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प्राकृतिक चिकित्सा

 


प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी / naturopathy) एक वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति एवं दर्शन है जिसमें 'प्राकृतिक', 'स्व-चिकित्सा' (self-healing), 'अनाक्रामक' (non-invasive) आदि कहीं जाने वाली छद्मवैज्ञानिक क्रियाकलापों का उपयोग होता है। प्राकृतिक चिकित्सा का दर्शन और विधियाँ प्राणतत्त्ववाद (vitalism ) और लोक चिकित्सा पर आधारित हैं न कि प्रमाण-आधारित चिकित्सा (EBM) पर। [1] भारत में एक्युप्रेशर योग नेेेचुरोपैथी परम्परागत पद्धति का विकास प्रचार प्रसार बेेेसिक परशििक्षण एक्युप्रेशर योग नेचुरोपैथी काउंसिल नेेेचुआजलालपुर गोपालगंज बिहार द्वारा संस्थापक डा0 श्री प्रकाश बरनवाल के संंयोजन में हो रहा है।


इसके अन्तर्गत रोगों का उपचार व स्वास्थ्य-लाभ का आधार है - 'रोगाणुओं से लड़ने की शरीर की स्वाभाविक शक्ति'। प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत अनेक पद्धतियां हैं जैसे - जल चिकित्साहोमियोपैथीसूर्य चिकित्साएक्यूपंक्चरएक्यूप्रेशरमृदा चिकित्सा आदि। प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचलन में विश्व की कई चिकित्सा पद्धतियों का योगदान है;

प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है, जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। यह जीवन कला तथा विज्ञान में एक संपूर्ण क्रांति है।

इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक भोजन, विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा निर्धन व्यक्तियों एवं गरीब देशों के लिये विशेष रूप से वरदान है।

इतिहाससंपादित करें

प्राकृतिक चिकित्सा की जड़ें १९वीं शताब्दी में यूरोप में चले 'प्राकृतिक चिकित्सा आन्दोलनों' में निहित हैं।[2][3] स्कॉटलैण्ड के थॉमस एलिन्सन १८८० के दशक में 'हाइजेनिक मेडिसिन' का प्रचार कर रहे थे। वे प्राकृतिक आहार, व्यायाम पर जोर देते थे तथा तम्बाकू का सेवन न करने एव्वं अतिकार्य से बचने की सलाह देते थे। [4]

'नेचुरोपैथी' शब्द का पहला प्रयोग १८९५ में जॉन स्कील ने किया था।[5] उसी शब्द को बेनेडिक्ट लस्ट ने आगे बढ़ा दिया था जिस कारण अमेरिका के प्राकृतिक चिकित्सक बेनेडिक्ट को यूएस में नेचुरोपैथी का जनक मानते हैं। [6]

प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्तसंपादित करें

प्राकृतिक चिकित्सा के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-[7]

1. सभी रोग, उनके कारण एवं उनकी चिकित्सा एक है। चोट-चपेट और वातावरणजन्य परिस्थितियों को छोड़कर सभी रोगों का मूलकारण एक ही है और इनका इलाज भी एक है। शरीर में विजातीय पदार्थो के संग्रह से रोग उत्पन्न होते है और शरीर से उनका निष्कासन ही चिकित्सा है।

2. रोग का मुख्य कारण जीवाणु नही है। जीवाणु शरीर में जीवनी शक्ति के ह्रास आदि के कारण विजातीय पदार्थो के जमाव के पशचात् तब आक्रमण कर पाते है जब शरीर में उनके रहने और पनपने लायक अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता है। अतः मूल कारण विजातीय पदार्थ है, जीवाणु नहीं। जीवाणु द्वितीय कारण है।

3. तीव्र रोग चूंकि शरीर के स्व-उपचारात्मक प्रयास है अतः ये हमारे शत्रु नही मित्र है। जीर्ण रोग तीव्र रोगों के गलत उपचार और दमन कें फलस्वरूप पैदा होते है।

