह्य शौच - बाह्य प्वित्रता शरीर में उपस्थित मलों को बाहर
निकाल देने से होती है। इसमें शरीर को जल आदि से पवित्र किया जाता है। ठीक समय पर
मल त्याग करना, ऑंख, नाक, कान, मुख आदि की पवित्र जल द्वारा सफाई करना इत्यादि बाह्य शौच
के अन्तर्गत आती है। शारीरीक शुद्वि षट्कर्मों के द्वारा की जाती है जैसे - कुंजल, सूत्रनेति, जलनेति, धौति, वस्ति, नेति, नौलिकी, त्रटक एवं
कपालभाति आदि से शरीर के अंगों की सफाई होती है। शारीरीक शुद्वि से शरीर हल्का एवं
स्वस्थ हो जाता है। जिसके कारण साधक के अन्दर उत्साह, उमंग आदि भावना जागृत हो जाती है।
2- आंतरिक शौच - आंतरिक शौच का अर्थ मन एवं भावनाओं की
प्वित्रता से लिया गया है। राग, द्वेष, लोभ, मोह, अहंकार आदि मन के मैल माने गए हैं। इनकी
पवित्रता चित की अन्तमुखी वृत्ति संयम के द्वारा की जाती है। परमात्मा का स्मरण
करने, परमात्मा भाव रखने से सुख-दुख, राग द्वेष, काम क्रोध, वासना का विसर्जन तथा मानसिक शुद्वि होती है।
महात्मा कबीर ने बाह्य शौच के स्थान पर आन्तरिक शुद्वता, मन एवं भावना की स्वच्छता को अधिक श्रेष्ठ माना
है। मन के अनुसार शरीर की शुद्वि जल द्वारा स्नान आदि से होती है। सत्य आचरण से मन
की तप और विद्या से आत्मा की तथा ज्ञान के द्वारा बुद्वि की शुद्वि होती है। शौच
की प्रतिष्ठा होने से साधक को अपने शरीर से अनाशक्ति का भाव और किसी भी दूसरे
प्राणी के शरीर को स्पर्श करने की इच्छा नहीं होती है।
नियम
नियम का अर्थ
आचार के अनुरूप आचरण करना ही है। व्यापकता से नियम का अर्थ सदाचार के ऐसे नियमों
का पालन करना है जो साधक के अंदर आधयात्मिक गुणों का विकास करे।
सामाजिक मूल्यों
के प्रति साधक को सजग तथा सचेत रखें। सम्पूर्ण मानवीय तथा साधकीय जीवन में आचरण
संबंधी नियमों का पालन करना तथा उसके द्वारा मार्गणिवेषण पर गमन करना ही नियम कहलाता है।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि नियम वह
अनुष्ठान है जिससे समाज व साधक के मध्य सामाजिक, शारीरीक, बौद्विक एवं आघ्यात्मिक य स्थापित होता है।
नियम के अंग
सुत्रकार महर्षि
पतंजली ने पांच अंगों को माना है। जैसे - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणी ध्यान। परन्तु
याज्ञवल्कय रिषि ने नियम के दस अंगों का उल्लेख किया है।
तप, संतोष, आस्तिकता, दान, ईश्वर पूजन, सिद्वांत वाक्यों
का श्रवण, लज्जा, मति, जप और हवन ये नियम के दस अंग माने गए हैं।
तप- तप का अर्थ
है तपस्या साधना अर्थात् द्वन्द्वो को सहन करने योग्य शरीर को बनाने से है। तप के
विषय में महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है- शास्त्रीय विधि से कृच्छ, चन्द्रायण आदि
वृतों द्वारा शरीर को सुखाना अर्थात् योग साधना के अनुरूप बनाना ही उतम तप कहा गया
है।
वास्तव में मन को वश में करना, बुरी आदतों का
परित्याग तथा विषयों से परे हटना ही तप है।
भक्ति सागर में
चरण दास ने कहा है -
पहला तप इन्द्रिय वश कीजिए, इनके स्वाद सभी
तप दीजे
खाते पीते सोवत
जागत योगी इन्द्रिय कुवश राखत
तनकु वश कर भनकु भारे ऐसी विधि तप का अंगधार।
अर्थात् तप से
असंभव कार्य भी संभव हो जाता है।
रामचरित मानस में
वर्णन मिलता है-
तप बल रचै प्रपंच
विधाता, तप बल विष्णु सकल जगत्रता।
तप बल शंभु करे
संहारा तप बल शेष धरै महि धारा।
तप बल सकल ही
सृष्टि भवानी करहु जाय तप आस जिय जानि।।
महर्षि व्यास तप
के विषय में कहा है-
तपो द्वन्द्वं
सहनम्।
अर्थात् तप के
प्रभाव से ही द्वन्द्वो को अर्थात् कष्टों को सहन करने की शक्ति आ जाती है। भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य साधक को
नहीं सताता है। मन व बुद्वि के विकार समाप्त हो जाते हैं।
2- संतोष -तप के पश्चात दूसरा स्थान संतोष का है। तृष्णाओं का
परित्याग ही संतोष है। अप्राप्त वस्तु की इच्छा ना करना और प्राप्त हो जाने पर
इष्ट और अनुष्ठ में राग द्वेष ना करना संतोष है। इच्छा से अपने कर्मो के अनुसार जो
कुछ थोड़ा बहुत अन्न वस्त्र मिल जाए उसे ग्रहण कर उसी में प्रसन्न रहना और समस्त
मानसिक दुखों को सहन करना (हर्षपूर्वक ही) संतोष कहलाता है।
भक्तिसागर के
अनुसार-
साधक के लिए
संतोष का होना अति आवश्यक है। क्योंकि जब तक संतोष नहीं होता तब तक इन्द्रिया वश
में नहीं होती हैं।
पतंजली के
अनुसार-
संतोषादनुत्तम
सुखलाभः।
अर्थात् संतोष
वृति से साधक को सर्वोतम सुख की प्राप्ति होती है, क्योंकि साधक अपनी आवश्यकताओं पर सीमित हो जाता
है।
3- आस्तिकता-
आस्तिकता नियम का
तीसरा अंग है- इसका अर्थ ईश्वर विश्वास और शास्त्रें में श्रद्वा से है। गुरू के
वचनों पर प्रेम पूर्वक श्रद्वा रखकर उसी के अनुरूप व्यवहार करना ही आस्तिकता है।
गीता में कहा गया
है-
श्रद्वावान लभते
ज्ञानम्।
अर्थात् श्रद्वा
रखने वालों को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। विश्वास में मनुष्य की संकल्प शक्ति
और आत्म बल बढ़ते हैं। तथा योगी अपनी साधना
में सफलता प्राप्त करते हैं। विश्वास टुट जाने पर साधक भी बीच में ही टुट जाती है।
अर्थात् साधना निष्फल हो जाती है। अतः साधक को वेदादि शास्त्रें, धर्म ग्रंथों आदि
में विश्वास रखना चाहिए। यही सच्ची आस्तिकता है।
4- दान -दान नियम का चौथा अंग है। किसी वस्तु से
अपना अधिकार हटाकर दुसरे का अधिकार कर देना ही दान कहलाता है।
याज्ञवलक्य
संहिता में इस प्रकार दान का वर्णन मिलता है-
न्यायपूर्वक
