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स्वरोदय ज्ञान

 

स्वरोदय ज्ञान

 

श्वास लेन और छोड़ने को स्वरोदय ज्ञान कहते हैं। सम्पूर्ण योग शास्त्र, पुराण, वेद आदि सब स्वरोदय ज्ञान के अन्तर्गत आते हैं। ये स्वरोदय शास्त्र सम्पूर्ण शास्त्रें में श्रेष्ठ हैं और आत्मरूपी घट को प्रकाशित दीपक की ज्योति के समान है।

शरीर पांच तत्वों से बना है और पांच तत्व ही सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। शरीर में ही स्वरों की उत्पति होती है जिसके ज्ञान से भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान होता है। इस ज्ञान को जान लेने के बाद ऐसी अनेकानेक सिद्वियां आ जाती है साधक इसकी सहायता से अपने शरीर (आत्मा) को स्वास्थ्य एवं शसक्त बना सकता है।

स्वरोदय दो शब्दों  के मेल से बना है। स्वर $ उदय = स्वरोदय।

स्वर शब्द का अर्थ है निः श्वास एवं प्रश्वास अर्थात् श्वास लेना और छोड़ना। और उदय शब्द का तात्पर्य  है कि इस समय कौन सा स्वर चल रहा है और ज्ञान शब्द का अर्थ है जानकारी से है कि किस समय किस स्वर से शुभ एवं अशुभ कार्य किए जाए। जो फलीभुत हो। अर्थात् हम कह सकते हैं कि स्वरोदय ज्ञान वह विज्ञान है जिसे जानकर साधक अपनी शुभ और अशुभ कार्य करने में सफल होता है। देव यानि काया रूपी नगरी में, शरीर में वायु रक्षा पालक का कार्य करता है। श्वास प्रवेश करते समय 10 आंगुल, छोड़ते समय 12 आंगुल, चलते समय 24 आंगुल, दौड़ते समय 42 आंगुल, मैथुन के समय 65 आंगुल, श्वास काल में 100 आंगुल, भोजन करते समय 18 आंगुल। जब श्वास की गति एक आंगुल कम हो जाती है तो निष्काम सिद्वि आ जाती है। 3 आंगुल कम होने से कविता, 4 आंगुल कम से वाक सिद्वि आती है। 5 आंगुल कम से दूर दृष्टि, 6 आंगुल जब श्वास बाएं नासारंध्र से तेजी से चलता है इसे इड़ा या चन्द्र स्वर भी कहते हैं जो ठंड़ा स्वर है। जब श्वास दाएं नासारंध्र से तेजी से चलता हे तो उसे पिंगला या गरम या सूर्य स्वर कहते हैं। श्वास प्रश्वास की गति को समझकर कार्य करने से मनुष्य दीर्घजीवी तथा स्वस्थ रहता है। लोकशास्त्र में कहा गया है-

21600 चले रात दिन जो श्वास। बिसा सो जीवे बरस होय अद्यतन के नाश।।

अर्थात् मनुष्य एक दिन रात में 2100 श्वास लेता है अर्थात् एक मिनट में 15 तो उनकी आयु कम से कम 100 वर्ष की होती है। योगी लोग स्वरोदय के द्वारा इस श्वास को कम करके 3 या 5 श्वास एक मिनट में लेकर आते हैं जिससे वह 300 वर्ष तक जीवित रहते हैं।

दिन को चंदा चले चले रात को सूर्य।

यह निश्चय कर जानिए  प्रान गमन बहु दूर।।

अर्थात् किसी भी मनुष्य का दिन में चंद्र स्वर और रात्रि के समय सूर्य स्वर चलेगा तो ऐसा मनुष्य दीर्घायु एवं स्वस्थ रहता है किन्तु जब दोनों स्वर चलता है तो इसे सुषुम्ना स्वर कहते हैं। सुषुम्ना स्वर के बारे में कहा गया है-

जब सुषुम्ना स्वर चलती है तो ध्यान, पाठ, स्वाध्याय अर्थात् आध्यात्मिक कार्य करेंगे।

