षटकर्म
षटकर्म -- पुरातन काल से चली आ रही योग विद्या
को हमारे ऋषि मुनियों ने विभिन्न भागों में विभाजित किया है। यथा - हठ योग, मंत्र योग, कर्म योग, लय योग एवं राज
योग। योग विद्या को सुगमता से जानने के लिए आंतरिक दृष्टि से हठ योग को प्रथम साधन
माना है जिसकी शुरुआत षटकर्म से होती है।
हठ योग में आसन, प्राणायाम को विश्ष्टि स्थान प्राप्त है परन्तु षटकर्म को
विशेष महत्व दिया गया है। षटकर्म के दौरान शरीर में स्थित विजातिय द्रव्य का
वर्हिगमन एवं रोगों का समन होता है। जैसे --षटकर्म दो शव्दों के योग बना है- षट $ कर्म। षट का अर्थ
है छः तथा कर्म का अर्थ है क्रिया। अर्थात शोधन के लिए षटकर्म, दृढ़ता के लिए
आसनों का अभ्यास, स्थिरता के लिए मुद्राएं, धौर्य के लिए प्रत्याहार, साधक के लिए
प्राणायाम के सध जाने पर ध्यान के द्वारा साधक अपने अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष रूप
से जान जाता है तथा समाधि में निर्लिप्त हो जाता है, ऐसे व्यक्ति को साधक को मुक्ति में कोई संचय
नहीं, अर्थात अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यूँ तो यौगिक साधनों में सही साधन
अपने अपने स्थान पर महत्व देते है। परन्तु साधना में षटकर्मों का अत्यधिक महत्व
है। इसके अभ्यास के बिना योग मार्ग में आगे बढ़ना मुश्किल है। जिस प्रकार झाडु से
कमरे की सफाई करके बैठने योग्य बना दिया जाता है ठीक उसी प्रकार षटकर्मो के द्वारा
शरीर की शुद्वी करके उसे यौगिक साधना के योग्य बना लिया जाता है। यहीं से योग
मार्ग की प्रथम सीढ़ी शुरु होती है। षटकर्म से वात, पित, कफ की समानता होती है। इन छः क्रियाओं के बारे
में हिरण्य संहिता में इस प्रकार लिखा है। धौति, वस्ती, नेति, नौलि, त्रटक एवं कपालभाति। यह छः क्रियाएं शरीर की
शुद्वी के लिए कही गई है। इसके अतिरिक्त कुंजल और वारिसार षटकर्म प्रचलन में आती
है। योग शास्त्र में 14 शोेेधन क्रियाओं के नाम निम्नलिखित रुप मेंं दिए गए है। 1- कुंजल, 2- सुत्रनेति, 3- जलनेति, 4- घृतनेति, 5- वस्त्रधौति, 6- दण्डधौति, 7- बाघी, 8- जलवस्ति, 9- स्थल वस्ति, 10- नौली, 11-शंखप्रक्षालन, 12 त्रटक, 13- कपालभाति, 14- दुग्धानेति।
कुंजल (ज्ञनदरंस)
कुंजल शब्द की
उत्पति कुंजर शब्द से हुई है जिसका अर्थ है हाथी। इसे गजकरणी भी कहते हैं। गजकर्म
के विषय में कहा गया है -
गजकर्म यहीं जानिए, पिए पेट भरि नीर।
फेरि युक्ति सो
काढ़िए रोग न होय शरीर।।
अर्थात् पहले पेट
भर पानी पिकर उसे युक्ति पुर्वक बाहर निकाल देना, यहीं षटकर्म कहलाता है। जिससे शरीर में रोग
नहीं होता, इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार हाथी अपनी सुढ़ से जल
पीकर सुढ़ के द्वारा ही बाहर निकाल देता है और अपने को सदैव निरोग रखता है ठीक उसी
प्रकार मनुष्य भी कुंजल क्रिया के द्वारा अपने को सदैव निरोग रख सकता है।
विधि -- सर्वप्रथम
कागसन में बैठकर दोनों कोहनियों को टखनों पर रखेंगे। गुनगुना पानी जल्दी जल्दी
पिएं, जबतक उलटी की स्थिति महसुस न हो पिते चले जाएं। वमन की स्थिति होने पर सीधे
खडे़ होकर कमर से 90व का कोण बनाते हुए आगे की ओर झुकें। दोनोें पैर परस्पर
मिले हों। तदोपरान्त बाएं हाथ से पेट को दबाएं तथा दाहिने हाथ की तीन अंगुलियां
(तर्जनी, मध्यमा, अनामिका )को लेकर मुंह के भीतर गले में डाले तथा गले में
लटके हुए टांसिल को सावधानी पुर्वक तीनों अंगुलियों को टच (ज्वनबी) करें। वमन की
स्थिति बनेगी। इसी प्रकार बारी-बारी से अंगुलियां स्पर्श करने से वमन की सहायता से
सारा पानी पेट से बाहर निकाल लें। उल्टी करने पर जब पानी न निकलें, इस क्रिया को रोक
दें।
सावधानियां
