कुंडलीनी
कुंडलीनी के 108 नाम है।
1- कुटलांगी - कुटील आकार के
2- भुजंगीनी - सर्प के आकार के पूंछ को मुंह में दबाए
3- शक्ति - आत्मा की शक्ति
4- ईश्वरीय - ईश्वर की शक्ति
5- अरूंधती - जिसको कोई मार न सके, रोक न सके
6- कुंडली (गोल) - कुंडल के आकार के
7- कुंडल्या -
8- तपस्वनी - तपस्या के बल पर सब कुछ प्राप्त
करना
9- तारण्ड - बचपन की विधवा
10- सती -
11- समुखी - सुंदर मुुख वाली
12-
सरस्वती - जब
कुंडलीनी जग जाती है तो योगी वर्तमान, भूत, भविष्य तीनों का ज्ञाता हो जाता है।
13- परमेश्वरी - ईश्वर की सबसे बड़ी शक्ति
14- सूर्या - यह गर्मी देती है 1
5- रवि - सूर्य के समान
16- फड़वती (फड़वाली)
17- नागीनी-
18- सर्पीनी
19- अग्नि
20- रज
21- रक्तवर्णा - लाल रंग वाली
22- स्वधारा - स्वयं जिसका आधार हो।
23- तत्वरूपीणी - तत्व जिसका स्वरूप है।
24-सुक्ष्मातिसूक्ष्मा - सूक्ष्म से भी सूक्ष्म
25- परमा - सबसे बड़ी
26- विद्युत कुंज - बिजली के समूह जैसा
27- ब्रम्हग्रहणी - ईश्वर को ग्रहण करने वाला
28- पंचासद वर्ण रूपीणी - 50 अक्षरों वाली
29- शिवस्वनर्तकी - सबको नचाने वाली
30- नित्या - हमेशा रहने वाली
31- परब्रम्हपर्जिता - ईश्वर भी इसकी पूजा करता है।
32- ब्राहण्स्थ गायत्री - ब्राहणों की गायत्री
33-
छिदानंद - ज्ञान
व आनंद जिसका स्वरूप है।
34- ब्रम्हस्यवस्त वातायन -
35- प्राणात्मा - प्राण की आत्मा
36- नित्या नूतना - सदा नवीन रहने वाली
37- सानन्दा - हमेशा आनंद वाली
38- महत्वपूर्णा - सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं पवित्र
39- त्रकोटी - तीन करोड़ तीर्थों वाली
40- सर्वज्ञानमयी - सब प्रकार की ज्ञान वाली
41- सर्वदानमयी - सब प्रकार की दान देने वाली
42- सर्वसिद्विमयी - सब प्रकार की सिद्वि देने वाली
43-सर्वतालूमयी - तालू में स्थित रहने वाली
44- सदाधारा ईश्वर के आधार वाली
45- विन्दुसा - बिन्दु में स्थित रहने वाली, ब्रम्हमयी
46- विन्दुमालीनी - ईश्वर के समान गुथना
47- केशमूलगा - केश के, बालों के मूल स्थान में रहने वाली
48- प्राण विद्या - प्राणायाम की सबसे बड़ी विद्या
49- महाविद्या
50- पराशक्ति - सर्वोतम ब्रम्ह की शक्ति
51- वेदाधारा - वेदों का आधार
52- सदाधारा - सबका आधार
53- प्राणधारिणी
54- भगवती - 6 अंगों वाली
55- रत्नपूरिता - जो रत्नों से पूर्ण है
56- सिद्विदा - सब प्रकार के सिद्वि देने वाली
57- सर्ववरदा - सब प्रकार के वर देने वाली
58-दुर्गा - कष्टों का निवारण करने वाली
59- सर्वगामीनी - सर्वत्र पाने वाली
60- वैष्णवी- भगवान विष्णु की शक्ति
कुंडलनी आत्मा की
सबसे बड़ी शक्ति है जिसे परावाणी या प्राणरूपीणी भी कहते हैं। जिस प्रकार सृष्टि का
आधार पृथ्वी और पृथ्वी का आधार शेषनाग है उसी प्रकार जिवात्मा का आधार कुंडलीनी
शक्ति है।
सशैल वन
धात्रीणांयथा धारो हिनाय। सवेशां योग
तन्त्रणां तथा धरो हि कुंडली।।
वास्तव में
