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नादानुसंधान

 

नादानुसंधान

 

विधि: नादानुसंधान के द्वारा सहज ही समाधि तक पहुंचा जा सकता है। गोरक्षनाथ ने नादानुसंधान को सर्वसाधारण के लिए सर्वोच्च बताया है और उसके पूर्व लाभ होने को कहा है। नादानुसंधान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे ज्ञानी, पंड़ित, विवेकी और मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी कर सकता है। जो कोई साधन न जानने पर भी मनुष्य सब कुछ पा लेता है और जिस तत्व तक पहुंचने के लिए योग के द्वारा  कठिन परिश्रम करने पर सफलता प्राप्त होती है। जैसे योगी जब प्राण को कुंडलीनी के संचार के द्वारा मूलाधार से लेकर अनंत चक्र तक ले जाता है जब ये नाद स्वतः सुनाई देता है लेकिन प्राण अपान को मिलाकर चौथी चक्र में मिलाना कोई आसान बात नहीं है। अर्थात् कठिन परिश्रम करने पर ही प्राण चौथे चक्र पर पहुंचता है। परंतु नादानुसंधान योग के अन्य साधकों को न जानते हुए भी केवल अन्दर ही सुन सकते हैं। साक्षात शंकर जी ने कहा है मन को लय करने के लिए सवा करोड़ साधनों में से सर्वोच्च साधन नादानुसंधान है। नादानुसंधान योगी और साधारण लोगों के लिए उपयोगी है। योगशिखोपनिषद में ब्रम्हा जी को शंकर जी ने कहा है कि हे ब्रम्हा नाद के नादार्थ करो। अर्थात् नादानुसंधान से बढ़कर कोई दूसरा मंत्र नहीं है और आत्मा से बढ़कर दुसरा कोई देवता नहीं है और नादानुसंधान से बढ़कर कोई पूजा नहीं है। सर्वप्रथम नाद, झरना, नगाड़ा, मेघ की गर्जन, समुद्र की लहरों की तरंग सुनाई देती है लेकिन अधिक होने पर     की तरह धीमी हो जाती है। इस प्रकार की ध्वनि शुष्क से शुष्क होती जाती है। परन्तु साधक को चाहिए कि वे धीमे से घने आवाज में मन इधर-उधर न भटके। मन को लगाना चाहिए।

जिस प्रकार पानी में दुध डाल दिया जाए तो वह दुध दिखाई देता है उसी प्रकार उस ध्वनि के साथ मन एकांत होता है। क्योंकि नाद ही मन विलिन होने पर व्यक्ति समस्त चिंताओं को भूल जाता है। जो अनहद नाद को सुनता है वह ब्रम्ह के समान हो जाता है।

अर्थात् अनंत शब्द में जो ध्वनि सुनाई देती है अर्थात् जो दस प्रकार की ध्वनि सुनाई देती है ज्योती पैदा हो जाती है और उसी ज्योति में मन चला जाता है और मन ज्योति में विहिन हो जाता है, वही भगवान विष्णु का परम पद है।

जो मनुष्य नादानुसंधान का अभ्यास करता है उसकी सम्पूर्ण इच्छाएं नष्ट हो जाती है और वह निर्लिप्त होकर अपने प्राण और मन को विहिन कर लेता है। यह नादानुसंधान एक ऐसी चीज है जो कि मन को वश में होने पर मन में लय होने पर प्रकट हो जाते हैं जैसा देखा गया है कि कोई मंत्र का अभ्यास करता है और बहुत देर तक जपता रहता है ऐसे अभ्यासी को नाद स्वतः प्रकट हो जाते हैं। इन नाद के द्वारा 10 प्रकार की दुर्लभ चीज है जिसे न तो आंखें देख सकती है न इसके स्वाद को मुख वर्णन कर सकता है और न ही दसों इंद्रियों को मन, बुद्वि इत्यादि से परे जो पार ब्रम्ह तत्व है वहॉं पहुचने पर जो समाधि अवस्था का अनुभव करता है उसको किसी प्रकार बताया नहीं जा सकता अर्थात् जो बताता है जो देखा होता है, सुना होता है। वेदों में येति-येति कहकर ब्रम्ह के परिभाषा को समाप्त कर दिया है।

नाद के द्वारा सिद्वियॉं - दस प्रकार की सिद्वियॉं -

प्रथमे चिनचिनणी गात्रम्, द्वितीय मात्र भजेनम्।। तृतीये खेदनम् जाति, चतुर्थे कम्पते शिश।।

पंचमे श्रवते तालु, षष्टे अमृत निश्वेवनम्। सप्तमें गुद विज्ञानं परावाचा तथा अष्टमे।।

अदृश्यम् नवमे देहम् दिव्य चक्षुससा तथा मलय। दशमे परमम् ब्रम्ह भवेत ब्रम्हृात्यम् सविधो।।

तस्मिन्मनो विलियते मनसि संकल्प विकल्पे। दग्धे पुण्य पापो सदा सिव।।

अर्थ - पूरे शरीर का सामान्य होना, अत्यधिक आनंदित होना, आनंद में रोमांश हो जाता है। हल्का सा कांप जाता है, शरीर पिघल जाता है, शरीर मन से अलग हो जाता है। मन से शरीर का संबंध टूट जाता है। मन का सुख-दुःख समाप्त हो जाता है। न सुखम् न दुःखम् तथा। न मानम् न अपमानम् च योगी युक्ता समाधिनाः।। अर्थात् समाधि जैसा हो जाता है।

- शरीर में कंपन होने लगता है जब प्राण चढ़ता है।

- कपाल कुंभ से अमृत रस झड़ने लगता है।

- इसी अमृत रस के द्वारा पूर्ण शरीर का पोषण होता है।

- गुण विद्या आ जाती है जैसे बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं मिल सकती।

- इसे वाणी से नहीं पकड़ा जा सकता, जिसको आंख नहीं देख सकती। इन्द्रियां मन आदि से परे है। अर्थात् ब्रम्ह का ज्ञान हो जाता है।

विद्या दो प्रकार की होती है-

पराविद्याा और अपराविद्या

अपराविद्या- सांसारिक।

- दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है। व्यास जी ने संजय को 18 दिन के लिए दिव्य दृष्टि दी थी। तीनों प्रकार के मल दूर हो जाते हैं। शारीरीक, मानसिक और आध्यात्मिक।

- ब्रम्ह के समान हो जाता है। परब्रम्ह और ईश्वर में कोई अंतर नहीं रहता। योगी ब्रम्ह विलिन हो जाता है। संकल्प, विकल्प, पाप, पूण्य सब ब्रम्हमय हो जाते हैं। साक्षात शंकर जी ने कहा है।

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