- 1- कुंजल को सुर्योदय से पूर्व शौचालय से निवृत
होकर करना चाहिए तथा पानी न अधिक गर्म हो और न अधिक ठंडा हो, गुनगुना रहना
चाहिए।
2- कुंजल करने के बाद दो ढ़ाई घंटे तक स्नान नहीं करना चाहिए।
3-
कुंजल के बाद यदि
खटी या कडवी डकारें आए तो दुबारा कुंजल करना चाहिए।
4-
उच्च रक्त चाप
तथा ह्रदय रेागी को कुंजल नहीं करवाना चाहिए।
कमर दर्द, सर्वाइका रोगी को आगे ज्यादा नहीं झुकना चाहिए।
हाथों का नाखुन काटकर रखना चाहिए।
गले में खरास
होने पर नमक मिले गर्म पानी से खरास करें।
लाभ --
1- चेहरा कांतिमान होता है।
2-
कपोल दोष, मुख पर किल
मुहासे, ग्रीवा गर्दन का रोग, रतौंधी इत्यादि रोग ठीक हो जाते है।
3-
खॉंसी, दमा, मुख का सुखना, वात, पित, कफ, कब्ज आदि रोग तथा
उदर संबंधि सभी बिमारियां दुर होती है।
4- मधुमेह एवं मोटापे को दुर करने के लिए तथा चर्म रोगों के
ईलाज कराने के लिए कुंजल क्रिया अति उत्तम है।
नेति (मातंगिनी)
षटकर्मो के प्रसंग में नेति कर्म का अदभुत
स्थान है। नासिका के संबंध से भी नेति शब्द ग्रहण किया गया है। नेति चार प्रकार की
होती है - सुत्रनेति, जलनेति, दुग्धनेति, धृतनेति।
सुत्रनेति - भक्ति सागर में चरणदास ने सुत्रनेति के निर्माण
या विधि का सुत्रित वर्णन इस प्रकार किया है।
मिही जु सुत
मंगाई कै, मोटी बाटै डोर। उपर मोम रमाए कै, साधौ उठकर भोर।
साधौ उठकर भोर, डेढ़ बालिस्त की
किजै।
ताको सीधी करै, हाथ में अपने
लिजै।
नासारंध्र में
मेलकर खीचे अंगुली दोय।
फेरि विलोवन
किजिए नेति कहिए सोय।
सवधानी - 1- सुत्रनेति के उपर
वाले भाग को ठंडे जल तथा निचले भाग को नमक मिले गरम पानी से भिंगोने चाहिए।
2- सुत्रनेति नाक में डालने से पहले उसके अग्रभाग
को तर्जनी, मध्यमा अंगुली व अनामिका की सहायता से अर्द्वच्रन्द्राकार
बना लेना चाहिए।
3- नेति अंदर न जा रही हो तो वेगपुर्वक श्वास खींचें, इससे वह अंदर चली
जाएगी।
सुत्रनेति करते
समय यदि नाक से खुन आने लगे तो तुरंत बर्फ मिले ठंडे जल से जलनेति करें, उसके तुरंत बाद
कपालभाति करें। खुन आने पर दो तीन दिन तक सुत्रनेति का अभ्यास न करें।
जिनके कान बहते
हो अर्थात् जिसकी झिल्ली फटी हो उसे सुत्रनेति नहीं करनी चाहिए।
यदि जुकाम ज्यादा
बह रहा हो तो उसे सुत्रनेति नहीं करना चाहिए।
लाभ -- 1- बालों का पकना, झड़ना, गिरना, मानसिक विकार, अतिनिद्रा आदि रोगों से मुक्ति दिलाने में
सहायक है।
नाक के मध्य बढ़ी
हुई हड्डी सुत्रनेति से ठीक हो जाती है। नाक संबंधि बिमारियां - सायनोसायटिस, नेत्र रोग आदि
दुर होते है। कफ दोषाेंं की निवृति और दिव्य दृष्टि की उपलव्धि, नाक, कान, कंठ और मस्तक से
संबंधित रोगों का समन किया जाता है।
दिन या रात को
विश्राम के समय गाय का शुद्व घी गर्म करके दोनों नासारंध्राें में 4 -5 बुंद डालें इससे
लाभ होता है। इसके लाभ के विषय में शास्त्र में कहा गया है --
कपालशोधिनी चैव दिव्य दृष्टि प्रदायिनी।
उधर्वजत्रुगतान रोगान नेतिराजु निहन्ति व।।
अर्थात् नेति
क्रिया कपाल का शोधान करने वाली है। और दिव्य दृष्टि प्रदान करने वाली है। यह गले
के उपर सम्पूर्ण मुखमुंडल के भाग को प्रभावित करती हुई समंस्त रोगों का नाश करती
है।
कपालभाति(भस्त्रिका)
जिस क्रिया में
लोहार की धाैंकनी की भाति रेचक और पुरक शीघ्रता से चलता हो वह क्रिया कपाल भाति
कहलाती है। यह कफ आदि दोषों का शोषण करने वाली होती है।
विधि - पदमासन में बैठकर दाहिने हाथ की अनामिका एवं
मध्यमा अंगुलियों से बाई नासारंध्रों तथा अंगुठे को दायीं नासारंध्र पर रख दें। अब
बायीं नासारंध्र को बंद कर दायीं नासारंध्र से बलपुर्वक श्वास लेते है तथा दाएं से
लेकर बाएं से निकालना है। फिर बाएं से सांस लेकर दाएं से निकालें। इस प्रकार यह