4. प्रकृति स्वयं सबसे बडी चिकित्सक है। शरीर में स्वयं को रोगों से बचाने व अस्वस्थ हो जाने पर पुनः स्वास्थ्य प्राप्त करने की क्षमता विद्यमान है।

5. प्राकृतिक चिकित्सा में चिकित्सा रोग की नहीं बल्कि रोगी की होती है।

6. प्राकृतिक चिकित्सा में रोग निदान सरलता से संभव है। किसी आडम्बर की आवश्यकता नहीं पड़ती। उपचार से पूर्व रोगों के निदान के लिए लम्बा इन्तजार भी नहीं करना पड़ता।

7. जीर्ण रोग से ग्रस्त रोगियों का भी प्राकृतिक चिकित्सा में सफलतापूर्वक तथा अपेक्षाकृत कम अवधि में इलाज होता है।

8. प्राकृतिक चिकित्सा से दबे रोग भी उभर कर ठीक हो जाते है।

9. प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शारिरिक, मानसिक, सामाजिक (नैतिक) एवं आध्यात्मिक चारों पक्षों की चिकित्सा एक साथ की जाती है।

10. विशिष्ट अवस्थाओं का इलाज करने के स्थान पर प्राकृतिक चिकित्सा पूरे शरीर की चिकित्सा एक साथ करती है।

11. प्राकृतिक चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग नहीं होता। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार 'आहार ही औषधि' है।

12. गांधी जी के अनुसार 'राम नाम' सबसे बडी प्राकृतिक चिकित्सा है अर्थात् अपनी आस्था के अनुसार प्रार्थना करना चिकित्सा का एक आवश्यक अंग है।

व्यवहार में प्राकृतिक चिकित्सासंपादित करें

प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है, अपितु यह एक जीवन पद्धति है। इसे बहुधा 'औषधिविहीन उपचार पद्धति' कहा जाता है। यह मुख्य रूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है। जहाँ तक मौलिक सिद्धांतो का प्रश्‍न है, इस पद्धति का आयुर्वेद से निकटतम सम्बन्ध है।

प्राकृतिक चिकित्सा के समर्थक खान-पान एवं रहन-सहन की आदतों, शुद्धि कर्म, जल चिकित्सा, ठण्डी पट्टी, मिटटी की पट्टी, विविध प्रकार के स्नान, मालिश्‍ा तथा अनेक नई प्रकार की चिकित्सा विधाओं पर विशेष बल देते है। प्राकृतिक चिकित्सक पोषण चिकित्साभौतिक चिकित्सावानस्पतिक चिकित्साआयुर्वेद आदि पौर्वात्य चिकित्सा, होमियोपैथी, छोटी-मोटी शल्यक्रिया, मनोचिकित्सा आदि को प्राथमिकता देते हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा के व्यवहार में आने वाले कुछ कर्म नीचे वर्णित हैं-

मिट्टी चिकित्सासंपादित करें

प्राकृतिक चिकित्सा में माटी का प्रयोग कई रोगों के निवारण में प्राचीन काल से ही होता आया है। नई वैज्ञानिक शोध में यह प्रमाणित हो चुका है कि माटी चिकित्सा की शरीर को तरो ताजा करने जीवंत और उर्जावान बनाने में महती उपयोगिता है। चर्म विकृति और घावों को ठीक करने में मिट्टी चिकित्सा अपना महत्व साबित कर चुकी है। माना जाता रहा है कि शरीर माटी का पुतला है और माटी के प्रयोग से ही शरीर की बीमारियां दूर की जा सकती हैं।

शरीर को शीतलता प्रदान करने के लिए मिट्टी-चिकित्सा का उपयोग किया जाता है। मिट्टी, शरीर के दूषित पदार्थों को घोलकर व अवशोषित कर अंततः शरीर के बाहर निकाल देती है। मिट्टी की पट्टी एवं मिट्टी-स्नान इसके मुख्य उपचार हैं।

