कपालभाति(भस्त्रिका)-
जिस क्रिया में लोहार की धाैंकनी की भाति रेचक और पुरक शीघ्रता से चलता हो वह क्रिया कपाल भाति कहलाती है। यह कफ आदि दोषों का शोषण करने वाली होती है।
विधि - पदमासन में बैठकर दाहिने हाथ की अनामिका एवं मध्यमा अंगुलियों से बाई नासारंध्रों तथा अंगुठे को दायीं नासारंध्र पर रख दें। अब बायीं नासारंध्र को बंद कर दायीं नासारंध्र से बलपुर्वक श्वास लेते है तथा दाएं से लेकर बाएं से निकालना है। फिर बाएं से सांस लेकर दाएं से निकालें। इस प्रकार यह क्रम बारी-बारी से चलता है। ध्यान रहे श्वास लेते समय पेट बाहर हो श्वास छोड़ते समय पेट अंदर रहे। इस क्रिया को भस्त्रिका या कपालभाति कहते हैं। (25 बार करें।)
लाभ - तेज जुकाम में श्वास नलियों के द्वारा जब कफ निकले सुत्रनेति का धौति क्रिया से जब इच्छित शुद्वि नहीं हो पाती तब कपालभाति लाभप्रद होती है।
इस क्रिया के द्वारा फेफडे़ एवं कफ करने वाली समस्त नाड़ियों से पिघलकर नासारंध्र या मुख द्वारा बाहर निकलती है।
इसके फलस्वरुप फेफडे शुद्व एवं निरोग रहते हैं।
मस्तिष्क एवं आमाशय की शुद्वी होकर पाचन शक्ति का विकास होता है।
खांसी, दमा, नजला जुकाम, स्मरण शक्ति का कमजोर होना, मन्द बुद्वी आदि अनेक रोगों, श्वास संबंधि रोगों की निवृति होती है।
मुख कांतिमान होता है, रक्त शुद्व तथा चित स्थिर होता है।
रक्त रहित शुद्व हुई सुषुम्ना नाड़ी चलने लगती है। जिससे अभ्यार्थी को मानसिक शांति मिलती है।
बीस प्रकार के कफ रोगों को सुखाने वाली है।
सावधानियां -
ह्रदय रोगी, उच्च रक्तचाप, पिलीया, ज्वर, हाइपर एसीडिटी इत्यादि रोगियों को यह क्रिया नहीं कराते।
अत्यन्त बलपुर्वक श्वास प्रश्वास नहीं करते क्योंकि नाड़ियों में आघात पहुंचने की संभावना रहती है।
वर्षाकाल मेें या अतिशीतल वायु में यह क्रिया वर्जित है क्योकि शरीर की गर्मी बाहर निकल जाती है।
कपालभाति जलनेति के पश्चात अवश्य करानी चाहिए जिससे जमा हुआ पानी पुर्णरुप से बाहर निकल जाए।
पुरक व रेचक के समय पेट फुले व पीचके तथा श्वास प्रश्वास से आवाज स्पष्ट सुनाई दें।
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