क्रम बारी-बारी से चलता है। ध्यान रहे श्वास लेते समय पेट बाहर हो श्वास छोड़ते समय
पेट अंदर रहे। इस क्रिया को भस्त्रिका या कपालभाति कहते हैं। (25 बार करें।)
लाभ -- तेज जुकाम में श्वास नलियों के द्वारा जब कफ
निकले सुत्रनेति का धौति क्रिया से जब इच्छित शुद्वि नहीं हो पाती तब कपालभाति
लाभप्रद होती है।
इस क्रिया के
द्वारा फेफडे़ एवं कफ करने वाली समस्त नाड़ियों से पिघलकर नासारंध्र या मुख द्वारा
बाहर निकलती है।
इसके फलस्वरुप
फेफडे शुद्व एवं निरोग रहते हैं।
मस्तिष्क एवं
आमाशय की शुद्वी होकर पाचन शक्ति का विकास होता है।
खांसी, दमा, नजला जुकाम, स्मरण शक्ति का
कमजोर होना, मन्द बुद्वी आदि अनेक रोगों, श्वास संबंधि रोगों की निवृति होती है।
मुख कांतिमान
होता है, रक्त शुद्व तथा चित स्थिर होता है।
रक्त रहित शुद्व
हुई सुषुम्ना नाड़ी चलने लगती है। जिससे अभ्यार्थी को मानसिक शांति मिलती है।
बीस प्रकार के कफ
रोगों को सुखाने वाली है।
सावधानियां -1- ह्रदय रोगी, उच्च रक्त चाप, पिलीया, ज्वर, हाइपर एसीडिटी
इत्यादि रोगियों को यह क्रिया नहीं कराते।
अत्यन्त बलपुर्वक श्वास प्रश्वास नहीं करते
क्योंकि नाड़ियों में आघात पहुंचने की संभावना रहती है।
वर्षाकाल मेें या अतिशीतल वायु में यह क्रिया
वर्जित है क्योकि शरीर की गर्मी बाहर निकल जाती है।
कपालभाति जलनेति के पश्चात अवश्य करानी चाहिए
जिससे जमा हुआ पानी पुर्णरुप से बाहर निकल जाए।
पुरक व रेचक के
समय पेट फुले व पीचके तथा श्वास प्रश्वास से आवाज स्पष्ट सुनाई दें।
जलनेति
जल के द्वारा नाक की सफाई को जल नेति कहते हैं।
इसे सदा सुत्र नेति के पश्चात किया जाता है।
विधि -- एक
टाेंटिदार लोटा लेते हैं जिसमें सहने योग्य गुनगुना जल भरकर दाल में मिलाने योग्य
नमक मिला लेते हैं तदेापरान्त कागासन में बैठकर एक हाथ कीेे हथेली पर लोटा तथा
दुसरा हाथ घुटने पर रखें। जो स्वर चल रहा हो लोटे की टाेंटी को उसी नासारंध्र में
लगाते हैं तथा उसके विपरीत दिशा में झुकाते हैं। मुख से श्वास प्रशस करने से पानी
सदैव ही दुसरे नासारंध्र से निकलने लगता है। लोटे का आधा पानी एक नासारंध्र से
निकलने लगता है। लोटे का आधा पानी दुसरे नासारंध्र से निकालते हैं।
सावधानी - 1- जलनेति के बाद कपालभाति करना अनिवार्य है।
2- यदि जलनेति का पानी न निकले तो लोटे पर हाथ का दबाव देकर
बार-बार खोलें बंद करें। एयर प्रेशर पड़ने पर नाक से पानी निकलने लगता है।
3- जलनेति में नमक की मात्र बराबर रखें, कम या अधिक होने पर जलन होने लगती है। लोटे की
टाेंटी नाक में हड्डी पर न दबाएं अन्यथा छिकें आती है।
4- जलनेति करते समय मुंह से ही श्वास लें नाक से नहीं अन्यथा
पानी मस्तिष्क में चढ़ने लगता है।
लाभ --प्रातःकाल
उठकर जो मनुष्य नित्य नासारंध्र से जल पिता है वह पूर्णबुद्वी वाला, गरुण के समान, तीव्र दृष्टि
वाला होता है, बालों का पकना, झड़ना, त्वचा पर झुर्रियों का पड़ना आदि समस्त रोगों से
मुक्त हो जाता हैं। प्रातःकाल जल पीने से अर्श, शोथ ग्रहणी ज्वर, उदर रोगाेंं, बुढ़ापा, कष्ट भेदन सम्बन्धि विकार, मुत्रघात, रक्तपित, कान, गला, शिर, श्रोण्ी का शूल, आंख के रोग तथा
अन्य जो वात, पित, कफ और क्षत जनित ब्याधियां सभी दुर हो जाते हैं।
दुग्ध नेति
विधि -- टोंटीदार लोटे में हल्का गरम दुध लेकर मुख को
सीधा रखते हुए कागासन में बैठकर किसी एक नासारंध्र में लोटे की टोंटी को लगाएं।
दुसरे नासारंध्र को अंगुठे से बंद करते हुए सिर को थोड़ा उपर उठाएं। अब धीरे-धीरे
श्वास के साथ-साथ दुध को अंदर की तरफ खींचते हुए पीने का प्रयास करें। दोनों
नासारंध्रों से इसी प्रकार अभ्यास करते रहें।