अर्जित किए गए धन को योग्य पात्रें को ही दान करना चाहिए। दानशीलता एक ऐसा गुण है
जिससे साधक की आत्मिक उन्नति होती है। दूसरे के कार्यों में उसकी रूची होती हैं।
भक्तिसागर में
दान के स्वरूप व फल का स्पष्ट वर्णन किया गया है-
दान के बारे में
नीति ग्रंथों में कहा गया है कि कान की शोभा वेदादि शास्त्रें , ग्रंथों के श्रवण
करने से है कुंडल पहनने से नहीं। हाथों की शोभा दान करने से बढ़ती है कंगन पहनने से
नहीं। शरीर की शोभा दूसरो की करूणा करने से होती है। चंदन आदि सुगंधित पदार्थों से
नहीं। यह दान धन, विद्या,पशु, जल आदि किसी भी प्रकार का हो सकता है। लेकिन
योगग्रंथों में व अन्य ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ दान अन्न को ही बताया गया है।
अर्थात् सैकड़ों घोड़ों का, हजारों गायों का
तथा लाखों हाथी दान किए जाए, इतना ही नहीं सोने चांदी के पात्र अथवा समुद्र
पर्यन्त पृथ्वी का ही क्यों ना दान किया जाए तथा सुंदर कुल की सुंदर बहुओं तथा
करोड़ों कन्याओं का ही क्यों ना दान किया जाए। ये सभी अन्न दान की तुलना में
तुच्छ होते हैं। अतः अन्न का दान श्रेष्ठ
माना है।
तुलसीकृत रामायण
में इस प्रकार वर्णन है-
प्रकटि चार पद
धर्म के कलमहु एक प्रधान। येन केन विधि दिन्हे दान करिये कल्याण।।
5- ईश्वर पूजन- नियम का पांचवा अंग ईश्वर पूजन का
है। ईश्वर का अर्थ है ईश्वर में श्रद्वा रखकर मन, वचन और कर्म से ईश्वर का ध्यान करना, तथा धूप,पुष्प आदि से
अराधना करना ईश्वर पूजन है। अर्थात् ईश्वर अदृश्य, अनंत और शास्वत है। वही जगत का सृजनकर्ता, पालनकर्ता है।
अतः निर्मल होकर ईश्वर की सत्ता को स्वीकारते हुए शक्ति एवं भक्ति से उसका पूजन
करना ही ईश्वर पूजन कहलाता है।
याज्ञवलक्य
संहिता में कहा गया है-
मन में ईश्वर का
अस्तित्व मानकर विष्णु, शंकर, महेश किसी भी अभिष्ठ देवता को प्रेमपूर्वक
यथाशक्ति आर्चना करना ही ईश्वर पूजन कहा गया है।
तुलसी दास के
अनुसार- ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
अर्थात् जीव को
उसी ईश्वर का अंश बताया गया है जब साधक को आत्मा के अमरत्व का बोध हो जाता है। तब
वह सम्पूर्ण संसार के रहस्य को भली भाति समझ लेता है। इस प्रकार समाधि का अंतिम
लक्ष्य आत्म दर्शन ईश्वर पूजन से ही संभव है।
यह आवश्यक नहीं है कि मूर्ति पूजा धुप, दीप, पुष्प आदि से की
जाए। ईश्वर पूजा तो तन और मन ईश्वर में लगाने से ही होती है।
पूजा दो प्रकार
से की जाती है- (1) सगु
ण ब्रम्ह, (2) निर्गुण ब्रम्ह।
सगुण ब्रम्ह की
उपासना में अवतार को मानते हैं। इसके विपरीत निर्गुण ब्रम्ह की उपासना में
मूर्तिपूजा न करके आत्मा और परमात्मा को एक मानकर सभी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर आत्मा में ही लगा दिया जाता
है। दोनों प्रकार की पूजा का उद्ेश्य एक ही है आत्म ज्ञान प्राप्त करना और
परमात्मा का साक्षात्कार करना। योगसाधना का भी यही उदेश्य है। भक्तिसागर में ईश्वर
पूजन के विषय में कहा गया है-
पंचम ईश्वर पूजन
करिय तनमनबुद्वि जहां लय धरिये।
हवै निष्काम तजै
सब आशा सेवा करै मोय निज दासा।।
6- सिद्वांत वाक्य श्रवण-
यह नियम का छठा अंग है। सिद्वांत वाक्यों का
सुनना, सिद्वांत वाक्य श्रवण कहलाता है। याज्ञवलक्य संहिता में इसके विषय में लिखा
गया है-
विद्वानों ने
वेदांत वाक्यों के श्रवण करने को ही
सिद्वांतवाक्य श्रवण कहा है। तात्पर्य यह कि सिद्व पुरूषों द्वारा जो शब्द समय-समय
पर बोले जाते हैं वे शास्त्र का रूप ले लेते हैं। इन शास्त्र वचनों को सुनने के अज्ञान गुरू होता है। ज्ञान का प्रकाश बढ़ता
है। भक्तिसागर में सिद्वांतवाक्य श्रवण का पालन करने के लिए साधक को प्रेरित किया गया
है-
पतंजली योग दर्शन
में सिद्वांत वाक्य श्रवण को ही स्वाधयाय का नाम लिया गया है। ज्ञान के बिना मोक्ष
नहीं मिलता और ज्ञान स्वाधयाय से प्राप्त होता है। साधक को चाहिए कि प्रतिदिन
स्वाधयाय कर वह शास्त्र वचनों का श्रवण करे और मनन करे तथा उनके सार को ग्रहण करे।
अतः साधक का कर्तव्य है कि वह वेदांत ग्रंथों एवं योग ग्रंथों का व सिद्व पुरूषों
के उपदेशों का श्रवण कर पालन करे। ऐसा करने से साधक का लगाव साधना पद में हमेशा
बना रहता है और वह निश्चित रूप से अपने साध्य को प्राप्त कर लेता है।
7- ह्री (लज्जा)- यह नियम का सातवां अंग है। ह्री
का अर्थ है लज्जा। अपने द्वारा कोई भी गलत
काम हो जाने पर मन में पश्चाताप की जो भाव उत्पन्न होते हैं वही लज्जा कहलाती है।
जाबालोपनिषद में
कहा गया है-
वैदिक रूप से या
लौकिक रूप से कोई भी बुरा कार्य होने पर लज्जा उत्पन्न होती है, उसी को ह्री या
लज्जा कहा गया है।
सबसे बड़ी लज्जा तो ईश्वर से करनी चाहिए। ईश्वर
से लज्जा का अर्थ है कि मनुष्य अपनी बुरी भावनाओं और बुरे भावों का परित्याग करें
।
भक्तिसागर में
चरण दास जी कहते हैं-वह नर लकड़ी की ठुठ के समान होता है जिस प्रकार फल और पतों के
बिना पेड़ किसी के भी कोई काम नहीं आता ठीक उसी प्रकार निर्लज व्यक्ति का जीवन भी
निरर्थक होता है। अतः साधक को मन में लज्जा अवश्य धारण करनी चाहिए।
8- मति (बुद्वी) -
नियम का अठवा अंग
है मति। जिसका अर्थ है बुद्वी। अर्थात् सम्पूर्ण व्यवहार हेतु ज्ञान का नाम ही
बुद्वी है। मति के विषय में रिषि याज्ञवलक्य ने बड़े ही सुंदर शब्दों में लिखा है-
अच्छे कामों को करने से मन में जो श्रद्वा उत्पन्न होती है वह मति कहलाती है।
वेदों में कहे गये योगादी सतकर्मों के विषय में जो संचय रहित श्रद्वा वह भी भक्ति
