वायु
वायु को ही प्राण
वायु कहा गया है।
प्रधान वायु -
प्राण, अपान, समान, उदान, ब्यान।
उप प्रधान वायु -
नाग, कूर्म, क्रिकल, देवदत, धनंजस।
प्राणवायु के
कार्य - रक्त शुद्व होता है।
प्राण वायु - ऑंख
में (कीचड़)
कान में
मुख में
गुदा में
उपस्थ में
ब्रम्हरंध्र में
कार्य - रक्त
शुद्व करना।
अपान वायु - जंघा
में, गुदा
नाभि के चारो तरफ
घुटने में
पिंडली में
अपान वायु के
कार्य - शरीर की गंदगी को बाहर निकालना।
समान वायु - नाभि
के अंदर
कार्य - शरीर का
पोषण करना एवं भोजन को ईंधन प्रदान करती है। जठराग्नि को प्रजवलित करने में सहायक
है।
उदान वायु - कंधे
का जोड़
उदान वायु के
कार्य - शरीर का हिलना-डुलना
व्यान वायु -
सम्पूर्ण शरीर में
कार्य - हीलना -
डुलना।
प्राण अपान समान
ही और ब्यान उदान।
नाग धनंजय देवदत
कूर्म किरिकल जान।।
प्राण वायु ”दय के ठाहिं, बसे अपान गुदा के
माहि।
समान वायु नाभि
स्थाना, कंठ माहि वायु उद्याना।।
व्यान जो व्यापक
है तन सारे नाग वायु सो उठे डकारे।
पलक उघारे कूर्म
वायु देवदत सो आये जम्हाई।
किरकिल वायु भूख
लगाए मुए धनंजय देह फुलाए।
सब से प्राण वायु
मुख्य जानो सो ”दय के मध्य पहचानो।।
”दय में स्थान है प्राण वायु का जान।
याको रोके सब
रूके वायु में प्रधान।।
मरणोपरान्त मृतक
शरीर को न जलाया जाए तो 12 दिन तक धनंजय वायु रहती है। समान वायु वश में होने पर मुख
देदीप्यमान हो जाता है। प्राण एवं अपान वायु के मिल जाने पर पेशाब एवं मल से बदबू नहीं आती तथा उसकी इच्छा
नहीं रहती।।
प्राण वायु
प्रधान हे जो ”दय के बीच में निवास करती है। चरणदास जी कहते है। प्राणवायु
को रोकने से नौ प्रकार की वायु रोकी जा सकती है। इसलिए योगियों ने प्राणवायु को
बहुत महत्व दिया है। और चरणदास जी कहते है-
दस वायु जो एक ही
तिरथ छोटा।
सोय प्राण अपान
है तिन के पीछे कोय।।
दस वायु में सबसे
प्रधान है- प्राण, अपान। क्योंकि प्राण को अपान से मिलाने से ही समाधि अवस्था
की प्राप्ति होती है। और प्राण को अपान में मिलाने से ही श्वास की गति लम्बी होने
लगती है। इसलिए योगियों को चाहिए कि गुरू के बताए हुए प्राणायाम के द्वारा मूलबंध
आदि का भली प्रकार अभ्यास करे जिसके द्वारा प्राण और अपान की गति एक हो जाए।
योगशास्त्रें के अनुसार - अपान प्राण योरक्यं श्रयो न मूत्र पूरिश्रयं। अर्थात् जब
प्राण और अपान की गति एक हो जाती है तब योगी बहुत कम मल मूत्र का त्याग करता है
अर्थात् ऐसे योगी के शरीर से मल मूत्र बहुत कम बनता है। इस प्रकार एक एक प्राण को
जीतने से अलग-अलग प्रकार की सिद्वियॉं प्राप्त होती है।
उदान वायु को
जीतने से जल, कीचड़, कांटे आदि का योगी के शरीर का संभोग नहीं होता
और वह उर्ध्वगति को प्राप्त होता है। क्योंकि योगी का शरीर धुनी हुई रूई के समान
हल्का हो जाता है। अतः वह कीचड़ पानी पर चलते हुए भी उसके पैर उसके अंदर नहीं जाते।
कांटे आदि भी उसके शरीर में प्रवेश नहीं करते। मृत्यु काल में ऐसे योगी के प्राण
ब्रम्हरंध्र से ही जाते हैं और समान वायु को जीत लेने से योगी का शरीर देदीप्यमान
हो जाता है। जब योगी समान वायु को जीत लेता है तब उसका शरीर अग्नि के समान
प्रकाशमान हो जाता है। क्योंकि जठराग्नि और समान वायु का घनिष्ठ संबंध है।
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