सम्पूर्ण मानव जीव और कुंडली साधकीय जीवन का एक ही उदेश्य होता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को
प्राप्त करना। परन्तु धर्म अर्थ काम से भी श्रेष्ठ अवस्था मोक्ष की है जो कि
कुंडलीनी को जगाने के पश्चात ही संभव हो सकती है। शरीर में एक ऐसा शक्तिमान
केन्द्र है जो विभिन्न कार्य सम्पन्न करने की क्षमता प्रदान करता है। ऐसा कोई नहीं
जो बिना शक्ति के हो। किसी मशीन को चलाने के लिए भी शक्ति की आवश्यकता होती है।
उसी तरह मानव शरीर भी एक मशीन की तरह है और इस मानव शरीर रूपी मशीन को चलाने के
लिए जिस शक्ति की आवश्यकता होती है उस शक्ति का नाम है कुंडलीनी या आत्मशक्ति।
इसे आत्मशक्ति इसलिए कहा गया है क्योंकि यह
आत्मा की शक्ति है क्योंकि शरीर में स्थित इस शक्ति को जगाने के लिए मन की शुद्वता
जरूरी है। मन शुद्व होने के पश्चात ही आंतरिक जागृति होती है तथा मनुष्य की इच्छा
या क्रिया इस शक्ति के अधिन हो जाती है। कुंडलीनी एक ऐसाी शक्ति है जो अद्वितीय
है। उसके हाथ पांव कुछ भी नहीं फिर भी जब वह जागृत होती है तो चुप नहीं बैठती और
अपनी यात्र के लिए तत्पर रहती है। यह परम मार्ग से चलकर ब्रम्हरंध्र में पहुंचती
है अर्थात् मूलाधार से साढ़े चार आंगुल उपर
इस कुंडलीनी का स्थान बताया गया है। जो लाल रंग की है और बाल के हजारवें भाग जितनी
पतली पूंछ को मुंह में दबाए सुप्तावस्था में बैठीर है। यह परममार्ग से चलकर ब्रम्हरंध्र में पहुंचती है। तत्पश्चात
ही जीव परमपद की प्राप्ति कर लेता है तथा जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
अर्थात् उसे मोक्ष मिल जाता है। इसे अलग-अलग ऋषियों, योगियों ने अलग-अलग नाम से पुकारा है- कुटलांगी, कुंडलनी, भुजंगनी शक्ति, ईश्वरीय, कुंडल्या, अरूंधती चेते
शब्दा पर्यायवाचिक बालरहंडा तपस्वनी सती च सुमुखोश्यच तथा सरस्वती प्रोक्ता परमेश्वरी पुरा।।
रंग, रूप और आकार -
योगाचार्यों ने
इसके आकार का जो चित्रण किया है वह बहुत ही सार्थक है।
कुंडलनी
कुटिलाकारा सर्ववत परिकीर्तिता। सा शक्तिचालिता येन स मुक्तो नात्र संशयः।।
अर्थात्, यह कुंडलीनी
कुटील आकार की सर्पणी के समान है जिसने उसे जागृत कर दिया वह मुक्त हो जाता है।
इसमें संचय नहीं है। भक्ति सागर में इसी के संदर्भ में आगे कहा गया है-
नागिन सूक्ष्म
जानिये बाल-बाल सहसवां भाग। शुकदेव कहै आकार ही रक्त वरण ज्यों नाश।।
यह कुंडलीनी इतना
सूक्ष्म है कि बाल के हजारवें भाग जैसी पतली है और सुकदेव जी कहते हैं कि इसका रंग
रक्त के समान लाल है। इसके आकार के बारे में आगे कहा गया है-
मूलाधारे
स्थितानित्यं कुंडलनी तत्वरूपीणी। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमा विसतन्तु स्वरूपीणी।।
अर्थात् यह
कुंडलनी इतनी सूक्ष्म है कि कमल के फूल नाल यानि डंडी को तोड़ने के पश्चात जितना
खींचा जा सके उस रेशे जैसी पतली है और वह हर समय मूलाधार में विद्यमान रहती है।