कहलाती है। मति दो प्रकार की होती है। (1)कुमति, (2) सुमति।
बुरे कार्यो में
उत्पन्न रूची कुमति तथा अच्छे कार्यों में उत्पन्न रूची सुमति कहलाती है। जहां
बुरे कार्य निंदनिय होते हैं, वहीं अच्छे कार्य प्रशंसनीय होते हैं। अच्छे
कार्य करने वाला हमेशा दूसरों की भलाई की चिंता करता है। किसी के बहकावे में नहीं
आता है। संसार के सुखों को देखकर उनका मन चंचल नहीं होता है। कोई प्रशंसा करे या
गाली दे दोनों अवस्था में समान रहता है। इस प्रकार प्रत्येक स्थिति में बुद्वी का
होना आवश्यक है। बिना स्थिर बुद्वी के साधक योग साधना तथा समाज में उन्नति नहीं कर
सकता।
मति के विषय में
शास्त्रें में कहा गया है- दुष्ट व्यक्ति विद्या का प्रयोग विवाद के लिए, धन का प्रयोग एश, एश्वर्य और
अहंकार के लिए तथा शक्ति का उपयोग दुसरों को कष्ट देने के लिए करते हैं। जबकि इसके
विपरीत साधु विद्या का उपयोग ज्ञान के लिए, धन का उपयोग दान के लिए, शक्ति का प्रयोग
दुसरों की रक्षा के लिए करते हैं।
मति के विषय में
रामचरित मानस में कहा गया है-
श्रेष्ठ प्राणी
ही हर क्षेत्र में सफल होता है जबकि विवेक शून्य प्राणी शक्ति एवं एश्वर्य सम्पन्न
होते हुए भी विनाश को प्राप्त करता है।
9- जप- यह नियम का नौवां अंग है। जप का अर्थ है जप करना, स्मरण करना।
याज्ञवलक्य
संहिता के अनुसार-
वेदान्त मंत्रें
को गुरू से सीख कर विधि पूर्वक उनकाअभ्यास करना जप कहलाता है।
योगसूत्रकार
पतंजली ने जप के स्थान पर स्वाध्याय को माना है। मोक्ष पद दिलाने वाले शास्त्रें
का पढ़ना अथवा ऊंकार का जप करना स्वाध्याय है। जप की चार अवस्थाएं बताई गई है- (1) वैखरी, (2) मध्यमा, (3) पश्चयंति, (4) परा।
(1) वैखरी - इस जप की अवस्था में साधक मंत्रें का उच्च स्वर में
उच्चारण करता है जिससे दुसरों को भी स्पष्ट सुनाई देता है।
(2) यह जप की दुसरी अवस्था है। पूर्व जप की अपेक्षा कम ध्वनि
करते हुए मंत्रें का उच्चारण करते हैं।
(3) पश्चयंति- यह मंत्र शब्दहीन जप होता है। इस जप
को करते समय केवल होठ ही हीलते हैं।
(4) परा - इस अवस्था के अन्तर्गत शरीर व मन को ही मन जप करते
हैं। निश्चल करते हुए।
5- अजपाजप - निरंतर आठों पहर बिना प्रयास किए हुए स्वतः ही
अंतःकरण जो जप चलता है उसे अजपाजप कहते हैं।
इस प्रकार जप
करते समय चित एकाग्र होना चाहिए क्योंकि जबतक चित एकाग्र करके मंत्र के अधिष्ठाता
के नियम के अनुसार जप नहीं किया जाता तब
तक अष्ठफल की प्राप्ति नहीं होती। अतः जपकरने से मन एकाग्र होता है, विध्नों का नाश
होता है।अंतरात्मा की शुद्वि होती है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होकर मोक्ष की
प्राप्ति होती है। प्राणवायु पर अधिकार होता है। जिससे मन निर्मल होता है। अतः
साधक के लिए जप करना अति आवश्यक है।
10- हुर्त या हवन-
यह नियम का दसवां
तथा अंतिम अंग है। हुर्त का अर्थ है हु या हवन। इसके विषय में इस प्रकार वर्णन
मिलता है।
अग्निदेव को
संविधा आदि पदार्थों के द्वारा तृप्त करना
हुर्त कहलाता है। हुर्त या हवन दो प्रकार के होते हैं।- (1)
यौगिक हवन, (2) लौकिक हवन।
(1) यौगिक हवन - यौगिक हवन में मन सहित दसों इन्द्रियों को शब्द
आदि विषयों से पृथक कर ब्रम्ह रूपी अग्नि में डाल देने से होता है। इस हवन में
बुरे संस्कारों को जलाकर आत्मा की शुद्वि
की जाती है। यौगिक हुर्त से आत्मज्ञानी होकर ब्रम्ह की प्राप्ति होती है। साधक कर्म
के बंधनों से छूट जाता है तथा जरा मृत्यु से मुक्त होकर परम ब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। फिर लौटकर संसार में
नहीं आता है।
(2) लौकिक हवन - इस हवन में यव, घी, तेल आदि संविधानों को अग्नि में डाला जाता है।
इस हवन में सुगंधित वस्तुओं को जलाने से
वातावरण शुद्व होता है। लौकिक हवन के द्वारा सूर्य भगवान का दर्शन किया जाता
है।
प्रत्याहार -
भारतीय परंपरा
में मुख्यतः छः दर्शन माने गए हैं।(1) न्याय, (2) वैश्विक, (3)सांख्य, (4) योग, (5) मिमांसा और (6) वेदांत। योग दर्शन भारतीय परंपरागत छः दर्शनों
में से एक है। योग के आठ अंग है - यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।
इन आठ अंगों में
से यम और नियम योगी के विचारों और भावनाओं को नियंत्रित करते हैं।
आसन शरीर को
स्वस्थ्य एवं सुदृढ़ बनाते हैं।
प्राणायाम और
प्रत्याहार साधक के सांसों का संचालन करते हैं, जिससे मन नियंत्रित होता है। यदि मनुष्य की
बुद्वि इन्द्रियों के वश में होती है तो वह अपना आपा खो बैठता है। इसके विपरीत यदि
सांसों का सुसंगत नियंत्रण हो तो इन्द्रियॉं वासना के वाह्य के पीछे भागने के बजाय
अर्न्तमुखी हो जाती है और मनुष्य उसके कुरूर शासन से मुक्त हो जाता है।
प्रत्याहार नाम
की यह पांचवी योगावस्था है जहां इन्द्रियां वश में हो जाती है। समव्यस्क लोग इसी
पांचवीं योगाभ्यास से आरंभ होती है जिसका विषय है मन योग की सर्वोच्च स्थित में
सहायक मन ही है।
गीता में- जिसका
मन वश में नहीं है उसके लिए योग की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परन्तु मन को वश में
किए हुए प्रयत्नशील पुरूष साधना द्वारा योग प्राप्त कर सकते हैं। इससे यह सिद्व
होता है कि मन को वश में किए बिना योग के चरम लक्ष्य समाधि को प्राप्त करना दुष्कर
है। यदि कोई चाहे कि मन तो निरंकुश रहे और योग की प्राप्ति भी हो तो यह उसकी भूल
