सिद्वियां
योगाभ्यास के
निरंतर बारह वर्ष के निरंतर अंतराल में सिद्वियों का कार्यानुकरण करना। योगी का
चरम लक्ष्य ब्रम्ह में एकाकार सा है तथा यौगिक साधनों का भी यहीं परिणाम होता है।
परंतु यह साधना उतनी आसान नहीं है जितनी लगती है। योग में सम्पूर्ण साधना के
स्थिति में व्यक्ति तभी कहा जा सकता है जब वह योग के आठो अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि के
स्थिति में सफलता पूर्वक गुजरता हुआ निरंतर अभ्यास करता है जब साधक स्वयं में
पूर्णता की स्थिति का अनुभव करने लगता है तो उसकी साधना में किसी अवरोध का आने की
संभावना होती है परन्तु जब साधक या योगी स्व की सता को परमात्मा पर समर्पित करके
यम, नियम आदि का पालन करता हुआ दृढ़ साधना के पथ पर चलता रहता है तो एक दिव्य आनंद
का अनुभव करने लगता है तथा उस योगी या साधक में एक विचित्र गुण तथा लक्षण स्पस्ट होने लगते है। गुरू गोरक्षनाथ
ने ऐसी योग साधना करने वाले योगी अथवा साधक होने वाले सम्पूर्ण परिवर्तन को बारह
वर्षों में विभक्त किया गया है। उन्होंने अपनी पुस्तक सिद्व सिद्वांत पद्वति में
चर्चा करते हुए कहा है कि कोई साधक बारह वर्ष तक यम नियम आदि अंगों का पालन करते
हुए साधना करता है तो प्रतिवर्ष उसमें विचित्र लक्षण प्रकट होने लगते हैं। प्रथम
वर्ष - निरंतर अभ्यास की प्रथम वर्ष पूरा होते ही अभ्यासी या योगी असाध्य
सिद्वियों को भी प्राप्त करता है और रोग से रहित होकर सभी लोगों में प्रिया होता
है। ऐसे योगी के दर्शन सभी लोग चाहते हैं। अर्थात् वह योगी या साधक जिधर से गुजरता
है लोग उसे ही देखने की कोशिश करते हैं। द्वितीय वर्ष - में कृतार्थ होकर संसार के
सभी देश, जाति एवं जीव जंतुओं की भाषा जानने लगता है। और उसका भाषण भी करता है।
तीसरे वर्ष में
दिब्य देह होकर व्याल और ब्याघ्र आदि किसी भी भयानक जानवरों से बाध्य नही होता।
चौथे वर्ष में
भूख, प्यास, निद्रा, शीत, ताप से विवर्जित होकर अर्थात् अप्रभावित होकर
दिव्ययोग को प्राप्त कर दूर के शब्दों को सुनता है।
पांचवे वर्ष में
योगी को वाक्य सिद्वि प्राप्त होती है अर्थात् वह जो कुछ बोलता है वह घटना सत्य का
रून ले लेता है। और उस योगी में दूसरे शरीर में प्रवेश करने की भी शक्ति प्राप्त
हो जाती है।
छठे वर्ष में
निरंतर अभ्यास से छठा वर्ष पूरा होते ही योगी का शरीर ऐसा हो जाता है कि शास्त्रें
द्वारा काटा नहीं जा सकता। छेदन नहीं हो सकता और नहीं वज्रपात का प्रभाव उस योगी
पर नहीं पड़ता।
सातवें वर्ष में
योगी पवन के समान वेग से चलने की शक्ति प्राप्त कर लेता है और वह भूमि छोड़कर चलने
में भी सामर्थय होता है। अर्थात् दूर तक की घटनाओं को देख सकता है।
आठवें वर्ष के
पूरा होते ही योगी आठों सिद्वियों को प्राप्त कर लेता है।
नौवें वर्ष पूरा
होते ही योगी का शरीर वज्र के समान कठोर हो जाता है और वह आकाश में विचरण करने की
भी क्षमता को प्राप्त कर लेता है तथा दशों दिशाओं में स्वच्छंदता पूर्वक भ्रमण
करने लगता है।
दसवें वर्ष में
पवन से भी तीव्र गति वेग वाला होकर जहां इच्छा है वहां जाता है।
ग्यारहवें वर्ष
में वह साधक या योगी स्वयं कर्ता और हर्ता बन जाता है अर्थात् वह शिव तुल्य हो
जाता है और वह त्रयलोक यानि तीनों लोक में उसकी पूजा होती है। इस प्रकार बारह
वर्षों में क्रमिक निरंतर अभ्यास से उपरोक्त सिद्वियों की प्राप्ति होती है।
गोरक्षनाथ के
आधार पर सिद्वियां-
सिद्विर साध्याः
सर्वाश्च सत्यमिश्वर भाषणम्।
प्रथमतु रोग
रहितः सर्वलोक प्रियो भवेत।।
कांक्षते दर्शनं तस्य स्वात्मारामस्य योगिनः।
कष्टार्थ स्याद द्वितियेतु कुरूते सर्वभाषणम्।।
तृतीयं दिब्य
दहस् व्याले व्याध्रेन बाध्यते।
चतुर्थे
क्षत्रिया निद्रा शीत ताप विवर्जिताः।।
जायते दिव्य
योगेशो दूरस्त्रवी न शंस्यः।
वाक सिद्वि पंचमे
वर्षे परकाया प्रवेशनम्।।
षष्टमें
छिद्रतेशस्ते वज्रपाते न बाध्यते। वायुवेगी क्षिति त्यागी दूर स्त्रवी च सप्तमे।।
अणिमादि गुणोपेतः
सोअष्टमें वत्सरे भवेत। नवमें वज्रकायस्यातः खेचरो दिकचरो भवेत।।
दशमे पवनात वेगी
यत्र इच्छा तत्र गच्छति। सम्यगेकादशे वर्षे सर्वज्ञ सिद्विभाग्य भवेत।।
द्वादशे
शिवतुल्योसु कर्ता हर्ता स्वयं भवेत। त्रैयोक्ये पूज्यजे सिद्विः सत्यं श्री भैरवो
यथा।।
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