सभी जीव जंतुओं में कुंडलनी है विभिन्न जीवों मेें कुंडलनी के घर का आकार इस
प्रकार है-
स्थान घर आकार
मनुष्य कंदस्थान त्रिकोण
जन्तु ”दय चौकोन
पक्षी पेट गोल
सरीसृप पेट षटकोण
कीट पेट अष्टकोण
हठ योग में
स्वात्मा राम जी ने कहा है- मूलाधारे आत्मशक्तिः कुंडली पर देवता। शयिता भुजगाकारा
साहर्द त्रिवल्यान्विता।। यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीवः पशुर्यथा। ज्ञानं न
जायते कोटि योगं समभ्यसेत।। अर्थात् मूलाधार से साढ़े चार आंगुल उपर आत्मा की सबसे
बड़ी शक्ति कुंडलनी साढ़े तीन लपेटे अपनी पूंछ को अपनी ही मुंह में दबाए हुए जो कि
भुजंग के आकार की है सुप्तावस्था में है। जब तक यह शक्ति सुप्तावस्था में रहती है
तब तक जीव पशु के सदृश्य रहता है। उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। बेशक वे करोड़ो
अभ्यास पूर्ण कर ले इसी स्थान के बारे में
और वर्णन मिलता है। इडा भगवती गंगा पिंगलो यमुना नदी। इडो पिंगला मध्ये बालरंडा च
कुंडलनी।।
इडा और पिंगला के
मध्य में सुषुम्ना नाड़ी है जिसके अंतिम सिरे पर बालरंडा नाम की कुंडलनी अवस्थित
है। इसके रंग, स्थान के बारे में और भी कहा गया है।
सिन्दुरव्रातं संकाशं
रवि स्थाने स्थितं रजं। शशि स्थाने स्थितं शुक्ला तयोरैक्य सुदूर्लभं।।
अर्थात् रवि या
सूर्य स्थान में सिंदुर के समान लाल रज रूपी कुंडलनी स्थित है तथा शशि या चन्द्र
स्थान में सफेद रंग का विन्दू स्थित है इन दोनों को मिलाना ही दुर्लभ है।
कुंडलनी का स्थान
- योनी मध्ये महाक्षेत्रे जपा बन्धु
सान्निधौ । रजो वस्ति जन्तुनाम देवी तत्वम् समा वृतम्।।
रजसो रेतसो योगात
राजयोग इति स्मृता।।
अर्थात् योनी के
मध्य भाग में जो महाक्षेत्र है इस महाक्षेत्र में जप्प बन्धु नामक यानि रक्तवर्ण
के फुल के समान रज रूपी कुंडलनी का स्थान है जो कि सभी जीवों में विद्यमान है यहीं रज रूनी महाशक्ति
कुंडलनी तथा रेत रूपी ब्रम्हरंध्र में स्थित शिव का मिलन ही राजयोग है।
स्थान - गुदासथ
पृष्ठ भागेस्मिन वीणा दण्डा, सदेहमृत। दीर्घस्थ स्थित देह पर्यन्त ब्रम्ह
नाड़ी कथयते।। तस्यान्ते शरीरम् सूक्ष्म ब्रम्हनाड़ी सूरभि। इडा पिंगला मध्य सुषुम्ना सूर्य रूपणी।।
गुदा के पृष्ठ
भाग में वीणा की दंडे के समान मेरूदंड है उसमें यानि मेरूदंड में वीणा के तारों के
सदृश्य नाड़ियों का निवास है जो सम्पूर्ण शरीर में फैली है। उसके मध्य स्थित नाड़ी
को ब्रम्ह नाड़ी कहा गया है। उसमें यानि ब्रम्हनाड़ी में अन्त में एक सूक्ष्म छिद्र है इडा और पिंगला के मध्य सुषुम्ना में
सूर्यरूपणी यानि कुंडलनी स्थित है।
येन मार्गेन
गन्तव्य ब्रम्ह स्थानं निरामयं। मुख्येण छादत तद द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी।।
अर्थात् मार्ग जो
ब्रम्ह स्थान को जाता है उसी मार्ग के द्वारा मुख को ढ़ककर परमेश्वरी नाम की