मृदास्नान (मड बाथ) रोगों से मुक्ति का अच्छा उपाय है।

मिट्टी के लाभ

विभिन्न रोगों जैसे कब्ज, स्नायु-दुर्बलता, तनावजन्य सिरदर्द, उच्च रक्तचाप, मोटापा तथा विशेष रूप से सभी प्रकार के चर्म रोगों आदि में सफलतापूर्वक इसका उपयोग कर जीवन शक्ति का संचार एवं शरीर को कांतिमय बनाया जा सकता है।

रोग चाहे शरीर के भीतर हो या बाहर, मिट्टी उसके विष और गर्मी को धीरे-धीरे चूसकर उस जड़-मूल से नष्ट करके ही दम लेगी। यह मिट्टी की खासियत है।

मिट्टी कैसी हो?

मिट्टी-स्नान के लिए जिस क्षेत्र में जैसी मिट्टी उपलब्ध हो, वही उपयुक्त है लेकिन प्रयोग में लाई जाने वाली मिट्टी साफ-सुथरी, कंकर-पत्थर व रासायनिक खादरहित तथा जमीन से 2-3 फुट नीचे की होना चाहिए। एक बार उपयोग में लाई गई मिट्टी को दुबारा उपयोग में न लें। अगर मिट्टी बहुत ज्यादा चिपकने वाली हो तो उसमें थोड़ी-सी बालू रेत मिला लें। संक्रमण से ग्रस्त तथा अत्यधिक कमजोर व्यक्ति मिट्टी-स्नान न करें। ठंडे पानी से स्नान करने के पश्चात शरीर पर हल्का तेल मल लें।

सूखी मिट्टी स्नान

शुद्ध-साफ मिट्टी को कपड़े से छान लीजिए और उससे अंग-प्रत्यंग को रगड़िए। जब पूरा शरीर मिट्टी से रगड़ा जा चुका हो, तब 15-20 मिनट तक धूप में बैठ जाएं, तत्पश्चात ठंडे पानी से, नेपकीन से घर्षण करते हुए स्नान कर लीजिए।

गीली मिट्टी स्नान

शुद्ध, साफ कपड़े से छनी हुई मिट्टी को रातभर पानी से गलाकर लेई (पेस्ट) जैसा बना लीजिए और पूरे शरीर पर लगाकर रगड़िए तथा धूप में 20-30 मिनट के लिए बैठ जाएं। जब मिट्टी पूरी तरह से सूख जाए तब ठंडे पानी से पूरे शरीर का नेपकीन से घर्षण करते हुए स्नान कर लें।

मिट्टी की पट्टी का प्रयोगसंपादित करें

उदर विकार, विबंध, मधुमेह, सिर दर्द, उच्च रक्त चाप ज्वर, चर्मविकार आदि रोगों में किया जाता है। पीड़ित अंगों के अनुसार अलग अलग मिट्टी की पट्टी बनायी जाती है।

वस्ति (एनिमा)संपादित करें

वस्ति के लिये एक पिचकारी का उपयोग किया जाता है।

वस्ति (enima) वह क्रिया है, जिसमें गुदामार्ग, मूत्रमार्ग, अपत्यमार्ग, व्रण मुख आदि से औषधि युक्त विभिन्न द्रव पदार्थों को शरीर में प्रवेश कराया जाता है। उपचार के पूर्व इसका प्रयोग किया जाता जिससे कोष्ट शुद्धि हो। रोगानुसार शुद्ध जल, नीबू जल, तक्त, निम्ब क्वाथ का प्रयोग किया जाता है।

