ऊं है अविनाशि
हमने ऊं या ओम के उच्चारण अनेक बार किया है और सुना है। इस मंत्र को बोलने या सुनने मात्र से मन और शरीर में ऊर्जा का संचार होता है। आखिर ऐसा क्या है इस शब्द में कि इसकी आवृति से तन मन झंकृत हो जाता है? वैसे इस शब्द पर भारत और भारत के बाहर भी बहुत शोध हुए हैं और वैज्ञानिक शोध भी इस शब्द की आवृति को प्रभावशाली बताते हैं। मंडुकउपनिषद, अथर्ववेद के एक ब्राहण का छोटा सा उपनिषद है जिसमें केवल 12 मंत्र हैं, लेकिन यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें ऊॅं कि महिमा और इसकी मात्र की विस्तृत और विलक्षण व्याख्या की गई है। इस उपनिषद में ब्रहमाण्ड में ऊॅं की गुंज के बारे में विवरण है तथा इस ऊॅ को ही जीवन की उत्पति का कारण माना गया है। ब्रहमाण्ड के सभी ग्रह जिस लय में एक निश्चित गति से भ्रमण कर रहे है, उस का कारण भी ऊॅ के गुंज को ही माना गया है। माना जाता है कि कौशितकी ऋषि निःसंतान थे। संतान प्राप्ति के लिए उन्होने सुर्य का ध्यान कर ऊॅं का जाप किया तो उन्हें पुत्र प्राप्ति हो गई।
गोपथ ब्राहमण में उल्लेख है कि जो कुश के आसन पर पुर्व की ओर मुख कर एक हजार बार ऊं रुपी मंत्र का जाप करता है उसके समस्त अर्थ और काम सिद्व हो जाते है।
शास्त्रें में ओंकार की महिमा इस प्रकार वर्णित की गयी है।
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहभ्दुर्भुवः स्वारितीतिच।।
ब्रम्हाजी ने वेदों से उसकी सार तत्व के रुप में निकले अ, उ तथा म् से ओम शब्द की उत्पति की है। ये तीनों भूः, भुवः तथा स्वः लोकों के वाचक हैं। 'अ" पृथ्वी, 'उ" भुवःलोक और म् स्वर्ग लोक का भाव प्रदर्शित करता है। अर्थात शास्त्रें में ऊॅं को तीनों लोकों में उच्चारित किया जाने वाला सबसे कल्याणकारी शब्द माना गया है। ऊॅ का प्रयोग लगभग सभी मंत्रें के प्रारंभ में किया जाता है। इसका कारण यह है कि ऊॅ को ऐसी आवृति का स्वर माना गया है, जिसका कभी अंत नहीं होता।
छादोग्योपनिषद में कहा गया है- ऊॅं इत्येतत् अक्षरः, अर्थात ऊॅं अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है। ऊॅ का ही दुसरा नाम प्रणव है।
योगदर्शन के अनुसार तस्य वाचकः प्रणवः अर्थात् उस ईश्वर का शब्द प्रणव है।
प्रण्वश्य परब्रम्ह परमात्मा, शब्द का प्रयोग शास्त्रें में बहुत बार हुआ है, अर्थात् प्रणव ही सर्वशक्तिमान तथा इस ब्रहमाण्ड का आदि और अंत है। इस तरह प्रणव अथवा ऊॅं एवं ब्रहम का कोई भेद नहीं है।
ऊॅं है ऊर्जा का संग्रहण -
ऊॅं अर्थात् ओम तीन अक्षरों से बना है। ये तीन अक्षर है अ, उ, एवं म।
जब हम अ का उच्चारण करते हैं तो स्वर प्रारंभ होता है, अर्थात् ऊर्जा की उत्पति होती है(अतः हम यह कह सकते हैं कि अ का अर्थ है उत्पति या आविर्भाव)
ऊॅ का उच्चारण करते ही हमारे होंठ गोल हो जाते हैं और स्वर तीव्र हो जाता है। अतः उत्पन्न ऊर्जा का विस्तार होता है अर्थात् ऊॅं का उच्चारण प्रगति और विकास को इंगित करता है।
म का उच्चारण करते समय होंठ बंद हो जाते हैं, जो इस बात का संकेत है कि ऊर्जा की उत्पति और विकाश के पश्चात उस ऊर्जा का संग्रहण करना और ऊर्जा का संग्रहण कर के मौन हो जाना। कहा गया है कि ज्ञानी कभी ज्यादा बोलते नहीं, ठीक उसी तरह जैसे आकाश अपना विस्तृत आकार और असीम शक्ति होने के पश्चत मौन होता है।
गीता में श्री कृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौन का ही पर्याय बताया है - मौनं चैवस्मि गुह्याना। वहीं दार्शनिकों का मानना है कि अधिक बोलने से शारीरिक और मानसिक दोनों शक्तियों का क्षय होता है।
ऊॅ के साथ लगी चन्द्रकार मात्र के संबंध में विद्वानाेंं के विभिन्न मत हैं। एक मत यह भी है कि चन्द्र क्योंकि मन का प्रतिक है तथा शास्त्रें में मन को ही सब से ज्यादा प्रभावशाली माना गया है, अतः शक्ति सम्पनता के साथ मन को भी महत्व दिया गया है और मन ही शब्द का कारक होता है।
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