होगी। मन स्वभावतः ही चंचल होता है। इसे वश में करना साधारण बात नहीं है। स्वामी
विवेकानंद जी ने मन की तुलना एक ऐसे बानर से की है जो स्वभावतः ही चंचल होता है।
उस चंचल बानर को किसी ने मदिरापान करवा दिया और बिच्छु ने भी उसे काट लिया। उस
बन्दर की अवस्था का अंदाजा आप लगा सकते हैं। मनुष्य मन भी उस चंचल बानर के समान है, जिसने वासना रूपी
मदिरा का पान कर रखा है। ईर्ष्या रूपी सर्प(बिच्छु) ने काट रखा है और अहंकार रूपी
दैत्य ने उसमें प्रवेश कर रखा है। इस तरह के मन को वश में करना यह कोई आसान काम
नहीं है। बिना मन को वश में किए योग प्राप्त करना असंभव है। सारे साधन इसी को वश
में करने के लिए किए जाते हैं।
स्वामी
शंकराचार्य ने कहा है- जगत को किसने जीता
जिसने मन को जीता।
अर्जुन ने भी मन
को वश में करना कठिन समझकर यही कहा था। हे कृष्ण यह मन बड़ा ही चंचल, हठिला और बलवान
है इसे रोकना मैं वायु को रोकने के सामान दुष्कर समझता हूॅं।
भगवान कृष्ण ने
इस बात को स्वीकार किया और साथ ही उपाय भी बता दिया। निःसंदेह मन चंचल है और उसे
वश में करना बहुत कठिन है फिर भी उसे नितांत अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा
सकता है जिसने अपने आप को संयमित नहीं किया उसके लिए योग को प्राप्त करना अत्यंत
कठिन है। परन्तु आत्मसंयमी व्यक्ति इसे प्राप्त कर सकता है यदि वह श्रम साधना करता
है और अपनी शक्ति उपयुक्त साधनों से नियंत्रित करता है।
प्रत्याहार की
परीभाषा-
विषयेभ्यं
इन्द्रियार्थेभ्यो मनो निरोधन प्रत्याहारः।- मंडल ब्रहााणोपनिषद
विषयों से
इन्द्रियों के द्वारा मन का निरोध करना प्रत्याहार कहलाता है।
स्वविषये
सम्प्रयोगे चित्त स्वरूपासुकार इन्द्रियाणां प्रत्याहारः।
जब इन्द्रियां
अपने अपने बाह्य विषयों से निवृत होकर चित की तरफ निरूद्व हो जाती है तो उसे
प्रत्याहार कहते हैं।- ततः परमावश्यतेन्द्रियाणां।
अर्थात्
इन्द्रियों पर पूरा अधिकार हो जाता है।
योग के पांच
बहिरंग साधनों में से प्रत्याहार अंतिम साधन है। यम, नियम तथा आसन का अभ्यास हो जाने के बाद साधक
प्राणायाम के अभ्यास के योग्य हो जाता है।
प्राणायाम के अभ्यास का परिणाम प्रत्याहार है। इन्द्रियों का विषय विमुख होना, चित में लीन होना
ही प्रत्याहार है। साधक समस्त विषयों को इन्द्रियों से हटाकर चित को ध्येय में
लगाता है। तब इन्द्रियां चित में लीन हो जाती है जब तक इन्द्रिया मन में विलिन
नहीं हो जाती तब तक प्रत्याहार की सिद्वी नहीं समझी जाती। प्रत्याहार में
इन्द्रियों का बर्हिमुख न होकर अर्न्तमुख होना है अर्थात् इन्द्रियों का विषयों की
ओर न जाकर बुद्वी की ओर वापस जाना है। प्रत्याहार में चित की इच्छा ही सब कुछ है चित के साथ ही इनि्ेद्रयां चलती है। चित के
विषयों से हटने पर वे स्वतः ही हट जाती है
अतः चित की निरूध होना, इन्द्रियों का निरूद्व होना प्रत्याहार है।
पूर्णाधिकार से तात्पर्य यह है कि मन जिन
विषयों को देखना, जिस शब्द को सुनना चाहता है ऑंख या कान उसी दृश्य या शब्द
को वस्तु जगत में दिखा देता है। जैसे- जब कछुआ क्रिया नहीं करना चाहता तब अपने
हाथों पैरों को अंदर ही रखता है। भक्ति सागर में- जैसे कछुआ अंग समेटे रंक शीत काल
में लेटे।
किन्तु जब वह
चलना चाहता है तो वह बाहर निकलर चलने लगता है। ठीक उसी प्रकार जब चित चाहता है तभी
इन्द्रियां विषयों में प्रवृत होती है। इन्द्रियों को विषय से समेटकर चित की शुद्व
स्वरूप की तरफ ले जाना ही प्रत्याहार है। साधारणतः पुरूष इन्द्रियों का दास होता
है। किन्तु प्रत्याहार सिद्व होने पर इन्द्रियां मन की दासी हो जाती है। स्वतंत्र
नहीं रह जाती। प्रत्याहार के समय योगी या साधक को वाह्य ज्ञान नहीं रहता।
विधि - पांच
प्रकार के प्रत्याहार की विधियां है- प्रथम प्रकार के प्रत्याहार (1) ज्ञानेन्द्रियों
को उनके विषयों की तरफ जाने वाली स्वाभाविक प्रवृति को शक्तिपूर्वक रोकना है। (2) मन को पूर्ण
नियंत्रण के साथ समस्त दृश्य जगत में ब्रम्ह से ही दर्शन करना या उसके आत्म स्वरूप
समझना है। (3) समस्त दैनिक कर्मों से फलों का त्याग, समस्त जीवन के
कर्मों को ब्रम्हार्पित करना है। (4) समस्त इन्द्रिय सुखों से मुख मोड़ना है। (5) अठारह मर्म
स्थानों पर प्राण वायु का एक निश्चित क्रम से स्थापना करते चलना है। ये मर्म स्थान
है- पैर का अंगुठा, गुल्फ (।छज्ञस्म्), जानु (घुटना), जंघा, गुदा, लिंग, नाभी, ह्रदय, कंठ (गले का छेद), तालू, जिहवा, दोनों नासारंध्रों के छिद्र, दो आंखें, भूमध्य, ललाट और मस्तक।
उपयुक्त प्रकार के प्रत्याहार का अभ्यास करने
वाले साधक के लिए इस संसार में कुछ भी दुर्लभ
नहीं है। प्रत्याहार के उपयुक्त स्वरूप के प्रतिपादन से यह स्पष्ट होता है
कि प्रत्याहर की इस अवधारणा के दो प्रमुख तत्व है। (1) चित का विषयों से आहरण,
(2) निर्विकल्प आत्म तत्व में
लीन होना। ये दोनों तत्व एक दुसरे से रिलेटेड है। इनमें से प्रथम तत्व की सफलता
एवं सिद्वि होने पर ही दुसरे तत्व की उपलब्धि या सिद्वि सफल है। इसलिए श्रीमदभगवत
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश दिया - उन सब इन्द्रियों को वश
में करके एकाग्रचित हो। मेरे परायण हो जाओ, जिसकी इन्द्रियां वश में है उसकी बुद्वि
प्रतिष्ठित है वही स्थितप्रज्ञ है।
धारणा
देश बंधस्य
चिंतस्य धारणा - पातंजली।
मंडल ब्राम्हण
उपनिषद के अनुसार मन को चैतन्य में स्थिर करना धारणा है। धारणा द्वारा चित के मूढ़