जल चिकित्सासंपादित करें

मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है।

पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है।

मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है।

पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है।

रोगों और शारीरिक पीड़ा के निवारण के लिये गर्म पानी का प्रयोग तो साधारण गृहस्थों के यहाँ भी सदा से होता आया है, पर ठंडे पानी के लाभों को थोड़े ही लोग समझते हैं, यद्यपि ठंडा पानी गर्म पानी की अपेक्षा अधिक रोग निवारक सिद्ध हुआ है। ज्वर, चर्म, रोग में ठंडे पानी से भीगी हुई चादर को पूरी तरह लपेटे रहने से आश्चर्यजनक लाभ पहुँचता है। उन्माद तथा सन्निपात के रोगियों के सिर पर खूब ठण्डे जल में भीगा हुआ कपड़ा लपेट देने से शान्ति मिलती है। शरीर के किसी भी भाग में चोट लगकर खून बह रहा हो बर्फ के जल में भीगा हुआ कपड़ा लगाने से खून बहना रुक जाता है। नाक से खून का बहना भी पानी से सिर को धोने तथा मिट्टी के सूँघने, लपेटने से ठीक होता है। इसी प्रकार अन्य अंगों के विकार भी जल के प्रयोग से सहज में दूर हो जाते हैं। जर्मनी के डाक्टर लुई कूने ने अपने ग्रंथ में बहुत स्पष्ट रूप से यह समझा दिया है कि जल−चिकित्सा ही सर्वोत्तम है। उसमें किसी प्रकार का खर्च नहीं है और सादा जल का प्रयोग करने से शरीर में कोई नया विकार भी उत्पन्न होना संभव नहीं है।

स्नान की वैज्ञानिक विधि

स्नान के लिये बहता हुआ साफ पानी सबसे अच्छा होता है। वह न मिल सके तो कुँआ, तालाब आदि का ताजा पानी भी काम दे सकता है। बहते हुये और ताजा पानी में जो प्राण तत्व पाया जाता है वह बर्तनों में कई घंटों तक रखे पानी में नहीं रहता। इसलिये अगर रखे हुये पानी से ही काम लेना पड़े तो उसे एक बर्तन से दूसरे बर्तन में बार−बार कुछ ऊँचाई से डालने से उसमें प्राण−शक्ति का संचार हो जाता है। स्नान का पानी सदैव ठण्डा ही होना चाहिये, हाँ उसका तापक्रम ऋतु के अनुसार इतना रखा जा सकता है जिसे अपना शरीर सहज में सहन कर सके। अपनी शक्ति से अधिक ठण्डे पानी, से स्नान करना जिससे मन प्रसन्न होने के बजाय संकुचित हो, लाभदायक नहीं होता। इसी प्रकार गर्म पानी से स्नान करना भी हानिकारक है, सिवाय किसी विशेष बीमारी की अवस्था के जिसमें इस प्रकार के स्नान का विधान हो। पानी अधिक ठण्डा जान पड़े तो उसे धूप में रख कर या गर्म पानी मिला कर सहने योग्य बनाया जा सकता है। बहुत ठण्डे पानी में अधिक देर तक स्नान करने से रक्त −संचारण क्रिया में बाधा पड़ती है।

स्नान करते समय शरीर को खूब मलना आवश्यक है जिससे मैल छूट कर देह के भीतर की गर्मी को उत्तेजना मिले और रक्त−संचरण ठीक ढंग से होने लगे। इसके लिये शरीर को किसी मोटे और खुरदरे तौलिये से रगड़ना ठीक रहता है। इससे शरीर के रोम कूप भली प्रकार खुल जाते हैं और भीतर का मैल पसीने के रूप में आसानी से निकल सकता है। पीठ, रीढ़ की हड्डी, चूतड़, लिंगेन्द्रिय, आदि की सफाई करने का बहुत से लोग ध्यान नहीं रखते। पर इन स्थानों की सफाई की और भी अधिक आवश्यकता होती है। इसलिये आधुनिक सिद्धान्तानुसार एकान्त कमरे में नंगे होकर स्नान करने को अधिक लाभदायक बतलाया गया है। कुछ भी हो स्नान में जल्दबाजी न करके समस्त अंगों को भली प्रकार रगड़ना और साफ करना आवश्यक है।




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