सावधानियां- 1- इस क्रिया को जलनेति, सुत्रनेति तथा अच्छी प्रकार से भस्त्रिका करने
के बाद ही करें । 2- गाय का दुध छाना हुआ तथा हल्का गुनगुना होना
चाहिए।
3-
दुध चीनी रहित हो
तथा दुध की मात्र पाचन शक्ति के अनुसार ही लें।
जिनके कान से
पथ्य निकलता हो उन्हे यह क्रिया वर्जित है।
दुध नेति के बाद
सामान्यतः आसन न करे। विषम परिस्थिति में एक घंटे का अंतर रखें ।
लाभ -- 1- कर्ण रोग जैसे - बहरापन आदि दुर होते हैं।
आंखों की शक्ति व
ज्योति बढ़ती है।
मुख से दुध पीने
की अपेक्षा नाक से पीने पर अिाक लाभ होता है।
मानसिक तनाव, मन्दबुद्वी, याददास्त का
कमजोर होना आदि ये क्रियाएं लाभप्रद है।
घृतनेति
विधि - दुग्धनेति
की भाति ही हल्के गर्म अपने पाचन शक्ति के अनुसार घी पीते हैं।
सावधानी - 1- घी हल्का गुनगुना गाय का या किसी का हो सामर्थय के अनुसार।
घी अपने सामर्थ्य
के अनुसार लें सामर्थ्य से ज्यादा पीने से पाचन संबंधि रोग हो जाते हैं।
लाभ - 1- नाक से खुन आना अर्थात नकटी बहने वालों के लिए
बहुत लाभदायक है।
बुद्वी तीव्र एवं
प्रखर होती है।
प्रणायाम
अभ्याथियों के लिए यह क्रिया अति उतम है।
बाल सफेद नहीं
होते, दिमाग तरोताजा रहता है।
धौति
धौति शब्द का निर्माण संस्कृत भाषा के धात धातु
से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है धोना अर्थात स्वच्छता। इसके द्वारा
सामान्यतः आमाशय एवं अन्य प्रणाली का शोधान होता है। धौति के बारे में भक्तिसागर
में वर्णन मिलता है।
धौति कर्म यासों
कहै, पट्टी सोलह हाथ। कोढ़ अठारह ना भवै, करै जुनित परमात ।।
चौड़ी आंगुल चार
की, मिही वस्त्र की होय। जल में भेय निचोय करि, निगल कंठ सो सोय ।।
निगल कंठ सो सोय, सिरा बाहर रही
जावै। फेरी निकासै ताहि, पित कफ दोउ लावै।।
काया होवै शुद्व
ही, भजै, पित कफ रोग।
शुकदेव कहै धौती
करम, साधै योगी लोग।।
घेरण्ड संहिता के
अनुसार ---
चर्तुअंगुल
विस्तारं हस्त पंच दशायतम्। गुरुपदिष्ट मार्गेण सिक्तं वस्=ांशनै र्ग्रसैत ।।
पुनः
प्रत्याहरेच्चैत दुदितं धौति कर्म तत्।
अर्थ -- गुरु के द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करते
हुए चार अंगुल चौडे़ और पन्द्रह हाथ लम्बे भीगे हुए वस्त्र को धीरे धीरे ग्रहण
करना और फिर दुबारा उसे बाहर निकालना इसे ही धौति कर्म कहा है।
विधि - कागासन में बैठकर पट्टी को एक साफ बर्तन में
गर्म जल में भिगोकर रखें। साथ ही गर्म जल का भरा गिलास और जग पास रखें और धौति को
थोड़ा सा मोड़कर अपने दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियेां के अग्रभाग से
पकड़े कि धौति के सिरे को मुख के अन्दर वहां ले जाना है जहां टांसिल है उसके बाद
दोनों अंगुलियों को अलग करते हुए इस प्रकार बाहर निकालें कि अंदर गई हुई धौति
अंगुली के साथ बाहर न आ जाए। तत्पश्चात जीभ से धीरे-धीरे धौति को अंदर की ओर बढ़ाए।
जिस तरह खाना खाते है ठीक उसी प्रंकार जीभ पर इकठðी हुई धौति को निगलने का प्रयास करें। ध्यान
रहे धौति तालु में चिपकने न पाए। पहले दिन एक हाथ से अधिक धौति नहीं खानी चाहिए।
निगलते समय यदि उल्टी आए तो, मुख बंद कर दांत पर दांत बैठाकर मनोबल से रोकना
चाहिए। इस प्रकार 15 दिन में 15 हाथ धौती
निगलें।
धौति बाहर निकालने की विधि - धौति निगलने के पश्चात खड़े होकर पैरों में डेढ़
फुट का अंतर रखते हुए घुटने पर हाथ रखें और नासारंधों से पुरी तरह सांस निकालकर
खाली पेट को अंदर बाहर चलाएं। तत्पश्चात नौली घुमाएं। पुनः पैर मिलाकर वस्त्र धौति
को सावधानी पुर्वक कमर से 90व का कोण बनाते हुए खड़े हो जाए। बाहर बचे हुए सिरे को पकड़
कर धौती को धीरे-धीरे बाहर निकालें। जब तक धौति आसानी से निकलती जाए, निकालते जाएं।