कुंडलनी सोई हुई है। एवं कंद उर्धभाग में सोई हुई कुुंडलनी मोक्ष के निर्मित होती
है परन्तु मूढ़ यानि मूर्ख के लिए बन्धन प्रद हो जाती है जो उसे जगाता है वही योग
को जानने वाला होता है। मोक्ष मार्गे प्रतिष्ठानात् सुषुम्ना विश्वरूपीणी ।
क्योंकि मोक्ष मार्ग पर प्रतिष्ठित है। इसलिए इसको विश्वरूपीणी भी कहा गया है।
कुंडलनी जागृत -
महाशक्ति को जागृत करने के लिए साधक को भौतिक स्तरों से उपर उठकर मन को पूर्णरूपेण
शुद्व करने के पश्चात् जगाने का प्रयास
करना चाहिए। इसके जागरण के बारे में शास्त्रें में उल्लेख मिलता है- यम, नियम का पालन
करते हुए मन को शुद्व किया जाता है। आसन में स्थिरता लाते हुए प्राणायाम करते हुए
इन्द्रियों को वश में किया जाता है। ध्यान की प्रगाढ़ अवस्था आने पर मन पूर्ण रूप
से शुद्व हो जाता है। शुद्व मन और बुद्वि के द्वारा उस परम तत्व से मिलन होता है।
जिस प्रकार कुंजी के द्वारा हठ पूर्वक किवाड़ खोले जाते हैं अर्थात् ताला खोला जाता
है उसी प्रकार योगी कुंडलनी के द्वारा मोक्ष के द्वार को खोलता है। सोई हुई
भुजंगनी को पूंछ को पकड़क्र प्रवोधन करने से वह शक्ति निद्रा छोड़कर उठ स्थिर हो
जाती है।
भक्ति सागर के
अनुसार - पवन की चोट लगने से यानि भस्त्रिका प्राणायाम से यह अपना शीश उठाकर अपने
मुख्य स्थान की ओर अग्रसर हो जाती है। इसे भस्त्रिका प्राणायाम द्वारा इस प्रकार
जागृत किया जाता है। इस फड़वती नाम की कुंउलनी को प्रातः सायं आधे पहर यानि तीन बटा
दो घंटा तक सूर्य से वायु का पुरक करके वायु को ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए।
तीनों प्रकार के बंध लगाकर पांचों वायु को वश में करके प्राण सुषुम्नावाही होकर
ब्रम्हरंध्र में जाता है।
मुंह को पूंछ में
दबाए सुप्तावस्था में ये कुंडलनी ब्रम्रंध्र के द्वार पर स्थित है। साधक इसे
पदमासन में स्थित होकर गुदा का संकुचन करके ब्रम्हरंध्र में पहुंचाता है।
भक्तिसागर में महाशक्ति कुंडलनी शक्ति को जगाने के लिए मुद्राओं का उल्लेख किया
गया है।
मूलबंध और खेचरी
मुद्रा को ही जान। दोनों को साधो बिना होय अपान न प्राण।।
वायुना शक्ति
चालेना प्रेरितंच यथारथा। याहि बिन्दु सदैव तत्व भवेत दिव्स व कोस्तथा।।
महाशक्ति कुंडलनी
को प्रेरित किया जाता है। इसके जागरण के पश्चात साधक दिव्य शरीर का हो जाता है।
कुंडलनी को प्रेरित किया जाता है। इसके जागरण के पश्चात साधक दिव्य शरीर का हो
जाता है। कुंडलनी शक्ति ऐसा शक्ति हे जिसके जागरण होने से साधक पूर्णज्ञान की
प्राप्ति कर लेता है तथा वह जन्म जन्मात के संस्कारों से मुक्ति पा लेता है। यहीं
मोक्ष की कुंजी है।
सारांश - सृष्टि
का आधार कुंडलीनी है, देवताओं का आधार कुंडलीनी है। सभी वेदों का आधार कुंडलीनी
है जो स्वधारा है। अपनी आधार पर स्थित है।
कुंडलनी जागृत
करने में सहायक है- नाड़ीशोधन, पश्चिमोतानासन, मत्सयेन्द्रासन, भस्त्रिका प्राणायम।
Comments
Post a Comment