और क्षिप्त रूप तमस और रजस से हटाकर उसको सात्विक रूप से वृति मात्र से किसी एक
विषय में ठहराकर दिव्य बनाना होता है। चित की वृति मात्र से किसी स्थान विशेष में
बांधना धारणा कहलाता है। चित बाहर की ओर विषयों को इन्द्रियों द्वारा वृति मात्र
से ग्रहण करता है। ध्यानावस्था में जब प्रत्याहार द्वारा इन्द्रिया अन्तर्मुख हो
जाती है तब भी वह धेय विषय को वृति मात्र से ही ग्रहण करता हैं वह वृति धेय के
विषय से एकाकार होकर स्थिर रूप से भासने (प्रतित) होने लगता है अर्थात् स्थिर रूप
से उसके (धेय) स्वरूप को प्रकाशित करने लगता है। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार द्वारा जब चित स्थिर हो जाए तब उसको
अन्य विषयों से हटाते हुए एक धेय विषयों में ठहराने को ही धारणा कहते हैं।
भारतीय दर्शन के
अनुसार धारणा का अर्थ - चित को अभिष्ठ विषय पर लगाना है। यह विषय वाह्य पदार्थ भी
हो सकता है। विषयों से हटाए हुए मन को किसी देश, स्थान आदि ें बांधना ही धारणा है। धारणा योग का
छठा अंग है जो अंतरंग योग के अन्तर्गत आता है। धारण का शब्दिक अर्थ होता है धारण
करना अर्थात् चित की वृत्तियों का
संभालना। देश विशेष में चित का दृढ़ संबंध ही धारणा कहलाता है। इस प्रकार अभ्यांतर
या बाह्य किसी भी देश में चित का स्थिरीकरण ही धारणा कहलाता है।
अभ्यांतर देश के
अंतर्गत मूलाधार, स्वादीष्ठान, मणिपुरक, अनाहद, विशुद्व एवं आज्ञा चक्र आदि आते हैं।
बाह्य देश के
अंतर्गत सूर्य, चन्द्रमा, ब्रम्हा, विष्णु, महेश, अन्य देव मूर्ति, देवगण या उसकी प्रतिमा आदि आता है।
धारणा एक प्रयास
है जिसमें ध्यात (हम, आप), धेय, ध्यान तीनों का अलग-अलग अस्तित्व रहता है। जिसमें चित की
वृतियों को एक विषय पर बार-बार प्रयास के द्वारा एकाग्र या केन्द्रित करने का
प्रयत्न किया जाता है। धारणा में चित अपनी तीनों अवस्थाओं - क्षिप्त, विक्षिप्त एवं
मूढ़ अवस्था में रहता है जो रजो एवं तमों गुण से प्रभावित होता है तथा सतो गुण
सुप्तावस्था में होता है। विषणु पुराण में कहा गया है कि प्राणायाम से वायु, प्रत्याहार से
इन्द्रियों को वश में करके सुहाश्रय में चित को स्थिर करना ही धारणा है। शास्त्रें
में धारणा का विवेच निम्न प्रकास से किया गया है -
ह्रदय पंच
भूतानाम् धारणा च पृथक-पृथक।
मनसो निश्चलत्वेन
धारणा समाधियतै।।
अर्थात् निश्चल
मन से अपने ह्रदय मन में पांच प्रकार की धारणाओं का अलग-अलग अभ्यास करने से
समाधिष्ठ अवस्था की प्राप्ति होती है। (1) पृथ्वीय धारणा, (2) जलीय धारणा, (3) आग्नेय धारणा, (4) वायुवीय धारणा, (5) आकाशीय धारणा।
धारणा
धारणा अर्थात्
निश्चल मन से अपने ह्रदय मन में पांच प्रकार की धारणाओं का अलग-अलग अभ्यास करने से
समाधिष्ठ अवस्था की प्राप्ति होती है। धारणा पांच प्रकार की है। (1) पृथ्वीय धारणा, (2) जलीय धारणा, (3) आग्नेय धारणा, (4) वायुवीय धारणा, (5) आकाशीय धारणा।
धारणा स्थान आकार देवता रंग फल
1- स्थान ह्रदय चौकोर ब्रम्हा पीला पृथ्वी
तत्व पर अधिकार
2- जलीय ह्रदस
से कंठकूप तक अर्द्वचन्द्राकार विष्णु श्वेत जल तत्व पर अधिकार 3- आग्नेय कंठकूप
से तालू त्रिकोण शिव लाल अग्नितत्व पर अधिकार
4- वायुवीय तालू
से भ्रूमध्य षटकोण ईश्वर मेघवर्ण वायुतत्व पर अधिकार
5- आकाशीय ब्रम्हरंध्र ब्योमाकार ब्रम्ह(ब्रम्हांड) श्यामवर्ण आकाश तत्व पर अधिकार
फल -
1- पृथ्वी तत्व पर अधिकार एवं पाताल तक जाने में समर्थ
2- जल तत्व पर अधिकार एवं जल में पहुंचने की अगाध
क्षमता
3- अग्नि तत्व पर अधिकार एवं आग से जलाया नहीं जा
सकता। (अग्निझंप)
4- वायु तत्व पर अधिकार एवं वायु में गमन करने की
क्षमता (खेचरी की सिद्वी)
5- आकाश तत्व पर अधिकार एवं अनिमादि की सिद्वि।
योगग्रंथ में धारणा के फल के विषय में निम्न
प्रकार द्रष्टव्य मिलता है।
पृथ्वी के धारणा
की सिद्व हो जाने पर साधक में स्मंभन की शक्ति आ जाती है,
यानि किसी भी वस्तु या
पदार्थ को वह ठोस बना सकता है या स्थिर कर सकता है।
2- जलीय धारणा के सिद्व हो जाने पर साधक किसी भी वस्तु अथवा
पदार्थ को जल के समान द्रवीत कर सकता है।
आग्नेय धारणा के
सिद्व हो जाने पर साधक किसी वस्तु को बिना आग के जलाने की सामर्थय प्राप्त कर लेता
है।
वायवीय धारणा के
सिद्व हो जाने पर साधक समस्त वस्तुओं को घुमाने की सामर्थय प्राप्त कर लेता है।
आकाशीय धारणा के
सिद्व हो जाने पर साधक समस्त वस्तुओं को वायु के समान सुखा देता है।
हठयोग प्रदिपीका में भी धारणा के महत्व को
दर्शाते हुए कहा गया है कि
मनसा वाचा कर्मणा
पंच दुर्लभाह।
विज्ञया सततम
योगी सर्वदुखैः विमुच्यते।।
अर्थात्, मन, वचन एवं कर्म से
कही भी यह पंच धारणा दुर्लभ है जो साधक मन वचन कर्म को एकाग्र करके इनका अभ्यास
करता है उसे इन धारणाओं में सफलता मिलती है। साथ ही उपरोक्त पंच धारणाओं के सिद्व
हो जाने पर साधक सम्पूर्ण कलेषों से मुक्त हो जाता है। गीता में धारणा के महत्व को
दर्शाते हुए कृष्ण ने कहा है कि -
यस्तु तिष्ठति कौन्तेय धारणासु यथा विधिः।
जरा मरणं दुखं
चैव सविन्यस्यति निश्चितम्।।
अर्थात् धारणा का
यथाविधि अभ्यास करने से साधक जन्म, मरण , सुख, दुख , बुढ़ापा सभी प्रकार के क्लेषों से मुक्त हो जाता
है। एक पांच घरी तक उपरोक्त धारणाओं का अभ्यास करने से दिव्य दृष्टि, दिव्य शक्ति एवं
प्रज्ञा शक्ति की प्राप्ति होती है तथा साधक सभी कलेषों एवं द्वेषों से परे हो
जाता है। ऐसी अवस्था समाधि की पहले की अवस्था माना जाता है। अतः धारणा का योग