परन्तु अटकने पर खींचे नहीं, तुरंत निकालना बंद कर दें। बैठकर फिर से धौति
निगलें। पहले की ही भॅांति गरम जल का सेवन करें। फिर पुर्ववत धीरे-धीरे बाहर
खींचे। ऐसा करने से गले से पेट तक की धौती सीधी हो जाती है और उसका रुकना, अटकना बंद हो
जाता है। अगर धौती अटक गई हो और प्रयास करने पर भी नहीं निकल रहा हो तो मुंह के
भीेतर धौती काट देनी चाहिए और बाकी निगल जाना चाहिए।
सावधानी:-
1- धौती को दस मिनट के अन्दर खाकर निकाल दें अन्यथा नीचे आहार नाल में जा सकती
है। 2- धौती खाने के पश्चात नौली निकाल कर दाएं बाए चलाएं तथा पेट
की पंपिंग करने से पेट की सफाई अच्छी तरह हो जाती है।
3-
धौति क्रिया के
पश्चात धौति को ।दजपेमचजपब साबुन से अच्छी तरह से धोकर मक्खी, मच्छर, धुलरहित स्थान
में सुखाएं।
4-
उच्च रक्त चाप, ह्रदय रोगियों को
यह क्रिया नहीं कराते हैं।
5- पेप्टिक अल्सर वालों को धौति क्रिया नहीं कराते ।
लाभ:- 1-
इस क्रिया के
निरंतर अभ्यास से प्लीहा, गुल्म, ज्वर, कष्ट, कफ, पित का नाश होता है तथा मनुष्य दिन प्रतिदिन
निरोग तथा बलवान होता है।
चेहरा कांतिमान
होता है।
अँाखों पर, बालों पर अच्छा
प्रभाव पड़ता है।
चर्म रोगों के
लिए लाभकारी है इससे खँासी, ज्वर, मलेरिया, टी-बी-, दमा, मंदाग्निी, कब्ज, कंठमाला, तुतलापन, पित विकार आदि रोग समुल नष्ट हो जाते है।
बीस प्रकार के कफ
रोगों का नाश होता है।
विशेष:ः--- जिनको
बहुत ज्यादा कफ होता है उन्हे गर्म जल की अपेक्षा गर्म दुध में धौति क्रिया करानी
चाहिए। यदि धौति निकालने में उबकाई आती है तो धौति के अग्र भाग पर या बीच बीच में
शहद लगाकर निगल लिया जाता है।
साधन -
कच्चे सुत की अनामिका अंगुली के मुटाई के बराबर
तीन लडी की एक रस्सी बनाए, जिसकी लम्बाई तीन बालिस्त चार आंगुल हो और इसके मुख पर एक
धागा इस प्रकार बांधें कि चौथाई ईंच की दुरी पर उसका हिस्सा फुल के समान खिल जाए।
दुसरे सिरे को भी किसी तरह से बांध दें या गाठ लगा दें। इसके बाद पूरी रस्सी को
गरम जल में डुबो दें। जिससे रस्सी किटाणुरहित शुद्व हो जाए। यहीं रस्सी दंड धौति
कहलाती है।
विधि:--कुंजल
क्रिया के समान ही गर्म जल यथासाध्य पेट भरकर पिएं। तत्पश्चात खडे़ होकर 900 से कम झुकाते
हुए और दण्डधौति गर्म जल में भिगोकर हाथ में लेकर गले से पेट में अन्दर करते हैैं।
दाएं बाएं घुमाते हैं। जिससे अभ्यर्थी को वमन की स्थिति होती है और पीया हुआ पानी
मुख से बाहर निकल जाता है। जब तक पुरा पानी नहीं निकले इस क्रिया को दोहराते जाएं।
पेट में पानी होने पर ही रस्सी अंदर
निगलते है।
सावधानी:- 1- दंडधौति का तीन बालिस्त सिरा अंदर चार आंगुल
बाहर रखना चाहिए।
2- कुंजल की भाति न तो पुरा झुकाते है और न सीधा तन कर खडे हो, मध्य की स्थिति
अपनाएं।
3- जिसका कुंजल का पानी नहीं निकलता हो उसे दण्डधौति करवाते
है।
लाभ:---
कुंजल क्रिया और
वस्त्रधौति की ही भाति दण्ड धौति लाभदायक है।
यह पित प्रकृति
वालों या जिसे पित की अधिकता हो उसे वस्त्रधौति की अपेक्षा दण्डधौति अधिक उपयोगी
है।
शंखप्रक्षालन
(वारीसार)
खिचड़ी खाना
है
इस क्रिया का नाम
शंख से लिया गया है। शंख में चक्राकार मार्ग होने के कारण पानी शंख के मुख से चक्राकार
मार्ग से बाहर आ जाता है उसी प्रकार मुख से जल पीने पर इस क्रिया के द्वारा जब कुछ
समय पश्चात् मल को साथ लेकर आंतो को शुद्व करता हुुआ गुदा द्वार से बाहर निकल जाता
है।
विधिः--
कुंजल से कुछ गर्म जल लें। इतना नमक मिलाए जिससे पानी नमकीन हो जाए तथा
पीने योग्य रहे। कागासन में बैठकर दो तीन गिलास जल पीए। जल पीने के पश्चात ही