शिव स्वरोदय में कहा गया है-

सूर्य नाड़ी प्रवाहिना रोद्र कर्माणि कार्यरत। सुषुम्ना प्रवाहिना मुक्ति-मुक्ति कलानि च।।

अर्थात् सूर्य स्वर के प्रवाह में क्रूर कार्य करें और सुषुम्ना स्वर के प्रवाह के समय योग और मोक्षदायक कार्य करें। विभिन्न कार्यों में सफलता मिलती है।

इड़ा यानि बायां स्वर  कार्य - चन्द्र स्वर में आभूषण या अलंकार ग्रहण करना चाहिए। घर की सजावट, देवी देवता की मूर्ति की स्थापना, मंदिर निर्माण, सरल विद्या का अभ्यास करना, मित्रता करना, गुफा बनवाना, विवाह करना, दान करना, कोश की स्थापना करना, लघु शंका करना, पानी पीना, सिर दर्द के समय, उच्च रक्त चाप के समय, ”दय की बिमारी में, अम्ल और अति अम्ल, दूर की यात्र करते समय, नया समान खरीदने के समय, पुत्री की प्राप्ति के लिए।

पींगला यानि दायां स्वर कार्य - क्रूर विद्या का पठन पाठन, शत्रु का नाश, भूत प्रेत की साधना करना, स्त्री समागम, वैश्या गमन, सुरापान, पहाड़ या चोटी पर चढ़ना, युद्व में जाना, शत्रु से लड़ाई करते समय, भोजन के समय, पेट दर्द के समय, जुकाम में, लो बीपी में, स्नान करते समय, कठिन विषय पर भाषण देते समय, कोर्ट जाते समय, पुत्र प्राप्ति के लिए, सोते समय।

सुषुम्ना कार्य - भजन, पूजा-पाठ (कोई भी सांसारिक कार्य सुषुम्ना चलने पर न करें क्योंकि कार्य की सिद्वि नहीं होेगी, स्वर बदलकर कार्य करें।

स्वर बदलने की विधि -

1- करवट द्वारा, यदि दायां स्वर चल रहा हो तो बाएं करवट लेट जाने पर इच्छित स्वर अपने आप चलने लगता है।

2- नासारंध्र को बंद करके जो स्वर चलाना हो उसके विपरीत नासारंध्र में रूई का गोला डालकर इच्छित स्वर चलाएं।

3-            आसन के द्वारा - जो स्वर चल रहा है उसके विपरीत हाथ पर दबाव डालने से स्वर चलने लगता है।

4-            खड़े होकर जो स्वर चलाना हो उसके विपरीत पांव पर दबाव देने से इच्छित स्वर चलने लगता है।

5-            वृषभासन और तकिया आसन लगाने से स्वर अपने आप बदल जाता है। लेकिन साधु संयासी यति लोग त्रिदंड या त्रिबंध के द्वारा स्वर बदलते हैं।

6- ध्यान के द्वारा भी अधिक अभ्यास हो जाने से इच्छित स्वर चलाया जा सकता है जो कि स्वर परिवर्तन की सबसे उतम अवस्था है। प्रत्येक ढ़ाई घरी के बाद अपने आप स्वर परिवर्तन हो जाता है।

7-            रोग दूर करने के लिए स्वरोदय ज्ञान मेें इस प्रकार लिखा गया - मल त्याग करते समय मूत्र का त्याग न करें। मूत्र त्याग करते समय वायु का त्याग न करें। साधना के द्वारा छींक को रोकना चाहिए और जम्हाई को नाक से लेना चाहिए। काल निर्माण के संबंध में भी स्वरोदय ज्ञान का वर्णन मिलता है।

8- यदि किसी मनुष्य का बायां स्वर चलता रहेगा तो उसकी मृत्यु एक माह में हो जाती हे। सम्पूर्ण बहते चन्द्र सूर्य नेव च दृश्यते। मासेन जायते मृत्यु काल ज्ञानेन भाशितम्।।

सम्पूर्णों बहते सूर्यश्च चन्द्र नेव दृश्यते। पक्षिण जायते मृत्यु काल, जानेन भाशितम्।।