शास्त्र में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। बिना धारणा की सिद्वि के समाधि तक
पहुंचना असंभव है।
समाधि
समाधि योग का
आठवां अंग है।
समाधि ब्रम्हाणि
स्थितिः। अर्थात् ब्रम्ह में चित को स्थिर
करने का नाम ही समाधि है। समाधि अष्टांग योग का अंतिम अंग है। एवं योग साधक का परम
लक्ष्य है। सम$धि = समाधि। अर्थात् जहां बुद्वि सम हो जाए उसे ही समाधि
कहते हैं। महर्षि पातंजली ने कहा है-
तदैवार्थ मात्र
निर्भासं स्वरूपं शून्यमेव समाधिः। अर्थात् जिस धारणा में केवल धेये ही प्रतित हो
और चित का अपना स्वरूप लुप्त हो जाए उस
ध्यान को ही समाधि कहते हैं। समाधि में धाता, धेय और ध्यान एकाकार हो जाता है। जिसे त्रिकुटी
की संगम भी कहते हैं। समाधि की स्थिति में न तो नस-नाड़ियां चलती है और नहीं ह्रदय
स्पंदन होता है। न बाल बढ़ता है। और न नाखुन बढ़ता है। इस स्थिति में सामान्य मनुष्य
मृतक के समान हो जाता है। उस स्थिति में समाधिष्ठ योगी जीवित रहता है। दतात्रेय
संहिता में उल्लेख है- जीवात्मा और परमात्मा की सम अवस्था ही समाधि है।
समाधिष्ठ योगी को
न कोई चिन्ता सताती है, वह मृतक समान होता है और सभी अवस्थाओं से मुक्त होता है।
इसमें कोई संचय नहीं है।
समाधिष्ठ योगी को
न गंध का न रस का न रूप का और न ही स्पर्श का अनुभव होता है। श्वास-प्रश्वास की
गति अवरूद्व हो जाती है उसे अपने तथा दुसरे के शरीर का बोध नहीं रहता है उसे काल
नष्ट नहीं कर सकता और नहीं वह किसी कर्म जनित पीड़ा से बाधित नहीं होता है। वह किसी
प्रकार से किसी के वश में नहीं किया जा सकता। और भी उल्लेख है कि समाधिष्ट योगी को मंत्र के द्वारा भी न वश
में किया जा सकता है। और न ही अस्त्र उसे बेध सकता है। समाधिष्ठ योगी सर्दी, गर्मी , सुख, दुख , मान-अपमान, किसी भी प्रकार
से प्रभावित नहीं होता है।
भक्तिसागर के
अनुसार समाधि तीन प्रकार की है-(1) भक्ति समाधि, (2) योग समाधि, (3) ज्ञान समाधि।
(1)- भक्ति समाधि- इस समाधि में भक्ति और भगवान का
अटूट संबंध होता है। भक्त भगवान के बिन्दु चरण में ध्यान लगाकर जब समाधि लगाता है
तो उसे भक्ति समाधि कहते हैं। इस समाधि में धयाता धयान में और धयान धयेय में लीन हो
जाता है। पदस्थ धयान के द्वारा भी इस समाधि को प्राप्त किया जा सकताहै।
(2) योग समाधि- आसन प्रणायाम के द्वारा प्राण सुषुम्नावाही
बनाकर षटचक्र का भेदन कर जो समाधि लगाते हैं उसे योग समाधि कहते हैं और पिंडस्थ
धयान के द्वारा इस योग समाधि को प्राप्त किया जा सकता है। उपरोक्त समाधि की
व्याख्या करते हुए चरण दास जी भक्तिसागर में उल्लेख किया है -
आसन प्राणायाम
करि पवन पंथ गहि लेहि।
षटचकर को भेद करि
धयान शून्य में देहि।।
आपा बिसरे धयान
में रहे सुरति नहीं नाद।
लीन होय क्रिया
रहित लागे योग समाधि।।
(3) ज्ञान समाधि- मैं ब्रम्ह हूं, जब इस बात का बोध
हो जाता है तब धयाता ईश्वर को सबकुछ मानकर धयान लगाता है। अर्थात् धयान की चरम
स्थिति या अवस्था को ही ज्ञान समाधि कहते हैं। समाधि की इस अवस्था में योगी लम्बे
समय तक प्राण को ब्रम्ह रंध्र में पहुंचाकर समाधिष्ठ अवस्था में रहता है। रूपातित
धयान के द्वारा भी इस समाधि की प्राप्ति होती है। चरण दास जी ने इस समाधि की
व्याख्या करते हुए कहा है-
ज्ञान रहित
ज्ञाता रहित रहित ज्ञान अरू जान।
लागि कभी छूटे
नहीं यह समाधि विज्ञान।।
पातंजल योग दर्शन
पातंजल योग दर्शन
(समाधि पाद) पहला सूत्र 1
अथ योग अनुशासनम्
महर्षि पतंजली के
योग सूत्र का प्रारंभिक सूत्र है-
‘‘अथ योग अनुशासनम’’।
इस सूत्र में तीन
शब्द है- अथ, योग तथा अनुशासन।
अथ का अर्थ होता
है - अब या आरंभ।
योग का अर्थ होता
है- चित्तवृति निरोध या समाधि।
अनुशासन का अर्थ
होता है- गुरू शिष्य परंपरा से आगत (आया हुआ या एक विशेष प्रकार के नियमों का
पालन।) इस प्रकार सम्पूर्ण रूप से इस सूत्र का अर्थ होता है- गुरूशिष्य परंपरा से
आगत। योगशास्त्र का अब प्रारंभ होता है
अथवा एक विशेष प्रकार के नियमों से बने हो।
इस सूत्र में अथ
शब्द ग्रंथ के विर्नेदना समाप्ति हेतु मंगलवाचक अथवा शिष्य संबोधन के संदर्भ में
ही किया गया है।
यहां पर अनुशासन
शब्द अति महत्वपूर्ण है शासन का अर्थ होता है सुचारू रूप से कार्य व्यापार चलते
रहने के लिए राज्य या राष्ट के द्वारा की जाने वाली नियम व्यवस्था अर्थात् हर
व्यक्ति एक नियम के अंतर्गत ही अपना कार्य
करेगा जिससे कि व्यवस्था बनी रहे। ऐसे नियमों को बनाना और उसे पालन करवाना।
स्पष्टतः यह एक प्रकार का आदेश है जिसे हर व्यक्ति को पालन करना ही है अतः इस
प्रकार के शासन कभी कभी या अधिकांशतः उपेक्षा भाव भी आ ही जाता है जिससे अव्यवस्था
फैलती है। अतः इस शासन के पीछे यदि अनु लगा दिया जाए तो ऐसी अव्यस्था की कोई
संभावना ही नहीं रहती। अनु का अर्थ है अनुसरण।
अतः शासन का अर्थ
होगा कि अपने आप शासन का अनुसरण करने लगे। अतः बिना किसी के कहे या आदेश दिए या
बताए अपने आप यह अनुभव हो कि यह नियम पालन या नियम में बांधना मेरे में ही हितकर
है लाभकारी है। यही अनुशासन का अर्थ है।
दुसरे शब्दों में
इसे आत्म अनुशासन भी कहा जा सकता हैं योग इसी प्रकार का अनुशासन है,अर्थात् इसमें
किसी दुसरे की आवश्यकता नहीं पड़ती। अर्थात् इसमें किसी दुसरे की आवश्यकता नहीं
पड़ती। यदि व्यक्ति समाहित चित हो तो अपने आप उसे योग के सभी अंग अनुशासन प्रिय
लगेंगे। अभ्यास योग्य लगेंगे, हितकर लगेंगे और तब वह अपने आप योग के अभ्यासों