क्रमशः दाएं-बाएं से चार-चार बार सर्पासन (भुजंगासन) तत्पश्चात उर्ध्वहस्तोतानासन
उसके बाद कटिचक्रासन तथा अन्त में उदराकर्षासन करें।
इन आसनों के करने के बाद पुनः दो गिलास पानी
पीएं तथा पहले की भाति आसन करे। ऐसा करने से पानी आंतो को धोता हुआ मल सहित बाहर
आने लगेगा। जैसे ही शौच जाने की इच्छा हो तुरंत मल त्याग करें। ऐसा करने पर पहले
मल बाहर आएगा, फिर पतला मल तत्पश्चात पीला पानी आएगा। इस प्रकार बार-बार
पानी पीकर गुदा द्वार से निकलने से आंतो की पुरी सफाई हो जाती है। जब सफेद जल आने
लगे तब बिना नमक के सादा (बिना नमक मिलाए) गरम जल अधिक मात्र में पीकर कुंजल करें।
कुंजल न करने से बहुत देर तक पानी निकलता ही रहेगा। अतः कुंजल करना अति आवश्यक है।
सावधानी:--1- शंखप्रक्षालन के
तुरंत बाद कुंजल करना चाहिए। कुंजल न करने से हानि होती है।
2- इस क्रिया के बाद ठंडे जल से स्नान नहीं करना चाहिए ।इस
क्रिया से पुर्व ही स्नान कर लें।
3- शंखप्रक्षालन के पश्चात एक आधे घंटे के अंदर ही भोजन कर
लेना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि होती है।
4-
भोजन लाल मिर्च
अथवा खटाई नहीं हो, चावल और घुली मुंग की दाल मिलाकर खिचड़ी बनाई गई हो।
5-
खिचडी में कम से
कम एक छटाक (50 ग्राम) गाय का घी या शुद्व देजी घी प्रयोग करें। खिचड़ी
बनाते समय घी का प्रयोग न करें।
6-
खिचडी खाते समय
पानी न पीए। भोजन के एक घंटे बाद पानी पी सकते है। यदि बहुत जरुरी हो तो दो तीन
घुंट गुनगुना पानी पी सकते है।
7-
24 घंटे तक दुघ या
दुध से बनी हुई कोई भी वस्तु जैसे दही, दुध, पनीर, चाय आदि पीना मना है।
8-
रात्री में
सामान्य भोजन लें सकते हैं।
9-
अतिसार, उच्च रक्तचाप, ह्रदय रोगी को यह
क्रिया नहीं कराते तथा कमर दर्द के सभी रोगियों को यह क्रिया नहीं करवाते।
लाभ:--वारिसार
परम गोपनिय है इससे देह यानि शरीर निर्मल होता है विधि पुर्वक इस क्रिया को करने
से देव देह की प्राप्ति होती है।
शरीर कांतिमान
तथा नीरोग हो जाता है। इसके अभ्यास से सिर दर्द, नेत्र रोग, कर्ण रोग, पेट संबंधि विभिन्न रोग तथा गुदा संबंधि रोग
दुर होते है।
महिलाओं के
गर्भाशय के अनेक रोग जैसे - ल्युकोरिया, बांझपन, मासिक धर्म का न आना आदि रोग दुर होते है।
डिसमिनोरिया ठीक हो जाता है।
पेट साफ करने के
लिए - जमालगोटा के बीज या क्रोटन ऑयल केमिस्ट के पास मिलेगा। एक से आधा बुंद देने
से पॉच से पच्चीस पानी के समान दस्त हो जाते हैं और पेट में बहुत मरोड़े चलती है।
अतड़ियों में सुजन आ जाती है।
बचाव - ज्यादा होने लगने पर दुध में घी मिलाकर
पीलाना है। इसबगोल पानी में मिलाकर दें।
बाघी -खीर खाना
है।
इस क्रिया को
अधिकतर बाघ किया करता हैं, इसलिए इसका नाम बाघी रखा गया है। बाघी क्रिया उसी प्रकार की
जाती है जैसे बाघ बहुत अधिक मांस आदि का भक्षण करने के उपरान्त आधा बाहर निकाल
देता है। भक्ष्य किए मांस से वह पोषक तत्वों को ग्रहण कर व्यर्थ की चीजों को बाहर
निकाल देता है।
विधि - कागासन
में बैठकर कुंजल के समान गर्म पानी पेट भरकर पिएं। तत्पश्चात खड़े होकर कमर के उपरी
भाग को 90व पर झुकाकर मुख में अंगुली डालकर सारा पानी तथा खाए हुए भोजन को उल्टी के
द्वारा बाहर निकाल दें। जब गाढ़ा अन्न पेट के अन्दर से निकलने लगे तब उन्हे दो चार
गिलास पानी और पीकर उसी पानी को कुंजल की तरह बाहर निकालें । इसी प्रकार तीन चार
बार करने से पेट का सारा अन्न बाहर निकल जाता है। जब साफ जल उल्टी में आने लगे तो
क्रिया बंद कर देनी चाहिए।
सावधानी - 1- क्रिया करने के 15 या 20 मिनट के बाद एक पाव के लगभग खीर (जो न ज्यादा
पतली हो और न ज्यादा गाढ़ी हो) खा लेनी चाहिए। अन्यथा उष्णता बढ़ जाती है और लाभ के