रात चले स्वर चन्द्र में दिन में सुरजवास। एक महिने यूॅ चलै छठे महिने काल।। आगे ही साधना करे बैठ गुफा तत्काल। ऊपर खींची अपान को अपान प्रान मिलाय। उतम करे समाधि को ताको काल न खाए।

चरनदास जी कहते हैं कि अगर किसी मनुष्य को रात को चन्द्र स्वर और दिन को सूर्य स्वर चले तो ऐसा एक महिना चलता रहे तो मनुष्य की मृत्यु छः महिने के अंदर ही हो जाएगी। इसलिए योगी लोग स्वरोदय के ज्ञान से शरीर में कितने दिनों में बिमारी आएगी या किस दिन मृत्यु आएगी उसको योगी लोग पहले जान जाता है। जब योगी को मालूम हो जाता है कि उसकी मृत्यु 6 महिना, 2 महिना या अमुक दिन में होने वाली है तो वह गुफा के अंदर बैठकर आपान को प्राण में मिलाकर समाधि लगाकर बैठ जाता है तो इस प्रकार योगी काल को जीत सकता है। मृत्यु उसके पास नहीं भटकती। इस प्रकार स्वरोदय अंत में प्राण तक जाकर ही खत्म हो जाता है।

9- स्वरोदय का महत्व - लोकशास्त्रें में स्वरोदय का विशेष महत्व है। यह सम्पूर्ण शास्त्रें में सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है। वह आत्मा को प्रकाशित करने वाला महादिपक है। स्वर ज्ञानात परम गुहाय। स्वर ज्ञानात परम धनम्।। स्वर ज्ञानात परम ज्ञानम। न व दृष्टा न व श्रुते।।

स्वर ज्ञान से गुप्त कोई ज्ञान नहीं है। स्वर धानात से बढ़कर कोई गुण नहीं है। स्वर ज्ञानात से बढ़कर कोई धन नहीं है। ऐसा स्वर ज्ञान से श्रम ज्ञान न किसी ने देखा न सुना है। स्वर ज्ञान के बारे में कहा गया है- कन्या प्राप्ति स्वर बले स्वरेन राजदर्शनम्। स्वरेन देवता प्रसन्ने स्वरेन क्षितिज को वसय।। अर्थात् कन्या की प्राप्ति स्वर के बल से ही होती है। इसी द्वारा राजा के दर्शन होते हैं। देवता भी इसी के बल से प्रसन्न होते हैं। यहीं नहीं राजा भी वश में हो जाता है।

शत्रु हत्या स्वर बलं तथा मित्र समागम। लक्षमी प्राप्ति स्वर बले किर्ती स्वर बले सुखम्।।

अर्थात् शत्रु का नाश स्वर के बल से होती है। इसी प्रकार स्वर बदलने से ही मित्रें का मिलन होता है। लक्षमी की प्राप्ति भी स्वर से मिलता है। यश का लाभ और सुख भी स्वर के बल पर ही होता है। स्वर ज्ञान के द्वारा साधक शुभ अशुभ कार्य को जान लेता है तथा अनुकुल साधना करता है। चन्द्र स्वर सूर्य स्वर को वशीभूत करने के पश्चात प्राण सुषुम्नावाही होता है। प्राण सुषुम्नावाही होता है उस साधना से कुंडलीनी जागृत होती है जो कि योगी का  अंतिम लक्ष्य है एवं साधक मोक्ष पा लेता है। प्रकृति को जीत लेता है। गंधों को सहने की सामर्थ्य आ जाती है। अतः एक योगाभ्यासी मनुष्य के लिए स्वरोदय का ज्ञान आवश्यक है। योगी लोग स्वरोदय विद्या को जानकर स्वर की गति को कम करके दीर्घायु होते हैं और साधारण मनुष्य रोग रहित अवश्य होता है। ऐसा चरणदास ने अपने योग ग्रंथ मं बताया है और इसके महत्व को दर्शाते हुए कहा है-

धरनी टरे गिरीवर टरे ध्रुव टरे सनमित। वचन स्वरोदय ना टरे कही दास रणजीत।।

अर्थात् पहाड़ अपना जगह बदल सकता है। ध्रुवतारा अपनी दिशा बदल सकता है परन्तु स्वरोदय का कहा हुआ बात अटल है।

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