में प्रेरित हो सके। अतः ऐसे अनुशासन रूप योग जिसका पालन अपने आप होता है या होना
चाहिए का प्रारंभ महर्षि पतंजली प्रथम सूत्र से करते हैं।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि कम से कम
पतंजली के अष्टांग योग का अनुष्ठान ‘अभ्यास’ अनुशासन के बिना किया भी नहीं जा सकता, यदि किया भी गया
तो वह फलदायी नहीं होगा। क्योंकि चित की जो पांच अवस्था है - चित, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और
निरूद्वावस्था। इसमें से तीन के लिए यह योग है भी नहीं। इनसे उपर उठने पर यदि
एकाग्र अवस्था में साधक पहुंचे तभी पातंजली के योग का लाभ ले पाएंगे। वास्तव में
योग सूत्र के द्वितीय पाद में जो साधन विधियां बताई गई है उनके अभ्यास से प्रथम
साधक अपने में वह अनुशासन ही स्थापित करता है। उन सभी साधनों के अभ्यास से जब वह
वास्तविक रूप से अनुशासित होकर समाहित चित वाला हो पाता है तभी वह योग के अभ्यास
का अधिकारी बन पाता है। अतः पातंजली के योग के अभ्यास के लिए सर्वप्रथम अनुशासित
होना पहली शर्त है।
पातंजली योग
दर्शन का दूसरा सूत्र
योगस्य चित्तवृति
निरोधः
योगसूत्रकार
महर्षि पतंजली ने योग की परिभाषा में उल्लेख किया है योगस्य चितवृति निरोधः। अर्थात् चितवृति का निरोध ही योग हैं ।
शास्त्रें में उल्लेख है कि विषय संबंध में चितवृत होने पश्चात् चित की जो परिणति
होती है उसी को वृति कहते हैं। उसी वृति का निरोध करना ही योग है। अब प्रश्न उठता
है कि चित क्या है?
साधारणतः मन की
सूक्ष्म अवस्था का ही चित कहते हैं। चित या मन ही शरीर रूपी साम्राज्य का राजा है
अर्थात् मन के निर्देश से ही शरीर को चलना पड़ता है। यह मन अतिशक्तिशाली है इसे
संभालना या वश में करना बहुत ही कठिन है वरन योगाभ्यास के द्वारा महाशक्तिशाली मन
को वशीभूत किया जा सकता है। व्यक्ति का चित इतना चंचल है कि वह निद्रा अवस्था में
ही वह कार्य करता है।
साधारणतः मन दो
प्रकार का होता है-
(1) स्वचेतन , (2) अवचेतन।
व्यक्ति जब जागृत
अवस्था में रहता है तब स्वचेतन मन कार्य करता है और अवचेतन मन निद्रा अवस्था में
रहता है। और उसी अवस्था में वह सक्रिय होता है। उदाहरणस्वरूप हम कह सकते हैं कि मन
एक समुद्र है और समुद्र में वायु का आघात (चोट,झकोरे) लगने से जो तरंग उत्पन्न होती है वह
वृत्ति अर्थात् चंचलता है। मन रूपी समुद्र में वायु रूपी विषय वासना का प्रवेश
होने से तरंग अर्थात् चंचलता की सृष्टि (रचना) होती है।
वायु के अभाव में
जैसे समुद्र स्थिर रहता है इस प्रकार वायु रूपी विषय वासना से रहित होने पर समुद्र
रूपी मन स्थिर हो जाता है। इसी को ही चित्तवृति का निरोध कहते हैं। वृति साधारणतः
तीन गुण के प्रभाव से प्रभावित होती है वह
तीन गुण सत, रज एवं तम है।
चित जब सत
गुणाश्रित होता है तो व्यक्ति ज्ञान स्वभाव युक्त हो जाता है। जब तम गुणाश्रित
होता है तो अज्ञानता , अधर्म, हिंसा और क्रोध की उत्पति होती है। जब रज गूण
आश्रित होता है तो व्यक्ति भोग विलास प्रिय हो जाता है एवं जब चित में सत,रज एवं तम गुणों
का लोप (रहित) हो जाता है और तब मन और पुरूष का अभिन्न ज्ञान होता है और इस स्थिति
का स्थिर प्रज्ञ कहते हैं।
चित को पांच
भागों में विभक्त किया गया है-(1) मुढ़ा अवस्था - चित या मन जब ज्ञान रहित होकर
काम क्रोध से वशीभूत हो जाते हैं तो निद्रा, आलस्य आदि का शिकार बनता है इस अवस्था को ही
मूढ़ अवस्था कहते हैं और इसी स्थिति में व्यक्ति तमो गुण आश्रित रहता है और सभी
प्रकार की अज्ञानता में लिप्त हो जाता है।
(2) क्षिप्ता अवस्था - मन की अस्थिर अवस्था को ही क्षिप्ता
अवस्था कहते हैं। अर्थात् मन एक विषय में स्थिर न होकर विभिन्न विषयों में
परिवर्तित होते रहता है इस अवस्था में मन रजो गुण सम्पन्न होता है जिसके कारण राग
द्वेष, अधर्म, अनुराग (किसी चीज में दिलचस्पी नहीं लेना) विराग, अज्ञान आदि में
प्रवाहित होता है।
(3) विक्षिप्ता अवस्था - क्षिप्त की स्थिति एवं विक्षिप्ता
अवस्था के बीच में अर्थात् चित चंचलता के लिए कुछ समय के लिए स्थिर भाव होता है
इसलिए इस अवस्था में कभी कभी अच्छा काम हो जाता है। इसलिए इसमें दो गुण कार्य करते
हैं रज एवं सत। समाज के उच्च प्रवृति के व्यक्तियों के अंदर दिखाई देता है। जब
रजोगुण का प्रभाव पड़ता है तब व्यक्ति के अंदर में काम, क्रोध, लोभ, मोह के लक्षण दिखाई देते हैं।
(4) एकाग्राअवस्था - चित जब किसी आंतरिक वस्तु एवं वाह्य वस्तु
में स्थिर होता है उसी अवस्था को चित की एकाग्र्रावस्था कहते हैं। इस अवस्था में
चित सत गुणों में स्थिर होता है एवं मन या चित की एक ही दिशा होती है। और ऐसी
अवस्था में चित निर्बल हो जाता है। ऐसे गुणों का परिलक्षित होना किसी योग साधक या
योगी में ही दिखाई देता है ऐसे ही स्थिति को सम्प्रज्ञात समाधि भी कहते हैं।
(5) निरूद्व अवस्था - एकाग्रता अवस्था एवं निरूद्वा अवस्था में
बहुत अंतर है। एकाग्राअवस्था में किसी एक अवलंबन (सहारा) की आवश्यकता होती है
जिसके उपर साधक का लक्ष्य स्थिर होता है। लेकिन निरूद्वा अवस्था में किसी अवलंबन
की आवश्यकता नहीं होती । इस स्थिति में चित आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है।
अविद्या आदि पंचकलेशों का नाश होता है। इस अवस्था को ही असमप्रज्ञात समाधि की
अवस्था कहते हैं।
चित की इन पांच
अवस्थाओं से विभिन्न प्रकार की वृत्तियों की उत्पति होती है जो कि असंख्य है-