स्थान पर हानी होगी। इस क्रिया के पश्चात खीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं खाना चाहिए।
खीर भी भरपेट न खाएं, बल्कि अपने भोजन के चौथाई भाग खाना चाहिए।
खीर खाने के तीन
घंटे पश्चात पहले की तरह भोजन ले सकते हैं।
पीलिया रोगी को
मसुर, मुंग की दाल की पकौड़ी बनाकर दही में भिगोकर दही पकौड़ी और चावल एक साथ खिलानी
चाहिए।
यह क्रिया उच्च
रक्त चाप, ह्रदय रोगियों को नहीं करानी चाहिए।
लाभ - 1- इस क्रिया के अभ्यास से कमर पतली और सीना चौड़ा
होता है।
2- शरीर में स्फुर्ति आती है तथा शरीर आन्तरिक तथा बाह्रय रुप
से बलशाली बनता है।
स्थुल शरीर वालों के लिए यह क्रिया परम उपयोगी
है।
चेहरा कांतिमान होता है। वात, पित, कफ आदि रोग ठीक
होते हैं।
चित प्रशन्न रहता है अनावश्यक मल निकल जाता है, भूख खुलकर लगती
है।
पिलिया राेगी के लिए बाघी अति उतम क्रिया है।
विशेष - 1- ध्यान रहे की बाघी क्रिया भोजन करने के तीन घंटे पश्चात और चार घंटे के अंदर
ही करनी चाहिए। इससे अधिक समय देकर यह क्रिया न करें।
यह क्रिया
प्रतिदिन न करें इसे पन्द्रह दिन का अंतर देकर करना चाहिए।
जिस दिन बाघी
क्रिया करें उसके पहले दलिया या खीर हल्का भोजन करें।
वस्ति
गुदा द्वार से जल
खींचकर आंतो को नौली क्रिया के द्वारा धोकर जल को पुनः गुदाद्वार से बाहर निकाल
देने का नाम वस्ति कर्म है। मल शोधन की दृष्टि से इस कर्म का विशेष महत्व है।
वस्ति दो प्रकार की होती है। 1- जलवस्ति, 2- स्थलवस्ति ।
1-जलवस्ति:-- जल में नाभि तक के हिस्से को डुबाकर उत्कटासन
लगावें एवं गुह्य प्रदेश(गुदा) का संकुचन एवं प्रसारण करें। यह जलवस्ति है।
जलवस्ति करते समय निम्न बातों का ध्यान रखें।
किसी शुद्व नदी, सरोवर या झरने में इस क्रिया का अभ्यास करें।
इसका अभ्यास
उत्कटासन में बैठकर करना चाहिए।
बांस की नली का
प्रयोग करते समय नली का सिरा पत्थर पर घिसकर चिकना कर लें।
बांस की नली की
लम्बाई 6 या 8 आंगुल एवं चौडाई मध्यमा अंगुली के बराबर हो।
नली का सिरा चार
आंगुल गुदा में प्रवेश कराएं।
इसका अभ्यास एक
बार में चार या पांच बार करें जब सफेद पानी आए तब छोड़ दें।
अंत में
अर्द्वमयूरासन अवश्य करें जिससे पानी और वायु पुरी तरह बाहर निकल जाए।
नोट-- जलाशय मे
वस्ति कर्म करते समय सुक्ष्म जंतुओं से बचने के लिए महिन कपड़ा लगा लेनी चाहिए।
स्थल वस्ति
पश्चिमोतानासन
आसन में बैठकर गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करना ही स्थलवस्ति है।
लाभ - वस्ति कर्म
के प्रभाव से गुल्म, पलिहा के विकार, उदर रोग तथा वात, पित, कफ से उत्पन्न होने वाली समस्त बिमारियां नष्ट
हो जाती है। अांखों के रोग, सिर दर्द, दिमागी कमजोरी, स्मरणशक्ति, पागलपन, बालों का पकना, झड़ना आदि दुर हो जाते है। 25 प्रकार के प्रमेह, गर्मी, आतिसार, सुजाक, मंदाग्नि, कब्ज, बदहजमी, बवासीर, भगंदर, मस्से, फोडे, आंत की गर्मी, आंख आना, मलाशय, बड़ी आंत संबंधि सारे विकार दुर होते हैं।
सावधानी - उच्च
रक्तचाप, ह्रदय रेागी को यह क्रिया वर्जित है।
नौली
पेट के अन्दर
आहार नाल को आंतरिक दबाव देते हुए एकत्र कर फिर दाएं बाएं करना ही नौली क्रिया
कहलाती है।
कंधों को झुकाकर
अत्यन्त तीव्र आवर्त से भ्रमण के समान वेग पुर्वक उदर को दायीं ओर बायीं ओर घुमाना
सिद्वों अर्थात् योगियो के द्वारा कहा गया है।
विधि --दोनों
पैरो के बीच में एक से डेढ़ फुट का अंतर दें। दोनों हाथों से दोनों धुटनों को दबाकर
सांस बाहर निकालते हुए पेट को इतना पिचकाएं कि पीठ में मिल जाए। पुर्ण उड्डियान
लगाएं। तत्पश्चात् नौली निकालें। दाएं-बाएं दोनों नौलों को चक्राकार घुमाएं। दाएं