योगशास्त्र में
वृतियों को पांच भागों में विभक्त किया गया है जो निम्नलिखित है- (1) प्रमाण (2) विपर्जय (3) विकल्प (4) निद्रा (5) स्मृति।
(1) प्रमाण - ज्ञान का साधन ही प्रमाण है। प्रमाण तीन भागों में
विभक्त किया गया है-
(क) प्रत्यक्ष प्रमाण - अपने चक्षु से अवलोकन करना ही
प्रत्यक्ष प्रमाण है।
(ख) अनुमान प्रमाण - जो विचार द्वारा निर्णय किया जाता है
उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं।
(ग) आगम प्रमाण - जो शास्त्र एवं गुरू वाक्यों या वेद
वाक्यों द्वारा प्रमाणित हो उसे आगम प्रमाण कहते हैं।
(2) विपर्जय -मिथ्या ज्ञान को ही विपर्जय कहते हैं। जैसे रस्सी
को देखकर सर्प भ्रम होेने से मन में जो विचलित भाव हो उसे ही विपर्जय कहते हैं।
(3) विकल्प - जो अस्वाभाविक कल्पना के द्वारा अनुभव किया जाता
है या जो साधारणतः शब्दों पर आधारित होता है , उसे विकल्प कहते हैं।
(4) निद्रा- शरीर जिस अवस्था में चेतन रहित होता है उसे ही
निद्रा कहते हैं। उसी अवस्था में मनुष्य विभिन्न स्वप्नों को देखकर विचलित होता है
और जिससे चित की चंचलता में वृद्वि होती है।
(5) स्मृति - अतित (बिते हुए) की किसी घटना को याद करके मन में
जो भाव होता है उसी को स्मृति कहते हैं। चित की उपरोक्त पांच अवस्थाओं में
स्मृतियों के कारण ही मनुष्य सुख और दुख का भोग करता है। यही अवस्था एवं वृति समूह
दोनों मिलकर व्यक्ति को सुख दुख, राग-द्वेष, जय-पराजय, आदि मार्गों में ले जाता हैं।
जिसके फलस्वरूप
मनुष्य वास्तविक लक्ष्य से विचलित होकर कुमार्ग में पदार्पण (प्रवेश) करता है।
परिणामस्वरूप व्यक्ति या साधक परमात्मा सुख से बंचित हो जाता है इसलिए योग के महान
सूत्रकार महर्षि पतंजली ने उल्लेख किया है कि-
योगस्य चितवृति
निरोधः। अर्थात् चितवृति समूहों का निरोध ही योग है।
पातंजली योग
दर्शन का दुसरा सूत्र
योगस्य चितवृति
निरोधः।
चित की वृत्तियों
चेष्टाओं के बर्हिमुखी होने से, संसार के विषयों में भटकने से रोककर अन्तमुर्खी
बनाना, आध्यात्म विषयों में लगाना ही निरोध है और इसी को योग कहते हैं। चित अगाध
समुद्र के जल के समान है जिस तरह जल पृथ्वी के सम्पर्क में कहीं खारा तो कहीं मीठा
परिणाम को प्राप्त होता है उसी प्रकार राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से बदलता रहता है। वायु के वेग से जैसे
जल में तरंगे उठती है उसी प्रकार चित इन्द्रियों द्वारा सांसारिक विषयों से
आकर्षित होकर उनके आकार में परिवर्तित होते रहता है। यह चित की वृत्तियां कहलाती
है। जो अनंत है और हर समय पैदा होती रहती है। जब वायु का वेग शांत हो जाता है तब
तरंग नष्ट होकर जल अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है उसी प्रकार चित योग अभ्यास से
बर्हिमुखीता को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है उसको चितवृति निरोध कहते
हैं।
पातंजली योग
दर्शन का तीसरा सूत्र -
तदा- उस समय (चित
की वृतियों के नियंत्रित हो जाने से)
द्रष्टु - आत्मा
(अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है)
स्वरूपेअवस्थानम्-
(अपने रूप में अवस्थित हो जाती है)
चित की वृत्तियों
के नियंत्रित हो जाने की स्थिति में आत्मा द्रष्टा की अपने स्वरूप में अवस्थित हो
जाती है। जैसे तेज हवा चलते रहने से पानी में लहरें उठती रहती है और जब हवा रूक
जाती है तब लहरों का उठना बंद हो जाता है, उसी प्रकार वृतियों के निरोध हो जाने पर चित का
कर्तापन का अभिमान निवृत हो जाता है। अर्थात् मैं सुखी हूं। मैं कर्ता हूं। मैं
दुखी हूं आदि। अभिमान की निवृति होने से वृति रूप परिणाम होना भी रूक जाता है।
आत्मा का अपना शुद्व स्वरूप दृष्टिगोचर (दिखाई देने) लगता है। इसे आत्म दर्शन कहते
है। इसी को कैवल्य स्थिति कहते हैं।
पातंजली योग
दर्शन का चौथा सूत्र
चित की वृत्तियों
के नियंत्रण के अभाव में द्रष्टा (आत्मा) वृत्तियों के समान रूप प्रतित होती है।
वृत्तियों के न रूकने की अवस्था में आत्मा चित के अनुरूप ही अपने आप को मानती है।
दीन-दुखी, नीच-उंच, ज्ञानी-अज्ञानी इसकी कल्पना होती है। वैसा ही वह अपने आपको
मानती है जैसे- दर्पण के सामने जो वस्तु रखी होती है वही उसमें दिखाई देती है उसी प्रकार आत्मरूपी
दर्पण में वृत्तियों के होने से वह भी वैसा ही अनुभव करने लगती है। निरोध में
मुक्ति तथा वियुत्थान में बंधन है इसलिए समाधि द्वारा बंधन से छुटकारा पाने के लिए
चित की वृत्तियों को रोककर आध्यात्मिक विषय में प्रवृत होकर भवबंधन से छुटकारा
पाकर आत्म आनंद का अनुभव हो जाता है।
पातंजली योग
दर्शन का पांचवा सूत्र
वृत्तयः पइअचतययः
क्लिष्टाक्लिष्टा-
कलिष्टा और
अक्लिष्टा वृतियॉं पांच प्रकार की है। तमो गुण प्रधान क्लिष्ट वृत्तियों राग, द्वेष, अविद्या आदि
कलेषों को बढ़ाने वाली तथा योग साधना में विधन रूप होती है। सतोगुण प्रधान अक्लिष्ट
वृतियां इन क्लेषों का समान और योग साधना में सहायता देने वाली है। पहले ही
अक्लिष्ट वृतियों को ग्रहण करके इनकी सहायता से क्लिष्ट वृतियों का निरोध करना
चाहिए। फिर पर वैराग्य से उन अक्लिष्ट वृत्तियों का भी निरोध हो जाता है और योग का
उदेश्य पूरा होता है। जैसे कि कलिष्ट वृतियों के संस्कार बहुत गहरे जमे हुए होते
हैं तो भी शास्त्र और गुरूजनों के उदेंश्य से छिपी हुई अक्लिष्टि वृत्तियां पुनः
जागृत हो जाती है।
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