हाथ का दबाव देकर दायां तरफ बाएं हाथ का दबाव देकर बाएं नलों को निकालने का प्रयास
करें। इसे बाम या दक्षिण नौली कहते हैं।
सावधानी - 1- अतिसार, उच्च रक्त चाप, दमा एवं ह्रदय रोगियों को यह क्रिया नहीं करानी
चाहिए ।
2- इस क्रिया का अभ्यास खाली पेट करना चाहिए।
लाभ:- यह नौली क्रिया मन्द पड़ी हुई अग्नि को
प्रज्वलित करती है। भोजन किए हुए अन्न का पाचन करती है। आदिपद से मल शुद्वि होकर
सदा आन्नद देने वाली है। यह समस्त दोषेां का शेाषण करने वाली है। इसलिए इसे हठयोग
क्रियाओं में सबसे मुख्य माना है।
1- यह वात, पित, कफ को संतुलित करने वाली है।
2- धौति और वस्ति कर्म नौली के बिना अधुरी है।
3- कुंजल और शंखप्रक्षालन में इसका महत्वपुर्ण योगदान है।
4- वज्रौली बिना नौली के ज्ञान के संभव नहीं हैं।
त्राटक
यौगिक षटकर्म का
एक छठा कर्म त्रटक है। इसके अभ्यास से योगी अपने लक्ष्य के और अधिक निकट पहुंच
जाता है। हठयोग ग्रंथ हमें इसका विस्तृत वर्णन है। योगाचार्यों ने त्रटक के द्वारा
प्रत्याहार करना बताया है, अतः इन्द्रियांॅ विषय वस्तु से विरक्त होकर स्थिर हो जाती
है जिससे मन एकाग्र होता है। हठयोग में त्रटक कर्म का प्रतिपादन इस प्रकार किया
गया है। एकाग्रचित होकर स्थिर दृष्टि से किसी सुक्ष्म लक्ष्य को जब तक देखते रहे
जब तक कि आंख से अांसु न आ जाए। आचार्यो ने इसे ही त्रटक कर्म कहा है।
त्रटक कर्म करने के कई विधान है और इनके
अलग-अलग गुण भी है। जैसे एक फुट लम्बे चौडे़ कागज पर चवनी या अठनी के आकार के काले
रंग के गोला बनाते है तथा उस कागज को बंद कमरे में दृष्टि के बराबर ऊॅंचाई पर
दीवार पर लगा देते है तथा सादे चार फीट की दुरी पर बैठकर निश्चल दृष्टि से देखते
हैं, अथवा बंद कमरे में जहॉं हवा का वेग न हो दृष्टि के बराबर ऊंॅचाई पर घृत का
दीपक जलाकर रखते हैं तथा उस पर ध्यान करते है। त्रटक को दो भागों में बांटा गया
है।
1-
बाह्य त्रटक, 2- आभ्यान्तरिक
त्रटक
1-
बाह्य त्रटक
- योगशास्त्रें के अनुसार किसी वस्तु पर
निश्चल दृष्टि रखने को बाह्य त्रटक कहते है। जैसे - गोल बिन्दु, सुर्यचन्द्र, गुरु का चित्र
ं2- आभ्यान्तरिक त्रटक -इस त्रटक के अन्तर्गत
ध्यानात्मक आसन में बैठकर निश्चल भाव से मुलाधार, स्वादि"टान, मणिपुरक, अनाहद, विशुद्वी एवं आज्ञा चक्रों में दृष्टि को
एकाग्र किया जाता है जिससे की साधक को ज्योति या प्रकाश का दर्शन होता है। जब साधक
को पूर्ण जगत प्रकाशमय दिखाई देता है तब इसकी सिद्वी मानी जाती है। योग साधना में
मन को स्थिर करने के लिए आभ्यान्तारिक त्रटक विशष महत्वपूर्ण है।
सावधानी - 1- त्रटक कर्म का अभ्यास धीरे-धीरे एक घंटे तक किया जा सकता है।
2- कपाल के किनारे नाड़ियों में तनाव उत्पन्न न हो।
3- ऑंखों में आंसु आने के बाद उन्हें उसी दिन त्रटक नहीं करने चाहिए।
4-
साधक को अभ्यास काल में
दही, तेल, इमली, घी आदि द्रव्यों का सर्वथा वर्जित है।
लाभ - यह त्रटक
कर्म आंखों के सभी रोगों को नष्ट करने वाला है और तन्द्र्रा, आलस्य आदि को
कपाटों के समान रोकने वाला है। इसलिए इस त्रटक कर्म को प्रयत्नपुर्वक छुपाना चाहिए
जैसे साधारण मनुष्य स्वर्ण भरी हुई पेटी को छुपाकर रखते हैं ऐसे ही त्रटक कर्म को
गोपनिय रखना चाहिए ।
1-
इससे नेत्र
संबंधि सभी विकार दुर होते हैं, आध्यात्मिक मार्ग में यह विशष रुप से काम आती
है।
2-
मन को एकाग्र
करने में यह एक अद्वितिय क्रिया है।
3- मस्तिष्क की शक्ति का विकाश होता है और बुद्वी में जागरुकता
आती है।
4-
नेत्रें की
ज्योति बढ़ती है। आंखों को घुमाते समय नाड़ियां सबल बनती है तथा आंखों को आवश्यक
तत्व पहुंचाने में सुक्ष्म होती है।
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